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Thursday, March 8, 2012

रंगों का पर्व होली आई है गर्मी साथ लेकर..

होली र्मी के सा होली


गर्मजोश के साथ मनाएँ होली
रंग-बिरंगे छातों की छाया में..
संपादक, युग मानस


कविता
सात रंगों में, सात सुरों सा

- विभावसु तिवारी


सात रंगों में, सात सुरों सा


रंग लिए, आई है होली।

शुभ कीरत का, ताज पाग-सा,

संग लिए, आई है होली।

राग रंग की, अनंत शुभकामनाओं का,

शंखनाद लिए, आई है होली।

फागुनी पिचकारी में, रंग बरसाती,

प्यार की गंध लिए, आई है होली।


हृदय की अनंत गहराईयों से होली की अनंत शुभकामनाएं............

Wednesday, February 29, 2012

युग मानस के संपादक को मातृ-वियोग

न मातु: दैवतं परम

स्वर्गीय मातृश्री सी. नारायणम्मा

युग मानस के संपादक डॉ. सी. जय शंकर बाबु की माताश्री सी. नारायणम्मा (76 वर्ष) का निधन दि.28 फरवरी, 2012 की सुबह 8.40 को (उनके निवास गुंतकल, आंध्रप्रदेश में) हो गया ।  पिछले एक महीने से वे अस्वथ थी ।  युग मानस पत्रिका के मुद्रण व प्रकाशन में संपादक की व्यस्तता और जरूरतों की पूर्ति में उन्हें माताजी का मदद मिलती रही है ।  आत्मीयतापूर्ण ममतामय गुणों से परिपूर्ण माताजी के निधन से उनका पूरा परिवार शोक संतप्त है ।

उनके अंतिम संस्कार दि.29 फरवरी, 2012 पूर्वाह्न 11 बजे गुंतकल में पूरे हो गए हैं ।

स्वर्गस्थ आत्मा को अपार शांति मिले, इन्हीं कामनाओं के साथ...

शोक सभा का आयोजन दि.10 मार्च, 2012 को उनके निवास में होगा ।

Friday, October 28, 2011

साहित्यपुर का संत-- श्रीलाल शुक्ल (श्रद्धांजलि)

साहित्यपुर का संत-- श्रीलाल शुक्ल
- डॉ. प्रेम जनमेजय
अभी- अभी दुखद समाचार मिला कि हमारे समय के श्रेष्ठ रचनाकार एवं मानवीय गुणों से संपन्न श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे। बहुत दिनों से अस्वस्थ थे परंतु निरंतर यह भी विश्वास था कि वे जल्दी स्वस्थ होंगे। परंतु हर विश्वास रक्षा के योग्य कहां होता है। यह मेरे लिए एक व्यक्तिगत क्षति है। उनके जाने से एक ऐसा अभाव पैदा हुआ है जिसे भरा नहीं जा सकता है। परसाई की तरह उन्होंने भी हिंदी व्यंग्य साहित्य को ,अपनी रचनात्मकता के द्वारा, जो सार्थक दिशा दी है वह बहुमूल्य है।पिछले दिनों उनसे आखिरी बात तब हुई थी जिस दिन उन्हें ज्ञानपीठ द्वारा सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई थी।

21 सितम्बर को सुबह, एक मनचाहा, सुखद एवं रोमांचित समाचार, पहले सुबह छह बजे आकाशवाणी ने समाचारों द्वारा और फिर सुबह की अखबार ने दिया- श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार। ‘नई दुनिया’ ने शीर्षक दिया, ‘उम्र के इस पड़ाव में खास रोमांचित नहीं करता पुरस्कार- श्रीलाल।’ पढ़ते ही मन ने पहली प्रतिक्रिया दी कि श्रीलाल जी पुरस्कार आपको तो खास रोमांचित नहीं करता पर मेरे जैसे, आपके अनेक पाठकों को, बहुत रोमांचित करता हैं, विशेषकर व्यंग्य के उस विशाल पाठक वर्ग को, जिसे लगता है कि यह पुरस्कार बड़े स्तर पर व्यंग्य की स्वीकृति की भी घोषणा है। इस समाचार को पढ़कर मेरा मन तत्काल श्रीलाल जी को फोन करने का हुआ, पर यह सोचकर कि इन दिनों उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, कुछ देर बाद करूं तो अच्छा रहेगा, रुक गया। पर अधिक नहीं रुक पाया। मेरा मन अनत सुख नहीं पा रहा था और बार-बार इस जहाज पर आ बैठता था कि श्रीलाल जी से बात की जाए। मन चाहे वद्ध हो अथवा युवा, उसकी बात माननी ही पड़ती है। सुबह के सवा आठ बजे के लगभग श्रीलाल जी की बहू, साधना शुक्ल को फोन लगाया। साधना जी का स्वर बता रहा था कि इस समाचार से वे बहुत प्रसन्न हैं। मैंने उन्हें बधाई दी और कहा- ‘आज सुबह बहुत ही अच्छा समाचार मिला, आपको बहुत-बहुत बधई।’ साध्ना जी ने कहा- आपको भी।’ मैंने कहा- श्रीलाल जी ने ‘नई दुनिया’ के संवाददाता से कहा है कि उम्र के इस पड़ाव में यह पुरस्कार कोई खास एनर्जी या रोमांच नहीं देता। साध्ना जी, उन्हें न करता होगा पर यह पुरस्कार उनके विशाल पाठक वर्ग को एनर्जी देता है, रोमांचित करता है।’ साध्ना शुक्ल- बिलकुल, प्रेम जी। बहुत ही अच्छा लग रहा है।’ मैं- श्रीलाल जी को मेरी ओर से बधाई दीजिएगा।’ साधना शुक्ल ने पूछा- पापा से बात करेंगे।’ मैं- उनका स्वास्थ्य. . .कर पाएंगे क्या वो बात. . .।’ साधना शुक्ल- मैं उन्हें देती हूं।’ कुछ देर बाद श्रीलाल जी का स्वर सुनाई दिया। मैंने कहा- सर, प्रणाम, आपको इस सम्मान पर बहुत-बहुत बधई।’ श्रीलाल जी- धन्यवाद, प्रेम जी।’ मैंने दोहराया- सर, आपने कहा है कि आपको उम्र के इस पड़ाव में यह पुरस्कार कोई खास एनर्जी या रोमांच नहीं देता, पर यह पुरस्कार मुझ समेत आपके विशाल पाठक वर्ग तथा हिंदी व्यंग्य, को एनर्जी देता है, रोमांचित करता है।’ श्रीलाल जी- ऐसा नहीं है प्रेम जी, ऐसे पुरस्कारों से संतोष अवश्य होता है। इस उम्र में अक्सर साहित्यकारों को उपेक्षित कर दिया जाता है। यह पुरस्कार संतोष देता है कि मैं उपेक्षित नहीं हूं।’

