Thursday, March 22, 2012

और काबा में राम देखिये

और काबा में राम देखिये

- श्यामल सुमन



विश्व बना है ग्राम देखिये

है साजिश, परिणाम देखिये



होती खुद की जहाँ जरूरत

छू कर पैर प्रणाम देखिये



सेवक ही शासक बन बैठा

पिसता रोज अवाम देखिये



दिखते हैं गद्दी पर कोई

किसके हाथ लगाम देखिये



और कमण्डल चोर हाथ में

लिए तपस्वी जाम देखिये



बीते कल के अखबारों सा

रिश्तों का अन्जाम देखिये



वफा, मुहब्बत भी बाजारू

मुस्कानों का दाम देखिये



धीरे धीरे देश के अन्दर

सुलग रहा संग्राम देखिये



चाह सुमन की पुरी में अल्ला

और काबा में राम देखिये



श्यामल सुमन

09955373288

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http://maithilbhooshan.blogspot.com/

कविता - संस्कृत अमृत






 
  
 - सी.  विजयेंद्र बाबु


है एक अमृत हमारा संस्कृत


किसी भी राज्य की भाषा नहीं यह

समस्त  भारत की भाषा है यह

कौटिल्य ने लिखा अर्थशास्त्र


सरल संस्कृत भाषा में

महर्षी वेदव्यास ने लिखा

महाभारत संस्कृत में

महर्षी वाल्मीकी ने लिखा

रामायण संस्कृत में ...

अर्थशास्त्र,  महाभारत,  रामायण ही नहीं

समस्त वेद पुराण  हैं संस्कृत में

इस पूरे ब्रह्मांड की गाथा ही 

लिखा हुआ है संस्कृत में

इसलिए संस्कृत है अमृत

पूरे देश भर में ।







समकालीन मलयालम लेखिकाओं की रचनाओं में पर्यावरण

समकालीन मलयालम लेखिकाओं की रचनाओं में पर्यावरण


- डॉ रंजित.एम्
हमारे वेद, पुराण या अन्य शास्त्र ग्रंथों में कहीं न कहीं यह सन्देश दर्शनीय होगा-

' धरती माता को प्रणाम.
वन्दनीय तरुओं को नमन
सूर्य देवता को नमस्कार
जल देवता को प्रणाम ‘

मानव का अस्तित्व पृथ्वी और प्राकृतिक शक्तियों के बीच के समतुलन पर आधृत है ।  यदि उस संतुलन में हलचल हो जाए तो हमारा अस्तित्व काल-प्रवाह में विलीन हो जाएगा ।  यह समझकर ही हमारे पूर्वज प्रकृति के उपासक बने ।

सुबह सुबह आकाशवाणी से  -

 " वन्दे मातरम वन्दे मातरम

सुजलाम सुफलाम् मलयज शीतलाम

सस्या श्यामलां मातारम वन्दे मातरम "

सुनते वक्त हमारे मन में प्रकृति का रम्य एवं विराट रूप का चित्रण जरूर अंकित हो जाएंगे । दुःख की बात यह है कि वह प्राकृतिक सुषमा हमसे दूर हो रही है ।  अपनी ही भलाई के लिए जीनेवाले समकालीन मानव जिनमें मैं और तुम ही शामिल हैं, प्रकृति का नाश कर रहे हैं, जाने या      अनजाने  । 

प्रकृति की गोद में पले मानव विज्ञान के सहारे पर्यावरणीय संसाधनों के दोहन में लिप्त हैं .सृष्टि के घातक और पोषक तत्वों के बीच का संतुलन इसलिए ही नष्ट हो रहे हैं.  इस असंतुलन का मानव का जीवन पर भी असर पड चुका हैं. इस ज्वलंत प्रश्न की ओर मलयालम साहित्य के महिला रचनाकारों की प्रतिक्रिया क्या है,  इस पर विचार करना समीचीन होगा.

मलयालम के विख्यात कहानीकार पी.वत्सला जी (जो अब केरल साहित्य अकादमी की अध्यक्षा हैं) प्रकृति और मानव के रिश्ते पर बल देनेवाली कहानीकार हैं आपकी "इरियण्णियिले किणरुकल" (इरियण्णि के कुआं ) नामक कहानी में बढ़ते शहरीकरण, अनियंत्रित जल शोषण आदि के कारण हो रहे झंझटों पर प्रकाश डाल रही हैं ।

नगरपालिका से सेवानिवृत कांचना की बेटा है अप्पाजी । अप्पाजी गणित शास्त्र में स्नातक उपाधि हासिल कर चुका है ।  नौकरी ढूँढते-ढूँढते अंत में दूर इरियान्नी गाँव में बनानेवाले टाउनशिप में पहुँच जाता है ।   पगडंडियों और मृत-झरनों की श्मशान पार कर वह 'साईट 'पर पहुँच जाता है ।  टाउनशिप के निर्माताओं द्वारा गाँव वालों को भगाने के लिए झरनों के उद्भव स्थानों पर रोक डालने का दृश्य उन्हें देखने मिलता है ।  तरह-तरह की मशीनों के सहारे गाँव को शहर बना रहे हैं । अप्पाजी भी उन मशीनों में एक हो जाता है ।  हर शाम वह अन्य कारीगरों के साथ नहाने जाता   था । उस वक्त उसे एक लड़की दोस्त के रूप में मिलती है ।  उससे पता चलता है कि पहले झरनों, तालाबों और कुओं से शहद जैसा मीठा जल मिलता था, लेकिन अब पानी नाले से  ही मिल रहा      है ।  कंपनीवालों ने जल स्रोतों का नाश कर दिया है ।  वह लड़की और माँ भी गाँव छोड़ना चाहते हैं, मगर माँ और गाँव के बीच का रिश्ता उतना दृढ़ है इसलिए वह जाने से मना कर रही है ।  अप्पाजी स्तब्ध रह जाता है ।  सालों से बने संस्कृति के नाश का हेतु वह भी है, यह चिंता उसे पागल बनाता है ।

