मानवीयता आंदोलन के कर्मठ सारथी प्रा.सदाविजय आर्य जी अमर हैं
उनके सपनों को साकार करने का दायित्व हम सब पर है
मानवीयता आंदोलन के कर्मठ सारथी प्राचार्य सदाविजय आर्य ‘आंतर भारती’ के पर्याय थे । दि.17 सितंबर, 2022 को उनके आकस्मिक निधन से आंतर भारती न्यास व आंतर भारती पत्रिका ने एक कर्मठ व समर्पित सारथी को खो दिया । उनके निधन की बात कोई विश्वास नहीं कर पाएंगे । वे इतने सक्रिय थे कि लगातार असंख्य कार्यकर्ताओं को प्रेरणा देते रहे हैं । कर्मठ पत्रकार मा. यदुनाथजी दत्तात्रेय थत्ते से दीक्षित कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने पाँच दशक पूर्व आंतर भारती न्यास के संगठन का दायित्व उन्होंने संभाला । उन दिनों आंतर भारती न्यास के सचिव और आंतर भारती पत्रिका के संपादक मा. थत्ते जी थे । सदाविजय जी ने पाँच दशकों से आंतर भारती पत्रिका का सफल संचालन, प्रकाशन, संपादन किया है । 80 साल के वयोवृद्ध 18 साल के युवक की भाँति अत्यंत सक्रियता के साथ सामाजिक कार्यों में लगे रहे हैं । धार्मिक रूढ़ियों, अंध श्रद्धा के विरोध करते रहे हैं । मानव हित को समर्पित सदाविजय के पार्थिव देह उनकी इच्छानुसार दान किया गया है ।
आंतर भारती के स्वप्नद्रष्टा साने गुरुजी के सपनों को साकार करने की दिशा में प्राचार्य सदाविजय आर्य पूर्णतः प्रतिबद्ध रहे हैं । साने गुरूजी इनसानियत के पुजारी थे । मानवता के सच्चे दार्शनिक थे । भारत की एकात्मता के स्वप्नद्रष्टा साने गुरुजी द्वारा संकल्पित ‘आंतर भारती’ इनसानों के अंतःकरण को विकसित कर दिलों-दिमागों में सद्भाव फैलाने का एक मानवीयतापूर्ण अभियान है । गुरुजी के इन सपनों को साकार करने, सच्चाई में प्रवृत्त करने के लिए संकल्पबद्ध कई कार्यकर्त्ता महाराष्ट्र की धरती पर सर्वत्र फैले हुए हैं । साने गुरुजी की संकल्पनाओं को साकार बनानेवाले आंदोलन के रूप में ‘आंतर भारती’ को अपनी ऊर्जा से विगत छः दशकों में सदाविजय जी सींचित करते रहे हैं । समर्पित शिक्षक, सफल प्राचार्य, अनुशासनबद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता सेवापरायण संगठक, उद्यशील नेता जैसी जितनी भी आत्मीय संज्ञाएँ उन्हें दें, उनमें कोई भी अतिशक्ति नहीं है ।
‘जोड़ो भारत’ के सद्संकल्प के साथ सक्रिय आंतर भारती के सचिव के रूप में, अध्यक्ष के रूप आजीवन सेवाएँ देनेवाले सदावजिय जी हैदराबाद को भारत में विलीन करने के आंदोलन में शहीद योद्धा भाई बंशीलाल के सुपुत्र थे । आंदोलन की सफलता के दिनों में उनकी माता-पिता (विद्यावती और बंशीलाल) ने तय किया कि पुत्र पैदा हो तो विजय और पुत्री पैदा होने से विजया नाम दें, तदनुसार उन्हें विजय कुमार का नाम दिया गया था । आगे सदाविजय कहलाए । अन्याय के विरुद्ध लड़ने, सामाजिक-न्याय दिलाने, इनसान को इनसान से जोड़ने, भाईचारा, बाल-संस्कार, मानवी विवाहों, सामाजिक सेवा के क्षेत्रों में निश्चय ही वे सदाविजय रहे हैं । लगातार सक्रिय सदाविजय ने अपनी संकल्पनाओं के अनुरूप असंख्य सफलताएँ हासिल की हैं । वर्तमान दौर की कई विडंबनात्मक स्थितियों के प्रति उनकी संवेदना भी रही है । मा.थत्ते, बाबा आम्टे, एस.एन. सुब्बाराव के रास्ते पर चलते हुए हर पल आंतर भारती के उद्देश्यों और लक्ष्यों के लिए वे समर्पित रहे हैं । उनकी सहधर्मिणी मा. मधुश्री आर्य जी उनके समूचे सेवा कार्यों उनके कदम में कदम बढ़ते हुए उनकी सफलता बढ़ानेवाली आदर्श मातृमूर्ति हैं । आंतर भारती पत्रिका के संपादक के रूप में मेरे जुड़े रहने के बावजूद सदाविजय जी और उनकी सहधर्मिणी मधुश्री जी पत्रिका के प्रबंधन तथा बौद्धिक आयामों को विकसित करने में सक्रिय योगदान देने के भार को सदा ढोते रहे हैं ।