जानता था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है, इसलिए कहा- अच्छा सर अब आप आराम करें।’ श्रीलाल जी- प्रेम जी, आपने मुझ पर अच्छी पुस्तक संपादित की है। इस पुस्तक ने मुझे रीबिल्ड ;त्मइनपसकद्ध किया है। इसकी एक प्रति और भिजवा सकेंगे?’;;श्रीलाल जी ‘व्यंग्य यात्रा’ के, उन पर केंद्रित अंक के संदर्भ में अपनी बात कह रहे थे। जिसे नेशनल पब्लिशिंग हाउस ने- ‘श्रीलाल शुक्ल: विचार विश्लेषण एवं जीवन’ के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित किया है।द्ध मैं- क्यों नहीं सर, मैं प्रकाशक से कहकर भिजवाता हूं। प्रणाम।’ मैंने बात समाप्त करते हुए कहा। मन चाह रहा था कि उनसे अधिक से अधिक बात हो पर साथ ही उनके स्वास्थ्य संबंधी चेतावनी भी, मन निरंतर दे रहा था।

श्रीलाल जी कि साहित्य के प्रति गहरी समझ और उनके अध्ययनशील व्यक्तित्व से मैंने बहुत कुछ सीखा है। वे बहुत सजग हैं और ‘हम्बग’ से चिढ़ के कारण वे लाग लपेट में विश्वास नहीं करते हैं। वे बातचीत में बहुत जल्दी अपनी आत्मीयता को सक्रिय कर देते हैं। अपने लेखकीय व्यक्तित्व की एकरूपता को वे तोड़ते रहे हैं। ऐसे में जब अधिकांश साहित्यकार स्वयं को एक फ्रेम में बंधे होता देख प्रसन्न होते हैं वे अपनी अगली कृति में अपने पिछले फ्रेम को तोड़ते दिखाई देते हैं। एक ही रचना से अति प्रसिद्धि प्राप्त करने के पश्चात वैसी ही कृति को दोहराकर उसे भुनाने तक का प्रयास श्रीलाल जी ने नहीं किया है। उनके साहित्यकार व्यक्तित्व के अनेक रंग हैं। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रश्नचिह्न लगाते हैं। उनका लेखन एक चुनौती प्रस्तुत करता है। उन्होंने विषय एवं शिल्प के ध्रातल पर ऐसी अनेक चुनौतियां उपस्थित की हैं जो सकारात्मक सृजनशील प्रतियोगिता का मार्ग प्रशस्त करती हैं । ‘राग दरबारी’ एक क्लासिक है तथा कोई भी क्लासिक दोहराया नहीं जा सकता। हां ‘राग दरबारी’ के बाद व्यंग्य उपन्यास लिखे गए पर वे चुनौती प्रस्तुत नहीं कर पाए। आप श्रीलाल जी पर कुछ भी सतही कहकर किनारा नहीं कह सकते हैं। वे विनम्र हैं पर ऐसी संतई विनम्रता नहीं कि आप इसे उनकी कमजोरी मान लें।

श्रीलाल जी से अनेक बार मिला हूं। उनके साथ नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए हिदी हास्य-व्यंग्य संकलन तैयार करते हुए, ‘व्यंग्य यात्रा’ के उनपर कें्िरदत अंक को तैयार करते हुए। उनपर कें्िरदत अंक तैयार करते हुए मेरा बहुत मन था कि उनसे एक बेतकल्लुफ बातचीत की जाए। इस बीच श्रीलाल जी की बीमारी की सूचनाओं एवं सुविधाजनक समय की तलाश के कारण समय खिसकने लगा। दिसंबर, 2008 के प्रथम सप्ताह की एक तिथि तय कर ली गई और लखनउफ में गोपाल चतुर्वेदी से अनुरोध् किया गया कि वे इसका सुभीता जमाएं। पर उनसे 11 दिसंबर की एक सुबह तय हुई। मैं दोपहर का भोजन कर सभी तरह से लैस हो, श्रीलाल जी से मिलने की तैयारी कर रहा था कि गोपाल चतुर्वेदी का फोन आया- प्रेम भाई, अभी श्रीलाल जी की बहु का पफोन आया है कि आज सुबह कुछ साहित्यिक आ गए थे और मेरे बार-बार मना करने के बावजूद उन्होंने बहुत समय ले लिया। श्रीलाल जी बुरी तरह थक गए हैं और आज शाम मिलना नहीं हो पाएगा।’ ऐसी घोर निराशा के क्षण मैंने बहुत जिए हैं जब आपको लगता है कि सपफलता हाथ इस अप्रत्याशित से मैं सन्न रह गया। मैं तो दिल्ली से समय लेकर आया था और जो समय लेकर नहीं आए थे वे सफल हुए। शायद जीवन में सफलता की यही कुंजी है। मैं नहीं चाहता था कि अस्वस्थ श्रीलाल जी को परेशान करूं पर मेरे अंदर का संपादक बार-बार गोपाल चतुर्वेदी से प्रार्थना कर रहा था कि वे कुछ जुगाड़ बिठाएं जिससे मेरी मनोकामना पूर्ण हो। वे भी मुझसे कम परेशान नहीं थे। अगले दिन 11 बजे से माध्यम की गोष्ठी थी जिसकी अध्यक्षता गोपाल चतुर्वेदी को करनी थी और मुझे विषय प्रवर्तन करना था। अगले दिन का ही समय मिला साढे दस बजे का। सोचा आधे घंटे में बातचीत करके 11 बजे लौटेंगे- कवि लोगों ने रतजगा किया है, साढ़े ग्यारह से पहले गोष्ठी क्या आरंभ होगी। आध घंटा मुझे उंट के मुंह में जीरे से भी कम लग रहा था पर बकरे की मां को तो खैर ही मनाना पड़ता है। न होने से कुछ होना अच्छा- थोड़ी बहुत बात कर लेंगे और कुछ चित्र ले लूंगा। मैंने अपने बार-बार के आग्रह से गोपाल जी को विवश करदिया कि हम वहां आध घंटा पहले पहुंचें और श्रीलाल जी के तैयार होने का उनके घर ही इंतजार करें। मैं इसके लिए भी तैयार था कि समय से पहले पहुंचने की वरिष्ठ लेखक की डांट मैं खा लूंगा। पर श्रीलाल जी सही मायनों में वरिष्ठ हैं। हम जब पहुंचे, उन्होंने नाश्ता भी नहीं किया था। पर उन्होंने जिस गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया उसे देख सरदी की गुनगुनी धूप भी शरमा गई होगी। हमारे समय से पूर्व पहुंचने का कहीं रोष नहीं। वो तो हमारे लिए नाश्ते का भी त्याग करने को तैयार थे, पर हमारे आग्रह और अपनी बहू साधना के अधिकार के सामने उनकी एक न चली। मैं जिस तनाव में जी रहा था उससे मैं एकदम मुक्त हो गया। फोटो सेशन के समय, उनकी चारपाई पर, सम्मान के कारण उनसे कुछ दूर बैठकर जब मैं पफोटो खिंचवाने लगा तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे अपने नजदीक करते हुए कहा- ‘नजदीक आइए फोटो अच्छा आएगा।’ उस दिन हम दस मिनट का समय लेकर गए थे पर दो घंटे का समय लेकर आए। वे अद्भुत अविस्मरणीय क्षण थे।