यहाँ लेखिका गाँव और गाँववालों की तन्मयता और तल्लीनता पर प्रकाश डाल रही है ।  शहर अपनी भू विस्तृति बढ़ाते वक्त सामनेवाले गाँवों का नाश हो  रहा है ।   वहां के पर्यावरण में हो रहे बदलाव, ग्रामीणों की पीड़ा आदि विषयों पर कोई ध्यान देता ही नहीं , यही तथ्य लेखिका यहाँ दिखा रही है ।

वी.के. दीपा जी द्वारा लिखित 'ओरु यात्रययप्पु '(एक विदाई ), पर्यावरण से जुड़कर जीने की अभिलाषा रखनेवाली सुधा लक्ष्मी की कहानी है ।   हर वक्त वातानुकूलित घर में जीने और कृत्रिम महक से वह ऊब चुकी है ।  खुली हवा और प्राकृतिक सुषमा उनको लुभाती रहती है ।  मगर उन्हें कुछ करने की अनुमति नहीं थी, अपनी दबाव वह कागज़ में लिखती रहती है ।  यह पढ़नेवाले उसके पति और बेटी, उसमें कामयाब नहीं होते ।   घर से मिले कागज़ का टुकड़ा लेकर रामचंद्र एक मनोवैज्ञानिक के पास जाता है, उसमें लिखा था -"कांच के बीच के इस कृत्रिम वातावरण, ठंडापन और हरियाली से मैं ऊब चुकी हूँ  ।  सूरज की किरणों से मेरे तन को गरमाकर, चांदनी से ठंडा कर मैं जीना चाहती हूँ .यहाँ सब बनाया गया है.मुचे यहाँ से बचाना है." मनोवैज्ञानिक उसे समझाता है कि उसे कोई कमी नहीं है, उसे पर्यावरण के अनुसार जीने की इच्छा मात्र है,  ऐसा करने दो  ।

बाप और बेटी इससे सहमत नहीं थे ।  बाहर की विष लिप्त हवा से बचना ही उसका परम लक्ष्य था ।   घर के पीछे एक सुन्दर तालाब था  ।  सुधा को थोड़ा बहुत तसल्ली वहीँ से मिलती थी  ।  बाप और बेटी वहाँ आउट हाऊस बनाना चाहते हैं और काम शुरू होता है ।  तालाब निकलने के पहले की रात में सुधा को ऐसा लगता है, तालाब उसे पुकार रही है.  वह चुप चाप बाहर निकलकर उसमें तैरने लगी, घंटों तक ......सुधा तालाब को अंतिम विदाई दे रही थी ।   वातानुकूलित कमरा आज सभी का सपना बन चुका है ।  वातानुकूलन से पर्यावरण पर होनेवाले बदलाव की ओर हम नज़र अंदाज़ कर रहे हैं ।  प्रकृति की गर्मी और ठंडापन हम कृत्रिम रूप से बना नहीं पायेंगे ।  ऐसी कोशिशें मानव और पर्यावरण के रिश्तों पर खायी पैदा करेंगी ।  पर्यावरण पर हो रहे दबाव उसी मायने में मानव पर भी होगा, यही लेखिका बता रही है ।

कहानियों में ही नहीं कविताओं में भीं पर्यावरण और मानव के रिश्ते के बारे में सूचनाएं हैं  ।  आज ज़्यादा लोग आसमान पर जी रहे है ।  आसमान पर पृथ्वी का सा हरियाली बनाने की इच्छा से बोनसाई पेड़ अपना जीवन अपने मालिक के सामान सीमित क्षेत्र में ही बिता रहा है ।  अमृता जी की "वेरिल्ला मरम "( बिना जड़ों के पेड़ ) नामक कविता यही बता रही है,

" मेरी फ्लाट की बरामदे में खड़ी है
एक बेजड़ पेड़ 
सूरज से कुछ बोलने
वह गर्दन उठायेगी
पानी पीने जड़ें हिलायेगी मगर,
न आती कोई तितली या पंछी
वह कड़ी है आसमान में
वह न फूलेगी, फल देगी
बस यूं ही रहेगी ..........."

हर रोज़ बोनसाई पेड़ को देखकर ज़िन्दगी शुर करनेवाले मानव पर उनका प्रभाव पढ़ना आम बात है ।  कवयित्री कह रही है कि हम भी रिश्तों की जड़ें काट-काट कर बांसाई हो रहे हैं ।  शहरीकरण के कारण लोग शहर में बचे अंतिम आम के पेड़ को काटने जा रहे हैं ।  सैकड़ों सालों का इतिहास ढोनेवाला आम कल के बाद नामोनिशान खोने वाला है ।  पेड़ काटकर वहां होटल शुरू करने निकले सभ्य समाज से आम का पेड़ बता रहे हैं -

"हे मानव,
कब अंत होगा तृष्णा तेरे
कब मिलेगा तुझे ज्ञान उस सत्ता का
अपने आप को तुम अमर मानते हो
मगर यह मत भूलो, न है कोई अमर "

' शहर के आम का पेड़ ' नामक कविता में विजयलक्ष्मी जी पर्यावरण पर मानव के हस्तक्षेप पर अपनी व्यथा व्यक्त कर रही है।  नए नए मकान और सडकों के लिए पहाड़ों को हम तोड़ रहे हैं ।  पहाड़, यह देख कर भयग्रस्त हो कर बैठ रहे है ।  सुचित्रा वर्मा ' करयुन्ना मालकाल '( रो रहे पड़ा ) नामक कविता में यही बता रही है - 