‘युग मानस’ की संस्थापना और संपादक के रूप में 1994 से मेरी सक्रियता के दौर में ही अनायास ही सदाविजय जी का परिचय का सौभाग्य मुझे मिला था । आदान-प्रदान में मेरे पास आंतर भारती पत्रिका नियमित पहुँचती थी । भारत सरकार की सेवा में कोयंबत्तूर में अधिकारी के रूप में मेरी सेवा के दौरान लगभग 2008 में ही उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं आंतर भारती के लिए नियमित स्तंभ लेखन करूँ और पत्रिका के संपादन का दायित्व अपने हाथों में लूँ । 2010 में पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय में अध्यापकीय सेवा में शामिल होने पर उन्होंने अपने आत्मीय आग्रह को दुहराया और मैंने बिना किसी शर्त के उन्हें स्वीकृति दी । 2011 में कार्यकारी संपादक के रूप में कुछ वर्ष बाद प्रधान संपादक के रूप में मुझे उन्होंने दायित्व सौंपा, जिसे सदा निष्ठापूर्वक मैं निभा रहा हूँ । 2014 के दौरान सदाविजय जी ने मुझसे आग्रह किया था कि मैं आंतर भारती न्यास के सचिव का पद संभालूँ । मैंने उस समय पद को स्वीकारने से आत्मीयतापूर्वक मना करते हुए उन्हें आश्वस्थ किया था कि आप इन पदों को संभालते रहिए और किसी प्रकार के सेवा कार्य के लिए मुझे निर्देशित करते रहिए, मैं सहर्ष करता रहूँगा । इंदौर अधिवेशन के दौरान भी उन्होंने मुझसे आत्मीय आग्रह किया था कि मैं सचिव पद को संभालूँ । मैंने तब भी वही बात कही थी । उन्होंने जिस रूप से 1972 में मा. थत्ते जी से दायित्व ग्रहणकर पाँच दशकों तक बिना किसी विराम के सदा दायित्व निष्ठा पूर्वक निभाते और विजयी होते रहे, सदाविजय के सार्थक नामदेय साबित हुए । सदाविजय जी के सेवा-कार्यों का ब्यौरा प्रस्तुत करने के लिए संस्मरणात्मक, श्रद्धांजलिपूर्वक प्रस्तुत इन पंक्तियों में संभव नहीं है । सामाजिक कार्यों में संभावित सभी आयामों पर उनकी सक्रियता रही है । जोड़ो भारत के उद्देश्य की दृष्टि से हृदय से हृदय को जोड़ने वाले मानवीय आंदलोन के वे कर्मठ सारथी रहे हैं । अंतिम क्षण तक उनकी सक्रियता आंतर भारती के तमाम कार्यकर्ताओं तथा उनके हम तमाम सहयोगियों के लिए प्रेरक संदेश है । उनकी हर बात, हर व्यवहार में हमें सदा मार्गदर्शन मिलता रहेगा । समूचे भारत में कोने-कोने तक आंतर भारती की गतिविधियों को फैलाने, समर्पित युवा कार्यकर्ताओं को तैयार करने के उनके संकल्प को आगे ले जाने का दायित्व सहित आंतर भारती पत्रिका को सदा बौद्धिक सेवा देते रहने का दृढ़ संकल्प लेते हुए सदाविजय जी की स्वर्गस्त आत्मा के प्रति असीम श्रद्धापूर्वक दुःखद मन से अश्रुपूर्ण नयनों से श्रद्धांजलि सहित...
- डॉ. सी. जय शंकर बाबु
न्यासी, आंतर भारती न्यास
प्रधान संपादक, आंतर भारती
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