ऐसे अनेक क्षण मेरी अमूल्य धरोहर है।
 
युगमानस की भावभीनी श्रद्धांजलि

Thursday, June 9, 2011

अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि






हिंदी प्रेमी रुक्माजी अमर हैं




-डॉ. सी. जय शंकर बाबु







रुक्माजी राव ‘अमर’ दक्षिण भारत के अधिकांश हिंदी प्रेमियों के लिए सुपरिचित हैं । ‘रुक्माजी’, ‘अमरजी’, ‘रावजी’, ‘राव साहब’…. कितने ही नामों से उन्हें संबोधित करते हैं उनके हितैषी । दि.9 जून, 2011 की शाम हैदराबाद में रुक्माजी के आकस्मिक निधन की खबर से उनके तमाम हितैषी, पाठक, साहित्यकार, पत्रकार, मित्र व हिंदी प्रेमी अत्यंत दुखी हैं ।
दि.2.12.1926 को कर्नाटक के बल्लारी में रुक्माजी का जन्म हुआ था । ‘अमर’जी 1946 से मद्रास महानगर में हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहे हैं । ये बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार हैं । रंगमंच के अभिनय से लेकर निर्देशन में इनकी प्रतिभा उल्लेखनीय है । कवि, नाटककार एवं निबंधकार के रूप में रुक्माजी ने हिंदी साहित्य जगत को कई कृतियाँ समर्पित की हैं । इनकी काव्य कृतियों (कविता संकलन) में ‘नया सूरज’, ‘खुली खिड़कियों का सूरज’, ‘धड़कन’, ‘तन्हाई में’, ‘रोशनी में’, ‘केवल तुम्हारे लिए’ (गीत), ‘अपने अपने अलग शिखर’, ‘बहुतेरे’ (तमिल से हिंदी में अनुवाद), ‘अपने अपने सपने’, ‘यादों के सायें’, ‘कगार पर’, ‘मुस्कुराने दो चाँद को’, ‘कितने आकाश’, ‘प्यार का आलम’ (ग़ज़ल) आदि शामिल हैं । ‘चिंतन के क्षण’ एवं ‘चिंतन के पल’ इनके निबंध संग्रह हैं । इनके अलावा ‘आईने के सामने’ (व्यंग्य), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘अनुभूतियों के दायरे’ (समीक्षा), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘बादलों की ओट में’ (एकांकी संग्रह), ‘पर्वतों की परतें ’ (साक्षात्कार) आदि इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं । हिंदी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में ये काफ़ी सक्रिय हैं । आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से भी इनकी रचनाएँ प्रसारित हुई हैं । इनके साहित्य पर कुछ शोध कार्य भी संपन्न हुए हैं । इनके प्रदेयों पर इन्हें कई उल्लेखनीय सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, आचार्य आनंद ऋषि साहित्य निधि आदि द्वारा प्रदत्त पुरस्कार उल्लेखनीय हैं ।
रुक्माजी से मेरा परिचय लगभग दो दशक पुराना है । हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘युग मानस’ का संपादन व प्रकाशन गुंतकल (आंध्र प्रदेश) से आरंभ करने से पूर्व ही मैंने उनकी कई रचनाएँ पढ़ी थी । ‘युग मानस’ में समय-समय पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित करने का सौभाग्य मुझे मिला था । ‘युग मानस’ के अक्तूबर – दिसंबर, 1997 के अंक में उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित किया था । डॉ. राजेंद्र परदेसी ने ‘युग मानस’ के लिए वह साक्षात्कार लिया था ।
रुक्माजी बहुभाषी थे । मराठी उनकी मातृभाषा थी । कन्नड प्रदेश बेल्लारी में जन्म लेने के कारण सहजतः कन्नड और तेलुगु मातृभाषावत बोल लेते थे । तमिल प्रदेश स्थाई निवास बनाने के कारण तमिल और मलयालम भी वे बोल लेते थे । हिंदी की पढ़ाई व तदनंतर हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ जाने के कारण वे हिंदी के विशिष्ट विद्वान व साहित्यकार के रूप में विख्यात हुए । 1946 में गांधीजी जब चेन्नई में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में गए थे, तब उनके भाषणों से प्रेरित होकर रुक्माजी हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ गए । कालांतर में काफ़ी समय तक वे हिंदी प्रचारक संघ, चेन्नई के अध्यक्ष के रूप में चेन्नई महानगर में हिंदी प्रचार-प्रसार में पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे हैं । अध्यापक, कवि, नाटककार, मंच संचालक, बाल रचनाकार के रूप बहुआयामी प्रतिभा के धनी रुक्माजी ने अपने बचपन, पढ़ाई के दिन व जीवन के विभिन्न मोड़ों संबंध साक्षात्कार के दौरान इस प्रकार बताया है – “मेरा जन्म 2 दिसंबर 1926 में कौल बाजार, बल्लारी – कर्नाटक में हुआ । मेरे माता-पिता धर्मपरायण थे । मेरे पिता रईस और कपड़ा व्यापारी थे । वे भावसार क्षत्रिय समाज के कोषाध्यक्ष थे । नाथ पंथियों का हमारे यहाँ आगमन हुआ करता था । नाथपंथियों से बाबा मच्छेंद्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ इत्यादि की कथा-कहानियाँ बड़े चाव से सुना करता था । धार्मिक वातावरण के कारण मेरे हिय मे सेवा-सुश्रुषा व श्रद्धा-भक्ति का भाव उत्पन्न हुआ । प्रारंभ से मेरे मन में नाटक के प्रति रुझान व संगीत के प्रति अभिरुचि रही । प्रख्यात कन्नड़भाषी गुब्बी वीरण्णा एवं तेलुगुभाषी राघवाचारी (बल्लारी राघव के नाम से ख्यात) के पौराणिक तथा ऐतिहासिक नाटकों को देखने जाया करता था । शनै-शनै मेरे मन में अभिनय के प्रति चाह गहराने लगी । बाल कलाकार के रूप में अभिनय करने का अवसर भी उपलब्ध हुआ । आगे चलकर मेरे नाटक के दीवानेपन ने मद्रास जैसे हिंदी विरोधी माहौल में अनेक मित्र पैदा किए । मैं कुंदनलाल सहराल और पंकज मल्लिक के फिल्मी गाने गुनाया करता था यदा-कदा सभा-समारोहों में वंदेमातरण एवं प्रर्थना गीत के लिए आमंत्रित करता था । सन् 1937 में मद्रास राज्य में श्री राजगोपालाचारी (राजाजी) मुख्य मंत्री के प्रयत्न से स्कूलों में हिंदी अनिवार्य रूप से लागू हो गई । एक बार हिंदी प्रतियोगिता में मुझे बाल गंगाधर तिलक की जीवनी पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुई । स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है पंक्ति ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया । आगे चलकर मेरी राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया । 9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी सहित अनेक नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार देश भर में बिजली की तहर फैल गया । मुनिसिपल हाईस्कूल के हम 15 छात्र तिरंगा झंडा और गांधीजी का चित्र लेकर नारे लगाते हुए शहर में घूमने लगे और जब हम लोगों ने टीपूसुल्तान के किल पर झंडा फहराया तो पुलीस ने हमें गिरफ्तार कर कारावास भेज दिया । यह मेरे जीवन का प्रथम मोड़ है । जिसने मुझे राष्ट्र की राजनैतिक गतिविधियों से परिचय कराया । मेरे जीवन का द्वितीय मोड़ और भी रोमांचक रहा । सन् 1946 में मैं राष्ट्रभाषा विशारद का छात्र था । दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा मद्रास के संस्थापक अध्यक्ष बापूजी सभा की रजत जयंती के सिलसिले में सम्मिलित होने हेतु मद्रास पधारे । उस समय स्वयं सेवक के रूप में बापूजी से भेंट हुई । उनके आदेश पर सक्रिय रूप से हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहने का संकल्प लिया । सभा के प्रधान मंत्री मोटूरि सत्य नारायण एवं नगर संगठन श्री के. आर. विश्वनाथजी हिंदी नाटक को हिंदी प्रचार का सशक्त माध्यम मानते थे । उनके सहयोग व प्रोत्साहन से मद्रास महानगर के प्रेक्षागृहों में हिंदी नाटकों में अभिनय, निर्देशन-संगीत निर्देशन का अवसर उपलब्ध हुआ । मोटी तौर पर तब तक मैं गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गया था । मेरी पत्नी बंग्ला भाषी, मेरे बड़े जामाता तमिल भाषी, छोटा दामाद अनुसूचित जाति के तेलुगु भाषी व मेरी पुत्र वधू ईसाई है । परिवार में आपस में हम लोग हिंदी में ही वार्ताला करते हैं । मद्रास सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों को भेंट दी गई ज़मीन, पेंशन तथा केंद्र सरकार के पेंशन तथा मुफ़्त रेल यात्रा की सुविधा प्राप्त करने का प्रयास मैंने नहीं किया । मेरी दृष्टि में महान देश भक्त एवं बलिदानियों के त्याग के समक्ष यह तुच्छ त्याग महा सिंधु में बिंदु के समान है । इस का कुछ श्रेय मेरी श्रीमती को भी है ।”
रक्माजी 22 वर्ष की आयु से लगातार लिखते रहें । 85 वर्ष की आयु में निधन से एकाध माह पूर्व भी उनका एक कविता संकलन ‘दुःख में रहता हूँ मैं सुख की तरह’ नाम से प्रकाशित हुआ है । इससे स्पष्ट है, वे अपनी युवा वस्था से हिंदी अध्यपन, प्रचार-प्रसार व लेखन से जुड़े रहे । उनकी पहली रचना (एक गीत) हिंदी में मद्रास सरकार द्वा प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका दक्खिनी हिंदी के मार्च-अप्रैल, 1948 के अंक में प्रकाशित हुआ था । अगे चलकर लगातार वे कविताएं, एकांकी, बाल साहित्य, शोधपरक लेख आदि लिखते रहे । चेन्नई के प्रतिष्ठित मद्रास क्रिस्टियन कालेज में हिंदी पढ़ाते रहे हैं । उनके छात्र कई क्षेत्रों में विख्यात हुए हैं । जिनमें कई नामी चिकित्सक, सिनेमा अभिनेता व राजनेता भी हुए हैं । लगभग 55 वर्ष चेन्नई में हिंदी प्रचार कार्य में वे सक्रिय योगदान देते रहे हैं ।
‘युग मानस’ की ओर से 1999 में जब मैंने गुंतकल (आंध्र प्रदेश) एक सप्ताह का हिंदी रचनाकार शिविर का आयोजन किया था, तब शिविर के निदेशक की जिम्मेदारी मैंने रुक्माजी को सौंप दी थी । उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभायी और शिविर के पश्चात अपने जन्मस्थान बल्लारी गए जहाँ उनके रिश्तेदार भी थे । चालीस साल बाद अपने जन्मस्थान जाने का अवसर शिविर के बहाने मिलाने का बयान उन्होंने उस समय दिया था ।
रुक्माजी चेन्नई में हिंदी प्रचार आंदोलन, लेखन, प्रकाशन व पत्रकारिता स्वयं जुड़े रहे और इस क्षेत्र से संबंधित कई संस्मरणों को निधि उनकी अनूठी संपत्ति थी । उनके देहांत से मद्रास हिंदी आंदोलन के इतिहास के एक महत्वपूर्ण सबूत को हिंदी जगत ने खो दिया है । कर्मठ अध्यपक व साहित्यकार के रूप में सामाजिक सेवा में सदा सक्रिय रुक्माजी का अंतिम दशक का जीवन कई समस्याओं से ग्रस्त था । परिवार के सदस्यों के साथ मन-मुठाव, स्वास्थ बिगड़ना आदि की वजह से वे काफ़ी चिंतित थे । इसके बावजूद दूर-दूर अपने मित्रों के यहाँ आया-जाया करते थे । मेरे व मेरे परिवार के सदस्यों के साथ रुक्माजी का आत्मीय संबंध रहा है । कोयंबत्तूर में मेरे कार्यकाल के दौरान दो बार लगभग दो-तीन सप्ताह मेरे यहाँ बिताए । विगत दो दशकों के दौरान लिखे मुझे लिखे गए उनके आत्मीय पत्र मेरे लिए बड़े दरोहर हैं । रुक्माजी सदा कई संस्मरणों के सच्चे प्रवक्ता के रूप में अपने मित्रों को सुनाया करते थे । उनसे मद्रास महानगर के हिंदी प्रचार, पत्रकारिता व साहित्यिक गतिविधियों के इतिहास के संबंध में कई संस्मरण मुझे सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है ।
अपने छात्रों, मित्रों, पाठकों से सदा आत्मीयता के साथ संपर्क बनाए रखने वाले रुक्माजी के तमाम हितैषी उनके निधन के संबंध में विश्वास करने के तैयार नहीं है । यही उनके प्रति सबकी आत्मीयता है । हिंदी जगत कर्मठ हिंदी सेवी रुक्माजी के लिए ऋणी है । ‘अमर’ के नाम से वे लगभग छः दशक लेखन में सक्रिय रहे हैं । ‘अमर’ के नाम से लिखते रहे हैं और अपने पाठकों व हितैषियों के दिल में वे सदा अमर हैं ।