"पहाड़ रो रहे है जोर जोर से रोये जा रहे है सभी पेड़

रुलाई पूरे पहाड़ में गूँज रही है क्योंकि

किसी स्टोन क्रशर ने

निहारी है लालच से

इन पहाड़ों की देह तोड़ी गई पुरानी चट्टान

उससे सिसक रही है पहाड़ "

पहाड़ की आत्मा को यहाँ खींचने में सुचित्रा जी को सफलता मिली है ।

समकालीन मलयालम के महिला साहित्यकार इस प्रकार प्रकृति और मानव को रिश्ते के प्रति सजग है ।  स्वस्थ पर्यावरण के बिना विकास अधूरा ही रहेगा यह सन्देश को अपनाकर, अपनी रचनाओं के ज़रिये लोगों के दिलों में पहुँचा रही हैं ।  " माता भूमिः पुत्रोहम पृथिव्या " का सन्देश लेखिकाएं दे रही हैं ।  बढ़ते शहरीकरण से हमारी संस्कृति को बचाने की प्रार्थना वे समाज से कर रही हैं ।  उन्हें  पता है इसको आत्मसात करने लोग तैयार नहीं होंगे, क्योंकि,
" हम सब सिखाये हुए तोते हैं
पिंजरा हमारी चोंच में अडा रहता है
और करते हैं पुनःपाठ
एक चिनक आकाश की खुले पेड़ों पर
अपने नीले रंग के साथ
हम विस्मय से देखते हैं
पर हमारी रति आँखों देखती नहीं ।   
उन्हें आदतन बोलना है अन्धकार
अन्धकार के रंग और उंगलियाँ अभ्यस्त गिनती हैं,
उलटती हैं, वही क्रमांक, वाही पाठ"
पर्यावरण की दिल की थडकन सुनने की क्षमता जिनमें हैं, उन्हें पर्यावरण बुला रहा है एक स्वच्छ कल के लिए -

" देखो तुम सब आ भी जाओ

हो सकता है तुम्हारे साथ ही

आ जाए मेरे अच्छे दिन "  ।

*******

सहायक ग्रन्थ

१.गृहलक्ष्मी मासिकी नवम्बर २०११

२. कलाकौमुदी साप्ताहिक " ३. मध्यमं " ४. जनयुग मासिकी अक्टूबर २००९

अध्यक्ष

हिंदी विभाग

एम्.इ.एस.अस्माबी कॉलेज

कोदुन्गल्लुर

Wednesday, March 21, 2012

समाचार4मीडिया की पहल....... मीडिया मंथन

दिल्ली में कल गोष्ठी होगी..
हिंदी व भाषाई मीडिया का बदलता स्वरूप - संभावना और संकट


Samachar4media a venture of exchange4media group is conducting a media discussion MEDIA MANTHAN. Where all the top editors and other media fraternity will discuss about the FUTURE OF HINDI AND REGIONAL MEDIA at Hotel Metropolitan, Bangla Sahib Road, New Delhi,on 22 march from 10AM onward. Exchange4media family welcome you to join this initiative.


सत्र में चर्चा का केंद्रीय विषय - हिंदी व भाषाई मीडिया का बदलता स्वरूप - संभावना और संकट


समय - 10 बजे से 12 तक

सेशन मॉडरेटर- राहुल देव (वरिष्ठ पत्रकार)

वक्ता- श्रवण गर्ग ( समूह संपादक, दैनिक भास्कर), शशि शेखर ( प्रधान संपादक, हिंदुस्तान), अजय उपाध्याय (कार्यकारी संपादक, अमर उजाला) शकील शम्सी (संपादक, इंकलाब) नीरेंद्र नागर (संपादक, डिजिटल, नवभारत टाइम्स डॉट कॉम), अमन नायर ( ब्रांड हेड, नवभारत टाइम्स)

इलेक्ट्रानिक मीडिया सेशन

हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विस्तार- कितनी है संभावना, क्या है संकट

सेशन मॉडरेटर, संजीव श्रीवास्तव

सतीश के सिंह (संपादक जी न्यूज), दीपक चौरसिया ( स्टार न्यूज), विनोद कापड़ी प्रबंध संपादक, इंडिया टीवी, पुण्य प्रसून वाजपेयी, सलाहकार संपादक, जी न्यूज, एन के सिंह, अभिज्ञान प्रकाश ( प्रबंध संपादक एनडीटीवी), एन के सिंह, महासचिव, बीईए, सुधीर चौधरी, संपादक लाइव इंडिया व नीरज सनन, एग्जीक्यूटिव वाइस प्रेसीडेंट, मार्केटिंग डिस्ट्रीब्यूशशन स्टार न्यूज.


संपर्क सूत्र -
Niraj singh

Mob. No.9818848564

Arif Khan

Mob No.-9911612929

Tuesday, March 20, 2012

सूर्यबाला के 'सुबह के इंतज़ार तक' उपन्यास में नारी समस्या

सूर्यबाला के 'सुबह के इंतज़ार तक' उपन्यास में नारी समस्या

- डॉ. सूर्या बोस

समकालीन समाज का एक जिंदा सवाल है- 'आम औरत '. नारी की आज की स्थिति के बारे में व्यापक चर्चाएं हो रही हैं.उसकी स्थिति को बहतर बनाने के लिए कई योजनायें, पद्धतियाँ ,संगठन दिन-ब-दिन बनाते जा रहे हैं.सभी कर्मक्षेत्रों में नारी को निश्चित प्रतिशत आरक्षण मिल रहा हैं .इन सब छूटों के भोक्ता नारी की असली स्थिति क्या हैं ? उपर्युक्त सभी का प्रयोजन क्या प्रत्येक नारी तक पहुँच रहा हैं या नहीं .आज भी गार्हिक दासता से त्रस्त नारियां हैं. आज नारी की शक्ति का भी कोई सीमा नहीं हैं.नारी की इन प्रतिलोम पक्षों को 'सुबह के इंतजार तक' नामक उपन्यास में सूर्यबाला उजागर कर रही हैं.

आज़ादी के साठ वर्षों में क्या हम स्वतंत्र बन गए हैं.बुनियादी मानव अधिकारों से वंचित व्यक्ति स्वतंत्र हैं? खाना - कपड़ा व रहने की व्यवस्था , बीमारी से बचाव् , भय -आतंक , शोषण व असुरक्षा से हमें अभी तक छुटकारा नहीं मिला.शोषण व उत्पीडन से मुक्ति का संघर्ष आज भी मानव की बुनियादी समस्या हैं.व्यक्ति शोषित पर आश्रित रहने पर विवश है तो समाज में उसकी स्थिति क्या होगी इसका जवाब हमारे समाज में आज खुली तौर पर मिल रहा हैं.

मध्यवर्गीय परिवार में दिखाई देने वाले एक गंभीर समस्या है -नकली दिखावा.इसके कारणों को ढूँढ निकालना मुश्किल हैं.अपने सामथ्य॔ को बढ़ा - चढ़ा कर दिखाना समाज में उनका स्थान बनाए रखने में सहायक सिद्ध होता हैं.लेकिन घर के भीतर क्या घट रहा हैं, इसका मनोवैज्ञानिक चिंतन करने पर मालूम होगा , कि मामला कितना गंभीर हैं.घर के अन्दर घुट रही प्राणियों की मानसिकता पर इसका असर अलग-अलग तरीके से पड़ता हैं.मानसिक ग्रंथियों तथा कुंठाओं से पीड़ित ऐसे प्राणियों का निराला ,मर्म भेदी चित्र इस उपन्यास में खींचा गया हैं.नायिका मानु के शब्दों में -" किसी के कुंडा खटखटाने के साथ ही घर के अभाव और बेपर्दी को छिपाने की जी - तोड़ कोशिश ; घर में हम चाहें गुड की हलकी चाय पी रहे हों , पर असमय आये मेहमान के लिए एक छोटी टिन की डिब्बी में सहेजकर रखी चीनी, दो - एक साबुत कप........न जाने यह सब करके हम किस पर अपनी मातबरी का सिक्का बिठाने की कोशिश करते ." हाथी का दांत दिखाने के और जैसी इस कोशिश से घर के बड़ों से ज्यादा बच्चो के मन पर गहरा आघात पड़ता हैं.

मध्य वर्ग की मानसिकता का एक और छोर हैं - अपनी हैसियत के अनुसार काम करने की कोशिश .वे काम को हैसियत के अनुसार तौलते हैं. मध्यवर्ग के लोग इस गलतफह्मी को पालते हैं कि कुछ काम उनके हैसियत से कम की हैं.वे उस तरह के काम करने से अपने आपको भूखा रखना बहतर समझता हैं. नारियों में यह कोशिश ज्यादा दिखाई देती हैं.मानु की माँ नौकरी की तलाश में तो जाती ही हैं, लेकिन वर्ग चेतना और जाती चिंता उसे हमेशा पीछे को खींचती हैं.रसोई बनाने या आयागिरी करने की उसकी मानसिकता कभी नहीं बनी.वह शालीनता से नौकरी दाताओं से कहती हैं- " जी ,मैं प्रतिष्ठित पढ॓ लिखे घर की हूँ.सिलाई ,बुनाई,कढाई, वगैरह से संबंधित कोई काम हो तो बताईये ." कोई भी काम करके घर चलाने की मानसिकता उनमें नहीं रहती,क्योंकि वे पेट भरने से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखना चाहते हैं.इस मध्य वर्गीय मानसिकता का सीधा असर उनकी आर्थिक स्थिति पर पड़ता हैं.कभी कभी वे पाई -पाई के लिए मुहताज होते हैं,फिर भी प्रतिष्ठा खोना नहीं चाहते . प्रतिष्ठा का आत्मसम्मान से कितना संबंध हैं,यह इस अवसर पर चिंतनीय हैं,अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने की मानु की माँ -बाप की भरसक कोशिश के बावजूद मामा -मामी को सच्चाई का पता लग ही जाता हैं तो मानू की माँ अपराधियों की तरह घडी रहती हैं.शहरी दिखावे से भरपूर मामा के घर से मानु की पाँव भारी हो जाती हैं,तो प्रतिष्ठा और आत्मसमान के बीच की खाई साफ़ ज़ाहिर होती हैं.

भारत में आज नारी की सुरक्षा को लेकर ज़ोरदार चर्चाएँ चल रही हैं.नारी सुरक्षा की कई योजनायें सरकार की ओर से बनायी जा रही हैं; जैसे वनिता आयोग .फिर भी नारी हमारे समाज में सुरक्षित नहीं हैं .सड़क ,बस ,रेल गाडी ही नहीं अपने घर में भी वह सुरक्षित नहीं हैं.हाल ही में चलती रेलगाड़ी से गिराकर सौम्या नामक लड़की के इज्ज़त के साथ खिलवाड़ किया था.घर के भीतर भी छल से बच्चियाँ गर्भवती बनाने की खबरें आती हैं,आजकल .भारत बच्ची के पैदा होने के लायक जगह नहीं रह गयी हैं.