Tuesday, March 16, 2010

नव वर्ष की शुभकामनाएँ


चैत्र शुक्ल प्रतिपदा एवं उगादि की शुभकामनाएँ

Sunday, March 7, 2010

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएँ


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएँ

Saturday, November 14, 2009

बाल दिवस की शुभकामनाएँ

सभी बच्चों को बाल दिवस की शुभकामनाएँ।

Sunday, October 4, 2009

बाढ़-पीड़ितों को तुरत मदद जरूरी

आंध्र, उत्तर कर्नाटक, दक्षिण पश्चिम महाराष्ट्र एवं गोवा प्रदेश के कई इलाके भयानक जल-प्रलय से पीड़ित हुई हैं । 100 साल में कभी इतनी भीषण बाढ़ इस इलाके में नहीं हुई थी । स्थानीय मीडिया के पूरी क्षेत्रीय चेतना के कारण तथा राष्ट्रीय मीडिया की उदासीनता के कारण देश-विदेश के कई लोग इस उत्पात की जानकारी तुरंत हासिल न कर पाए हैं, इस कारण बाढ़ पीड़ित लाखों लोग जो निराश्रय होकर, खाना, पानी तक के लिए तरस रहे हैं, मदद की राह देखते रह गए हैं, इनकी मदद के लिए मानवीयतापूर्ण तुरत मदद की जरूरत है ।

Sunday, September 13, 2009

हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ

हिंदी दिवस का संकल्प


भारतीय संस्कृति एवं विरासत की रक्षा तथा भारत की सार्थक उन्नति के लिए संकल्पबद्ध भारतीय संविधान की मूलभावना भारतीय भाषाओं की श्रीवृद्धि के पक्ष में है । आइए आज हम संकल्प करें भारतीय भाषाओं के विकास के लिए प्रतिबद्ध होने का, भारतीय भाषाओं का निष्ठापूर्वक प्रयोग, प्रचार एवं प्रसार करने का । हमारे प्रयासों से जनमानस की भाषाएं विकसित हो, भारत की एकता एवं अखंडता बनी रहे ।

हिंदी का अभिवंदन

डा.स.बशीर चेन्नै


वीणा का नाद है
वाणी का वाद है
सब का आकर्षण है
राष्ट्र की शान है

समाज का दर्पण है
साहित्य का सृजन है
ज्ञान की धरा है
सब ने इसे वारा है -ये हिंदी है
विनय की भाषा है
संस्कृति की परिभाषा है
आत्मा का निवेदन है
दिलों की धड़कन है-ये हिंदी है

सब वाखिफ हैं इसकी गरिमा
विश्व में ये भाषा सरताज है
इस का भविष्य है बड़ा उज्ज्वल
करते हैं इस भाषा का शत-शत
अभिवंदन

शत-शत नमन-हिंदी को

मु.सादिक चेन्नै

तन-मन की भाषा है हिंदी
भारत की आशा है हिंदी
भारत का दर्शन है हिंदी
हमसब संप्रेषण हैं हिंदी

सभी भाषाओँ की आकर्षण है हिंदी
भारत का उत्कर्षण है
राष्ट्र चेतना का स्वर है
हिमालय का सर है –हिंदी

शायरों के दिलों की धड़कन
भक्तों के लिए नमन है
कविओं का अमन है
हरा भरा देश का चमन है हिंदी