बलात्कार के शिकार लड़की की पारिवारिक स्थिति का खुलासा इस उपन्यास में हुआ हैं. मामा के घर में रहते वक्त मानू के साथ यह हादसा होता हैं .मामा - मामी मामले को नरमाई से सुलझाने की कोशिश करते हैं.लेकिन उस खालिस फ़िल्मी खलनायक के आगे मामा की धमकी का कोई असर नहीं पड़ता .ज़हरीली मुस्कराहट के साथ वह उलटे मामा को धमकाता हैं--" आप ढेकेदार के पास जाकर मेरी बदचलनी का ढिंढोरा पीट आईये :मैं युनियन की मदद लेकर आप के नाम का मुर्दाबाद बुलवा देता हूँ ." आजकल हम यही देख रहे हैं कि लड़कियों के इज्ज़त के साथ खिलवाड़ करने के बावजूद मर्द अपने आपको दोषी महसूस नहीं करते .कानून को सख्त करना तथा ऐसे लोगों को कड़ी से कड़ी सजा देने के बगैर समाज से ऐसी बहशी मिजाज़ मिट नहीं जायेगी.समाज के नैतिक स्वत्व को चोट पहुँचानेवाले ऐसे लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं : आज की सामजिक स्थिति.हाल ही में हमने देखा कि सौम्या नामक लड़की को जिसने पैरों तले कुचल दिया था ,उसी को मुकदमे से छुड़ाने के लिए कितने बड़े बड़े हस्तियों ने कोशिश किया था.इन लड़कियों के घरवालों पर क्या गुज़रता हैं,यह जानने की कोशिश कोई नहीं करते.मानू को बेशर्मी से बचाने के लिए दूर ले जाने वाले भाई से वह कहती है -" मेरी जिस स्थिति को स्वीकार करने की दहशत से माँ ने खाट पकड़ ली , पिताजी कमजोरी से जर्जर हो गए,वह सब सह पाने के लिए तुझे मजबूर करना ........"

लड़की की इज्ज़त लुट जाने के बाद उसकी ज़िन्दगी क्या हो जाती हैं ?क्या वह अपनी वर्तमान स्थिति से जीवनी शक्ति पाकर आगे बढ़ सकती है? नहीं!ज़्यादातर लडकियों की जीवन की गति वहीं रुक जाती हैं.अपनी ज़िन्दगी में इस तरह का एक भारी धक्का लग जाने के बावजूद इस उपन्यास की नायिका मनू अपनी समस्त जीवनी शक्ति को लेकर आगे बढती हैं.उसके शब्दों में -" - " इस विद्रोह की अंतिम परिणति होगी मेरी स्वीकार में ....मेरी इस स्थिति ,इस अभिशाप के स्वीकार में ,जो कुछ मैं करूंगी ,जैसे भी मैं जिउंगी ,समाज द्वारा थोपे इस अभिशाप की सच्चाई को जीते हुए - इसे नकारते हुए नहीं ....समाज के कलंक को समाज के बीच जिंदादिली से ढोते हुए ....."

कलुषित ज़िन्दगी के अधिकारिणी नारी का सचाई के साथ आगे बढना कितना कठिन हैं .यह कहते नहीं बनता.यह महसूस मरने की बात हे उसकी गलती न होने पर भी ऐसे मामलों में लड़की ही गलत या बुरी कहलाई जाती हैं.मनू इन सभी समस्याओं का हिम्मत से सामना करती हैं.लेकिन समाज, बलात्कार के शिकार युवती को आम लड़की की तरह नहीं स्वीकारता.समाज के नज़र में वह हास्यास्पद एवं निर्लज्ज हैं.मानू के सच बखारती फिरने से मानू तथा उसको दूर ले जानेवाले भाई बुलू पर पड़ा असर भी समाज के सोच तथा नज़रिए का ही परिचायक हैं.मानू का लोगों से सच्चाई कहना उससे ज्यादा बुलू को महँगी पड़ता हैं.मानू के राय में -" मेरी शिराओं को चीर चीर कर जैसे हजारों समाज भयावहता से अट्टहास करने लगे. मुझे लगा इन पथरीले अट्टहासों में मैं नहीं, बुलू लहुलुहान होता जा रहा हैं."



बच्चे को जन्म देना हर स्त्री की ख्वाहिश है .लेकिन नाजायज बच्चे को जन्म देने के पीछे की मनोवृति के बारे में सोचना उतना ही दुखदाई होता हैं.मानु बलात्कार के फलस्वरूप प्राप्त बच्चे को मृत पाकर अपने आपको मुक्त महसूस करती हैं.लेकिन उसके अन्दर भी ममतामयी माँ की भावनाएं मौजूद हैं.वह सोचती हैं - " 'मुक्ति' शब्द इतना क्रूर क्यों लग रहा हैं ?...काकी को मृत्यु सुख की परिभाषा सुनानेवाली मैं अंदर अपनी ही तड़प की किर्चों से कितनी लहुलुहात हूँ !...मेरे अंगों से ममता और तडप के सोते फूट रहे हैं." हर ममतामयी माँ की तरह मानु की भी बच्चे के लिए तडपता ह्रदय यहाँ दृष्टिगोचर होता हैं.चाहे मन तक ही सीमित क्यों न हो ,माँ और बच्चे के बीच के संबंधों की तीव्रता कभी कम नहीं होती .

उपन्यास के अंत में मानु एक सशक्त पात्र के रूप में सामने आती हैं.समाज की टोकरें खाने के बावजूद ,समाज ने ही उसे सहारा भी दिया था .सच को साथ लेकर चलने की कीमत दुनिया ने मानु को दिया.वह एक सर्वसम्मत हस्ती का रूप धारण कर लेती हैं.बुलु को संबोधित करके लिखा हुआ उसका अंतिम ख़त इसका प्रमाण हैं.वह लिखती हैं -"तेरी यह दीदी बहुत बहादूरी से ज़िन्दगी जी चुकी हैं.उसने सब कुछ स्वीकार लिया.इसी से शायद समाज भी उसे सहज भाव से स्वीकारता चला गया .समाज मुझे स्वीकारे -यही तो मेरे विद्रोह की पीठिका थी,मेरा हठ था,मेरी उपलब्धि थी .........."