मेल्बर्न में हिन्दी दिवस

-हरिहर झा

साहित्य-सन्ध्या के तत्वावधान में ५ सितम्बर शनिवार को क्यू-लाइब्रेरी में हिन्दी दिवस मनाया गया । इसके प्रथम चरण का संचालन प्रोफेसर नलिन शारदा ने किया । श्री दिनेश जी श्रीवास्तव ने दीप प्रज्ज्वलित किया । मंच की अध्यक्षता करते हुये अपने भाषण में उन्होने संस्कृति को बनाये रखने के लिये हिन्दी की आवश्यकता पर बल दिया । उन्होने बताया कि आस्ट्रेलिया में हिन्दी को उसका स्थान दिलाने के लिये किन किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ा ।

तत्पश्चात सुभाष शर्मा ने मधुर कंठ से मातृभाषा हिन्दी पर गीत गाया व हिन्दी दिवस के उपलक्ष में कवितायें सुनाई ।मैंने एक हिन्दी-गज़ल सुनाई व ’बिखरा पड़ा है’ - नवगीत का पाठ किया । राजेन्द्र चोपड़ा ने रक्षा-बन्धन के पर्व पर इस युग की मजबूर परिस्थितियों की पृष्ठ-भूमि में भाई-बहन के प्रेम-भाव का ह्दय विदारक चित्र खींचा । प्रोफेसर सुरेश भार्गव ने हास्य और करूण रस का अनोखा संगम कर दिया जब बताया कि क्या हुआ जब एक सिपाही को कविता लिखने का शौख चर्राया ।

दूसरा सत्र – “अपने लोग –अपनी बातें” के संचालन का कार्य-भार मुझे सौपा गया । मैंने फादर कामिल बुल्के के हिन्दी प्रेम, तुलसी-प्रेम व उनके हिन्दी-साहित्य में योगदान के विषय में बताया ।

रतनजी मूलचन्दानी ने कुछ चुटकुलों से हँसाने के पश्चात ’अभिव्यक्ति’ में प्रकाशित मुकेश पोपली की कहानी ’अपील’ की विवेचना की तथा बताया कि किस तरह छोटे छोटे प्रयास किसी गरीब की जिन्दगी बदलने में सहायक हो सकते हैं और छोटे छोटे प्रयास दीन-हिन बनी हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में सहायक हो सकते हैं ।

सुमनजी ने एक जादूगर के माध्यम से आधुनिक युग की स्वार्थी भावनाओं के कटु-यथार्थ पर व्यंग्य किया । अनीताजी ने कहा कि भारत में जो विविधता में एकता दिखाई पड़ती है वह अन्यत्र दुर्लभ है और इस विषय में उन्होने मातृभाषाओं की भूमिका को सराहा । सर्वेश कुमार सोनी की कविता के बाद हरिजी झुल्का ने एक जवाब के साथ सौ सवाल खड़े हो जाने की परिस्थीति का चित्रण किया । राजेश रामनाथन ने “टू द साईलेन्ट ग्रेव” कविता सुनाई जिसके प्रत्युत्तर में मुझे अपनी दो पंक्तिया याद आ गई – “काल ने विकराल सी खींची जो रेखा है । मौत को निकट तक आते हुये देखा है ।“

सुभाष शर्मा के धन्यवाद प्रस्ताव के साथ गुरजिन्दर जी कौर ने देश-प्रेम के गीत से कार्यक्रम का समापन किया ।

अपना हर पल है हिन्दीमय

- आचार्य संजीव सलिल

अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...

Wednesday, September 2, 2009

ओणम की शुभकामनाएँ

सभी पाठकों को ओणम पर्व की हार्दिक मंगलकामनाएँ

मलयालियों का प्रतीक त्यौहार - ओणम

हर वर्ष श्रावण नक्षत्र मास में विश्व के मलयालियों द्वारा
धूम - धाम से मनाया जानेवाला परम - पुनीत त्यौहार है

“ओणम”
जिसे ‘नौका पर्व भी कहा जाता है (*)
जिस में भाग लेने वाले
तन्मय से गाते हैं---“वंचिप्पाटुट”।
ओणम के दिन घरों को फूलो के शिंगार को कहते हैं
---- “पुक्कलम”।
पूरे वर्ष, कड़ी मेहनत से किसान
तरह - तरह के अनाज़ का करता है उत्पादन
खट्टे - मीठे जीवन अनुभवों को समेट
’अवियल’, ‘पुलिइंजी ’, ‘अप्पम’’ से करता
अभिव्यक्त रसास्वादन
बांटता परिजनों से “सद्या” प्रीतिभोज
‘मोहिनी अट्टम’’, ‘तिरूवादिरा ’ सांप्रदायिक नृत्यों से
हर्षौल्लास के साथ गूंज उठती हैं दस दिशायें
सुख -शांति व समृद्वि को, जीवन में
भर देती है नई आशायें।
गरीब किसान कहते है
”काणम् विट्टुम ओणम उण्णणम”
यानी जमीन बेच कर भी
‘ओणम’ मनाना चाहिए
पुराणों की कथानुसार
’वामनवतार ’ के बलि चक्रवर्ती
पाताल से धर्ती पर आकर
मलयालियों को देतें है आर्शीवचन
उस दिन को ‘ओणम ’ कहते है जो केरलियों का प्रतीक बन
प्रकट करता है अपनापन
विराट करता अपनी पहचान
विकास करवाता मान - सम्मान
(*) “भगवान का अपना देश”
केरल का राष्ट्रीय त्यौहार है - ओणम



डी. अर्चना, चेन्नै

Sunday, August 2, 2009

मैत्री दिवस

सभी मित्रों को

मैत्री दिवस की

शुभकामनाएँ

Tuesday, April 14, 2009

तमिल एवं मलयालम नव वर्ष की शुभकामनाएँ

तमिल नव वर्ष चित्रै तिरुनाल एवं
मलयालम नव वर्ष विषु की हार्दिक शुभकामनाएँ



Monday, March 9, 2009

होली एवं ईद-ए-मिलाद की शुभकामनाएँ


समझौता

- श्यामल सुमन

यूँ तो हम हर साल होली मनाते हैं,
रावण के पुतले को पटाखों से सजाकर,
सामूहिक उत्सव में धूमधाम से जलाते हैं।
पटाखों की हर आवाज के साथ,
रावण अट्टाहास करता है,
क्योंकि भारत में कई कलियुगी रावण,
बड़े मजे से राज करता है।।