समाज के छद्म से आक्रान्त ,समाज से तिरस्कृत नारियों की दर्दनाक ज़िन्दगी का दास्तान हमें हर रोज़ सुनने को मिलता हैं.वे जिन गन्दी नालियों में फंस जाते हैं,वहां से उनका उत्थान होता हैं या नहीं .इस प्रश्न के प्रति समाज उदासीन हैं.नारी अगर आत्मबल प्राप्त करेगी तो भी समाज में उसे किस हद तक स्वीकृति मिलेगी.सूर्यबाला जी ने ज़िन्दगी से लड़ते हुए सफलता प्राप्त मानु का सशक्त चित्रण किया हैं.असली ज़िन्दगी में चपलता या अज्ञानवश समाज के गड्ढों में पड़े निर्दोषी लड़कियों का उद्धार किस हद तक हो रहा है .यह हमारे दिमाग को झकझोरनेवाली समस्या हैं. इसका हल ढूँढन॓ की कोशिश शासकों के साथ -साथ दुसरे संगठन भी कर रहे हैं.फिर भी समाज में ऐसी घटनाएँ दिन -ब - दिन घटती जा रही है .... ।

Dr. Surya Boss

Guest Lecturer in Hindi

M.E.S.Asmabi College



Wednesday, March 14, 2012

कविता - अनुरोध

अनुरोध 










- महेंद्रभटनागर

परिपक्व आम्र हूँ —

तीव्र पवन के झोंकों से
कब गिर जाऊँ!
आतुर है
धरती की कोख
               प्रसविनी,
शायद —
जीवन फिर पाऊँ!

आया तो
और मधुर रस दूंगा,
बरस-बरस दूंगा!

अपने प्रिय सपनों में
रखना मुझे सुरक्षित,
भूली-बिसरी यादों में
चिर-संचित!¤

------------------

DR. MAHENDRA BHATNAGAR

Retd. Professor

110, BalwantNagar, Gandhi Road,GWALIOR — 474 002 [M.P.] INDIAPh. 0751- 4092908

E-Mail : drmahendra02@gmail.com

http://pustakaalay.blogspot.com/2011/04/0.html

Thursday, March 8, 2012

मुक्तिका:



.... बना लेते

संजीव 'सलिल'

*

न नयनों से नयन मिलते न मन-मंदिर बना लेते.

न पग से पग मिलाते हम न दिल शायर बना लेते..



तुम्हारे गेसुओं की हथकड़ी जब से लगायी है.

जगा अरमां तुम्हारे कर को अपना कर बना लेते..



यहाँ भी तुम, वहाँ भी तुम, तुम्हीं में हो गया मैं गुम.

मेरे अरमान को हँस काश तुम जेवर बना लेते..



मनुज को बाँटती जो रीति उसको बदलना होगा.

बनें मैं तुम जो हम दुनिया नयी बेहतर बना लेते..



किसी की देखकर उन्नति जला जाता है जग सारा

न लगती आग गर हम प्यार को निर्झर बना लेते..



न उनसे माँगना है कुछ, न उनसे चाहना है कुछ.

इलाही! भाई छोटे को जो वो देवर बना लेते..



अगन तन में जला लेते, मगन मन में बसा लेते.

अगर एक-दूसरे की ज़िंदगी घेवर बना लेते..



अगर अंजुरी में भर लेते, बरसता आंख का पानी.

'सलिल' संवेदनाओं का, नया सागर बना लेते..

समंदर पार जाकर बसे पर हैं 'सलिल' परदेसी.
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते..

रंगों का पर्व होली आई है गर्मी साथ लेकर..

होली र्मी के सा होली


गर्मजोश के साथ मनाएँ होली
रंग-बिरंगे छातों की छाया में..
संपादक, युग मानस


कविता
सात रंगों में, सात सुरों सा

- विभावसु तिवारी


सात रंगों में, सात सुरों सा


रंग लिए, आई है होली।

शुभ कीरत का, ताज पाग-सा,

संग लिए, आई है होली।

राग रंग की, अनंत शुभकामनाओं का,

शंखनाद लिए, आई है होली।

फागुनी पिचकारी में, रंग बरसाती,

प्यार की गंध लिए, आई है होली।


हृदय की अनंत गहराईयों से होली की अनंत शुभकामनाएं............

Tuesday, March 6, 2012

'साहित्य की चौपाल में

स्वदेश भारती के उपन्यास आरण्यक पर समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न


नवगठित संस्थान 'साहित्य की चौपाल, छत्तीसगढ़ के तत्वावधान में राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी, कोलिकाता के अध्यक्ष डा. स्वदेश भारती के नक्सली समस्या पर केनिद्रत सध प्रकाषित उपन्यास 'आरण्यक पर सिंघर्इ विला, भिलार्इ में 6 मार्च, 2012 को समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न हुर्इ। उल्लेखनीय है कि प्रथम प्रमोद वर्मा काव्य सम्मान सहित अनेकों राष्ट्रीय सम्मानों से विभूशित से चौथे सप्तक के कवि डा0 स्वदेश भारती के अब तक 24 काव्य संकलन सहित 10 उपन्यास प्रकाषित हैं तथा 40 से अधिक ग्रन्थों का उन्होंने सम्पादन भी किया है। वरिश्ठ कवि एवं छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री श्री रवि श्रीवास्तव एवं युवा आलोचक डा. जयप्रकाष साव ने विषेश टिप्पणी दी। 'साहित्य की चौपाल के संयोजक श्री अशोक सिंघर्इ ने आलेख प्रस्तुत किया जबकि शायर मुमताज़ ने गोष्ठी का कुषल संचालन किया व आभार भी व्यक्त किया। ज्ञातव्य है कि डा0 स्वदेश भारती एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती उत्तरा 4 मार्च से 6 मार्च तक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिये प्रवास पर भिलार्इ आये हुये थे।

आलेख में कवि व समालोचक श्री अशोक सिंघर्इ ने कहा कि किसी भी उपन्यास को जीवन का चित्र कुछ इस तरह प्रस्तुत करना चाहिये कि वह यथार्थ की वस्तुनिष्ठ प्रस्तुति करे। स्वदेश भारती जी का आलोच्य उपन्यास 'आरण्यक इस कसौटी पर कुन्दन की तरह खरा उतरता है। यह उपन्यास हमारे समय के, जो निरन्तरता में हमारे साथ-साथ ही बीतता है, संघर्षों, त्रासदियों और सभ्यताओं के साथ व्यवस्थाओं की विफलताओं का एक बहुआयामी चिन्तक दस्तावेज़ है।'आरण्यक का नायक भीमाराव समाज, धर्मों के तथाकथित झण्डाबरदारों के अन्याय, शोषण और दुष्चक्रों के खिलाफ़ कमर कसता है, समझौते की भाषा न समझने वाला भीमा एक-एक कर समाज के सभी प्रभावी पात्रों के मुखौटों में जाता है, पर अंतहीन महाभारत के अभिमन्यु की तरह अपने पीछे कर्इ प्रश्न छोड़ जाता है। आयशा, लाली, आशा जैसी महिला पात्रों के माध्यम से लेखक ने पुरुषवादी समाज के आदिम और बर्बर चेहरे को कर्इ बार बेनक़ाब किया है। इस उपन्यास में विचार आसवित रूप में हैं जिन्हें हज़म करने के लिये उसमें समय का जल श्रमपूर्वक मिलाना होगा। यदि पाठक के पास धैर्य हो और वह परिश्रमी हो तभी वह चिन्तन के इस प्रकाश को मानसिक आँखों से देख सकेगा। इस सिम्फनी का पूर्णत: रसास्वाद करने के लिये पाठक को विश्व साहित्य की अमर रचनाओं और पात्रों से पाठक को सुपरिचित होना होगा। भारती जी का उपन्यास मुझे अपने तर्इ कैडसिलकोप जैसा लगता है जिसे जब-जब घुमा-घुमा कर देखा जाये तो हर बार नये बिम्ब, नये चित्र नये अर्थ और अंतत: नये विचार उपसिथत होते जाते हैं। मनुश्य के आस्था, विष्वास और संघर्श की कहानी है 'आरण्यक। कुल मिलाकर भारती जी 'आरण्यक एक ऐसा औपन्यासिक अरण्य है जो उसी को मानसिक जीवन जीने देगा जो अरण्य में जाने और अरण्य में जी पाने की कला तथा क़ूबत रखते हैं।

लेखकीय उदबोधन में डा.स्वदेश भारती ने कहा कि साहित्य में षिगूफेबाजी नहीं होनी चाहिये। लोकप्रिय लेखन के लिये बहुतेरे तथाकथित बड़े लेखकों ने ऐसा किया और साहित्य, विषेशकर उपन्यास विधा को बहुत नुकसान पहुँचाया है। उन्होंने कहा कि मनुश्य अकेला आता है और अकेला ही चला जाता है और वह वस्तुत: अकेला ही चला जाता है। मनुश्य एकानितक और असहाय है। आम आदमी की व्यथा को यदि हम पाठकों तक नहीं लाते हैं तो अपने साहित्य कर्म से गददारी करते हैं तथा अपनी आस्था के स्वयं हत्यारे बन जाते हैं। मैंने अपनी रचनात्मकता में मनुश्य को अपने हृदय का प्यार दिया है। प्यार संघर्श का ही दूसरा नाम है और इस संघर्श में आत्म बलिदान और आत्म समर्पण होता है। हमें चाहिये कि हम मनुश्य की चेतना और व्यथा से जुड़ें तभी कुछ सार्थक लेखन सम्भव हो पायेगा।

उपन्यास पर अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुये श्री रवि श्रीवास्तव ने कहा कि इस उपन्यास में मनुश्य के संज्ञान का सारा समय प्रतिबिमिबत होता है। इस उपन्यास से यह प्रतिध्वनि निकलती है कि मनुश्य एक डरावना मकान है जो कभी भी सम्पूर्ण नहीं हो पाता। उसके निर्माण में कुछ न कुछ कमियाँ रह ही जाती है और यही न्यूनता हमेषा सुधार और विकास की प्रेरणा स्रोत होती हैं। यह उपन्यास पाठक की परीक्षा लेता है। यदि वह पहले पचास पृश्ठों तक पढ़ने का श्रम और समझने की क्षमता का परिचय दे सके तब ही यह उपन्यास उसे अपने अंतस में प्रवेष करने देता है।

युवा आलोचक डा. जयप्रकाष साव ने विषेश टिप्पणी देते हुये कहा कि साहित्य की अन्य विधायें विशय से बँधी हुर्इ नहीं होती पर उपन्यास के लिये विशय पहली शर्त है। यथार्थ अपने नग्न रूप में उपन्यास में ही आता है और अपने समय की क्रूर सच्चाइयों को अभिव्यक्त करता है। दिक्कत यह है कि अधिकाँषत: लेखक षिल्प व कला के खेल में यथार्थ पर एक चमकदार लेप चढ़ा देते है जिससे यथार्थ की तल्ख़्ागी कम हो जाती है तथा रचना मर्मस्पर्षी नहीं हो पाती। 'आरण्यक इसका अपवाद है और नग्न सच्चाइयों को पूरी तरह से सीधे ही प्रस्तुत करता है। नक्सलवाद की आतंकवादी और पूरी तरह से भटकी हुर्इ मानवीय त्रासदी पर केनिद्रत यह उपन्यास विवरणमूलक गध, यथार्थ की वस्तुनिश्ठ तटस्थता का एक आदर्ष है। इसमें विलक्षण पठनीयता है।