होकर व्यथित राम ने सोचा,
कुछ न कुछ अब करना होगा।
जल्द से जल्द किसी तरह भी,
राम के खाली पदों को भरना होगा।।

क्योंकि हर रावण के पीछे राम चाहिए,
अंगद और हनुमान चाहिए।

रावण बोला हे राम,
तू व्यर्थ देख रहा है सपना।
इतने बरस बीत गए,
क्या बनबा सका तू मंदिर अपना।।

राम बोला हे दशकंधर,
तेरी संख्या लगातार बढ रही है अंदर अंदर।
मेरे भक्त मेरे ही रथ पे होकर सवार,
कर दिया मुझको बेबस और लाचार।।

हे दशानन,
तेरे विचार लगते अब पावन।
तुम्हीं बताओ कोई राह,
जो पूरा हो जन जन की चाह।।

रावण बोला हे राम,
तुम व्यर्थ ही हो परेशान।
आओ हम तुम मिलकर,
चुनाव पूर्व गठबंधन बनायें।
जीत जाने पर
प्रजा को ठेंगा दिखायें।।


Saturday, February 28, 2009

विंडोज़ और मैं

यदि विंडोज़ नहीं होता...

- डॉ. सी. जय शंकर बाबु

यदि विंडोज़ नहीं होता, मैं इस कदर सक्रिय न होता
यदि विंडोज़ नहीं होता, मैं इस कदर सफल नहीं होता...


यदि विंडोज़ नहीं होता, मैं इस तरह भारतीय भाषाओं में कंप्यूटर इंटरनेट के माध्यम से कुछ कहने में सफल नहीं होता, इसलिए मैं अपनी सफलता इस कहानी को भी विश्व में बहुप्रचलित एक भारतीय भाषा के माध्यम से कहना उचित समझता हूँ ।


जब 12 वर्ष की आयु में सातवीं की पढ़ाई के दौरान कंप्यूटर नाम की चीज़ के बारे में सुनने का मौका मुझे मिला, उसे देखने के लिए मन ललायित हो उठा । मगर मेरे गांव तक उसके पहुँचने में और बारह साल की प्रतीक्षा करनी पड़ी । इससे पहले ही जिला मुख्यालय स्थित औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में कंप्यूटर उपलब्ध होने तथा वहाँ इसमें प्रशिक्षण से संबंद्ध कोर्स चालू होने की बात सुनते ही मैंने अपना आवेदन भर दिया । मगर दुर्भाग्य से मुझे प्रवेश नहीं मिला । मगर मैं उसी संस्थान में मोटर गाडियों की मरम्मत से संबंधित प्रशिक्षण हासिल किया । उन दिनों में मैंने तय किया कि जब तक कंप्यूटर मेरे गांव तक पहुँच जाएगा, मुझे उसके भरपूर उपयोग की योजना बनानी है । जैसे ही गांव में कंप्यूटर पहुँचने की बात मैंने सुनी, उसी दिन उसे देखे बिना नहीं रह पाया । कंप्यूटर को देखते ही उसके अनुप्रयोगों को सीखने पुनः इच्छा जागृत हुई । इस हेतु मैंने अपने कष्ट की कमाई से चार हजार रुपए शुल्क भी प्रशिक्षण संस्थान के मालिक को चुकाया । उन दिनों में सामाजिक सेवा कार्यां में मेरी काफ़ी व्यस्तता बनी रहती थी । शुल्क जमा करने के बाद एक सप्ताह भर ही मैंने कंप्यूटर के विकास संबद्ध इतिहास की जानकारी हासिल की और कंप्यूटर पर डिस्क ऑपरेटिंग सिस्टम का थोड़ा-सा प्रशिक्षण हासिल किया । इसी बीच मुझे एक दक्षिण एशियाई युवा शिविर में शामिल होने हेतु नागालैंड जाना पड़ा । लगभग एक महीने की यात्राओं के बाद जब मैं पुनः अपना गाँव लौटा तब मेरे पास उतना समय नहीं रहा कि मैं अपना कंप्यूटर प्रशिक्षण जारी रख सकूँ । कंप्यूटर केंद्र के मालिक से ही मैंने जानकारी हासिल की कि उस समय विंडोज़ 3.1 नामक संस्करण में विडोज़ सॉफ़्टवेयर का भी प्रशिक्षण शुरू किया गया है । लेकिन मेरे पास समय की कमी से मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ । उन्हीं दिनों में मैं लगातार सोच रहा था कि मानवीय मूल्यों के प्रचार हेतु तथा भारतीय भाषाओं के प्रसार हेतु एक पत्रिका का प्रकाशन किया जाना चाहिए । इस सोच को आखिर जब कार्यान्वित करना मैंने तय किया तब तक विंडोज़ 95 संस्करण मार्केट में उपलब्ध होने की जानकारी मुझे मिली । युग मानस के नाम से हिंदी पत्रिका के प्रकाशन की मैंने योजना बनाई । मेरे गांव में (गुंतकल, आंध्र प्रदेश) न हिंदी के कंपोजिंग की सुविधा थी, न ही ऑफ़सेट मुद्रण की । आखिर मैंने तय किया कि खुद कंप्यूटर पर ही अक्षरांकन (कंपोजिंग) करके हैदराबाद से ऑफ़सेट मुद्रण करवाऊँ । इस हेतु कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र के मालिक से मालिक से मैंने अनुरोध किया कि वह विंडोज़ अद्यतन संस्कर खरीदे, साथ ही एडोब पेजमेकर एवं हिंदी श्री लिपि सॉफ़्टवेयर भी । उन दिनों में उन्हें इन सॉफ़्टवेयरों की ख़रीद हेतु काफ़ी पैसे की लगाने पढ़े थे । मैंने उन्हें आश्वस्त किया था कि मैं अपने द्वारा जमा किया गया चार हजार रुपए का शुल्क वापिस नहीं मांगूगा और साथ ही पत्रिका प्रकाशन का काम शुरू करते ही लगातार उनके कंप्यूटर को काम दूँगा जिससे कि उन्हें आय का एक स्थाई स्रोत बन जाए । आखिर वे मान गए और मेरे लिए आवश्यक तमाम साफ़्टवेयरों की खरीद की । मगर इन पर हिंदी में काम करने के लिए मुझे कोई नहीं मिल पाने से स्वयं मैंने ही वह काम शुरू किया । करके सीखना, क्रिया द्वारा सीखना, ग़लतियों से सीखना आदि प्रक्रियाओं के दौर से गुजरते हुए मैंने विडोज़ प्लैटफार्म आधारित एडोब पेजमेकर पर युग मानस पत्रिका का अक्षरांकन शुरू किया । इस रूप में युग मानस के प्रकाशन के समय विडोज़ 95 से जो मेरा परिचय हुआ, उसका क्रम बना रहा, आगे 98, एक्सपी, विस्टाज़ तक के संस्करणों की ख़ूबियों का लाभ उठाने का सौभाग्य मुझे मिला । युग मानस में मैंने अपने संपादकीयों के माध्यम से इस समस्या की ओर संकेत दिया था कि हिंदी के समक्ष मानक फांट की समस्या होने के कारण उसे पठनीयता एवं परिवर्तनीयता जैसी समस्याओं से गुजरना पड़ रहा है । इसी बीच विंडोज़ ने भारतीय भाषाओं के लिए अनुकूलन की प्रक्रिया भी शुरू कर दी । यह भारतीय भाषाओं के विकास के लिए निश्चय ही एक क्रांतिकारी पहल थी । विंडोज़ अब भारतीय भाषाओं के लिए पूरे समर्थन के साथ उपलब्ध है । जब यह सुविधा नहीं थी, मैंने तय किया था कि प्रौद्योगिकी की पढ़ाई करके खुद ऐसे फांट की खोज करूँ । मगर मेरी जरूरत को विंडोज़ ने पूरी कर दी है । यूनिकोड आधारित फांटों का उपयोग करते हुए तमाम प्रमुख भारतीय भाषाओं को विंडोज में स्थान मिल जाने से मुझे बड़ी खुशी हुई ।

अब मैं अपने कार्य के लिए इन सुविधाओं का भरपूर उपयोग करना ही नहीं इनके आधार पर वेब साइट भारतीय भाषाओं में बनाना, ई-मेल, चाटिंग आदि के लिए भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक इस्तेमाल करना शुरू कर दिया । विंडोज में भारतीय भाषाओं के उपयोग की सुविधा उपलब्ध होने के बावजूद इसकी जानकारी अधिकांश लोगों में नहीं होने के कारण पठनीयता एवं परिवर्तनीयता की समस्यावाले पुराने सॉफ़्टवेयरों का ही प्रचलन को देखते हुए मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ । तब मैंने यह प्रण किया कि मुझे अब इस दिशा में भी प्रचार-प्रसार अवश्य करना है । तब से लेकर आज तक मैं दो सौ से अधिक प्रशिक्षण कार्यक्रम भारत के विभिन्न भागों में आयोजित कर चुका हूँ । भारतीय भाषाओं के विकास के लिए विंडोज का भरपूर उपयोग करने की ओर लोगों को प्रवृत्त करना भी भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार संबंधी मेरी गतिविधियों का अभिन्न अंग बन गया है । अब मेरे मन में विडोज़ के प्रति जो भी कृतज्ञता भाव है, उसकी अभिव्यक्ति मैं विडोज़ के प्रचार-प्रसार के द्वारा करने का मौका मुझे मिल रहा है । विंडोज़ के कारण इंटरनेट में भारतीय भाषाओं के विकास का सपना साकार हो रहा है, इसके लिए विंडोज के समस्त टीम बधाई के पात्र है । विंडोज़ के साथ मेरा आजीवन संबंध बना रहेगा ।

चूँकि भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार के कार्य में विंडोज मेरे लिए सहायक रहा है, अतः मैं अपनी सफलता की यह कहानी भी एक प्रमुख भारतीय भाषा में ही कह रहा हूँ । भविष्य में इसे अन्य भाषाओं में भी अनुवाद करके प्रस्तुत करने की कोशिश मैं अवश्य करूँगा ।

Tuesday, January 20, 2009

ओबमा 44 वीं राष्ट्रपति बनें, चौंतालीस दिशाओं में शांति की कामना के साथ...


आज भी श्वेत अश्वेत की बात.. ?

- डॉ. सी. जय शंकर बाबु

Obama takes oath as.....
आज भी श्वेत अश्वेत की बात..
हर किसी अख़बार में यहीं ख़बर
कि "श्वेत भवन में अश्वेत राष्ट्रपति
शपथग्रहण करेंगे"


श्वेत अश्वेत की चर्चा अब हमें नहीं करनी है
श्वेत भवन में ओबामा के प्रवेश के साथ
हम करें आशा शांति की
विश्व में सर्वत्र स्नेहमय माहौल की...
अतिवाद के विकृत रूप को हमने खूब देखा
साम्राज्यवाद के विकट रूप से भी हम अनभिज्ञ नहीं
शांति की खोज जारी है सर्वत्र


शांति के मसीहे की लंबी प्रतीक्षा है


अमरीका के नए राष्ट्रपति ओबामा ने
शपथग्रहण की शुभ वेला


शांति की कामना की
यही कामना हम सबकी हो
विश्व शांति ओबामा की पहला विकल्प हो
यही विश्व प्रगति का भी सही संकल्प साबित हो ।

हिंदी में रेलवे ई-टिकट


हिंदी का प्रचलन किसी भी रूप में बढ़ाने का श्रेय ई-टिकट धारकों को

हिंदी में रेलवे ई-टिकट विगत कुछ समय से आई.आर.सी.टी.सी. के वेबसाइट में ई-टिकट का मुद्रण की हिंदी में भी करने की सुविधा भी दी गई है । केलव टिकट मूल प्रारूप ही हिंदी में छपेगा, यात्रा संबंधी बाकी जानकारी अंग्रेज़ी में ही । आशा है हिंदी प्रेमी इस सुविधा का लाभ उठाएंगे । गणतंत्र के रूप में भारत की षष्टिपूर्ति वर्ष में राजभाषा के रूप में हिंदी का प्रचलन किसी भी रूप में बढ़ाने का श्रेय ई-टिकट धारकों को भी मिल सकेगा ।

हिंदी में ई-टिकट का एक नमूना यहाँ प्रस्तुत है ।

Wednesday, January 14, 2009

संक्रांति की शुभकामनाएँ

चित्रकार - मास्टर सी. विजयेंद्र बाबु