इस अवसर पर वरिश्ठ कवि श्री शरद कोकास एवं श्री नासिर अहमद सिकंदर, कवयित्री श्रीमती शकुन्तला शर्मा, प्रो. सरोज प्रकाष, श्री प्रकाष, श्री एन.एन. पाण्डेय, श्री एस.एस. बिन्द्रा, शायर शेख निजामी, डा. नौषाद सिददीकी, श्री राधेष्याम सिन्दुरिया, श्री रामबरन कोरी 'कशिश, शायरा प्रीतिलता 'सरु, श्री षिवमंगल सिंह सहित बड़ी सँख्या में साहित्यकार व साहित्य प्रेमी उपसिथत थे।

- अशोक सिंघर्इ

संयोजक - साहित्य की चौपाल

भिलाई-दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Saturday, March 3, 2012

पत्रकारिता विवि में जनसंपर्क अधिकारियों की कार्यशाला

चुनौतीपूर्ण कार्य है जनसंपर्कः प्रो. त्रिवेदी

राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. पीयूष त्रिवेदी का कहना है कि जनसंपर्क एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। जिसमें मीडिया के माध्यम से एक सार्थक संवाद होता है। इलेक्ट्रानिक और वेबमीडिया की सक्रियता के दौर में आज भी प्रिंट माध्यम अपना वजूद बनाए हुए हैं। इसलिए एक अच्छे जनसंपर्ककर्ता को हर विधा को साधना आना चाहिए। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में आयोजित हिमाचल प्रदेश सरकार के जनसंपर्क अधिकारियों की एक सप्ताह की कार्यशाला के समापन समारोह में मुख्यअतिथि की आसंदी से संबोधित कर रहे थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विवि के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की। प्रो. त्रिवेदी ने कहा कि छवि निर्माण एक सावधानी पूर्ण कर्म है और न्यू मीडिया ने इसमें संभावनाओं के नए द्वार खोले हैं। इसके सचेत इस्तेमाल से जनसंपर्क अधिकारी जनता, सरकार और प्रभावित पक्षों के बीच एक समन्वय बना सकते हैं और व्याप्त आशंकाओं और भ्रमों का निवारण भी कर सकते हैं। प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि इस समय संस्थाओं और व्यक्तियों की बदलती छवियों का समय है, निरंतर सक्रिय मीडिया ने इस काम को चुनौतीपूर्ण बना दिया है। उन्होंने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस बात के लिए धन्यवाद किया कि उन्होंने अपने जनसंपर्क अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए पत्रकारिता विश्वविद्यालय का चयन किया। इस अवसर प्रशिक्षण में शामिल प्रतिभागी अधिकारियों को प्रमाण पत्र दिए गए। जनसंपर्क अधिकारियों ने इस अवसर पर अपने अनुभव बताए और कहा कि इस कार्यशाला से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला है। संचालन व आभार ज्ञापन प्रो. रामजी त्रिपाठी ने किया। सात दिनों की कार्यशाला में मप्र जनसंपर्क विभाग के उपसचिव लाजपत आहूजा, साइबर सेल के आईजी राजेंद्र मिश्र, इंडिया टुडे के पूर्व कार्यकारी संपादक जगदीश उपासने, मप्र विधानसभा के पूर्व सचिव अशोक चतुर्वेदी, पत्रकार शिवअनुराग पटैरया, रमेश शर्मा, मनोज शर्मा, प्रवीण दुबे, कुंजेश श्रीवास्तव, अनुज खरे ने विविध सत्रों में अपने अनुभव साझा किए।

-संजय द्विवेदी

Friday, March 2, 2012

दक्षिण एशियाई देश करें नए मीडिया का निर्माणः कुठियाला




माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि दक्षिण एशियाई देशों को अपने स्थानीय हितों के मुताबिक अपने मीडिया का विकास करना चाहिए क्योंकि इससे ही उनकी समस्याओं का वास्तविक समाधान मिल सकता है। वे आज यहां विश्वविद्यालय परिसर में दक्षिण एशियाई देशों से आए कुछ मीडिया प्रशिक्षार्थियों से बातचीत कर रहे थे। ये प्रशिक्षार्थी इन दिनों नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नीकल टीचर्स ट्रेनिंग एंड रिसर्च में डिजीटल मीडिया पर एक प्रशिक्षण के सिलसिले में भोपाल आए हुए हैं।

प्रो. कुठियाला ने कहा कि विविधता ही प्रकृति का नैसर्गिक मूल्य है, इसलिए किसी भी ताकतवर देश का मीडिया और उसके मूल्य हमारे लिए उपयोगी हों यह जरूरी नहीं है। पश्चिमी देशों का मीडिया एक अलग तरह की विकृति का शिकार है। हमें उससे बचना होगा। इसके लिए दक्षिण एशियाई देश एक वैकल्पिक मीडिया का विकास करने का काम कर सकते हैं जो पश्चिमी की पत्रकारिता का विकल्प तो बने ही, मानवता की सेवा का माध्यम भी बने। हमारे जीवन मूल्य ही विश्व मानवता के सामने उत्पन्न खतरों के समाधान खोज सकते हैं। प्रो. कुठियाला ने कहा कि हमें अपनी शिक्षा का माध्यम अपनी भाषाओं को ही बनाना होगा तभी हम वास्तविक आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं। अपनी भाषाओं को भुलाकर हम अपनी संस्कृति से भी दूर जा रहे हैं। जबकि दक्षिण एशियाई देशों की सांस्कृतिक भावभूमि बहुत विशिष्ट है इसे पश्चिमी हमलों से बचाने और उसकी महत्ता को बनाने की जरूरत है।

इसके पूर्व प्रशिक्षार्थियों ने विश्वविद्यालय परिसर का भ्रमण किया और जानकारी प्राप्त की। इस मौके पर विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार डा. चंदर सोनाने, न्यू मीडिया विभाग की अध्यक्ष डा. पी. शशिकला, पी.के. निगम मौजूद रहे।

( संजय द्विवेदी)