Monday, May 30, 2011

अपनी भाषा के उपयोग में झिझक कैसी ?

अपनी भाषा के उपयोग में झिझक कैसी

(साभार - दैनिक भास्कर)

(दैनिक भास्कर भिलाई संस्करण में दि.29 मई, 2011 को प्रकाशित)


Saturday, May 28, 2011

इस हार की कोई सुबह नहीं























इस हार की कोई सुबह नहीं

वामपंथ के पतन के बाद आइए अपनी जड़ों में करें विकल्पों की तलाश

-प्रो.बृजकिशोर कुठियाला


ऐसा माना जाता है कि भारत टेक्नॉलाजी के क्षेत्र में विकसित अर्थव्यवस्थाओं से लगभग 20 वर्ष पीछे चलता है। हाल ही में हुए विधानसभा के परिणाम से यह सिद्ध हुआ कि राजनीतिक विचारधारा के विस्तार और विकास में भी हम लगभग इतने ही वर्ष पीछे चल रहे हैं। शेष विश्व में साम्यवाद का सूर्य दो दशक पहले अस्त हो गया और वर्ष 2011 में भारत में साम्यवाद के दुर्ग केरल और पश्चिम बंगाल में भी यह विचारधारा धराशायी हुई। रूस, चेकोस्लोवाकिया और पूर्वी जर्मनी में साम्यवाद के पतन के लिये विश्लेषकों ने मार्क्स और लेनिन की विचारधारा को दोषी पाया। परन्तु भारत में मतदाताओं ने साम्यवाद को नकारा तो अधिकतर टिपण्णीकार वहाँ के संगठन और सरकार की कार्यप्रणाली को दोषी पा रहे हैं। यदि ऐसा होता तो वाममोर्चा को दो राज्यों में इतनी करारी हार का मुँह नहीं देखना पड़ता। पश्चिम बंगाल में तो वाम मोर्चे का अपमानजनक पतन हुआ है। कुल 294 में से केवल 63 साम्यवादी ही जीत कर विधानसभा में आये हैं। केरल में प्रदर्शन पश्चिम बंगाल से बेहतर परन्तु कुल मिलाकर शर्मनाक ही रहा। जहाँ पूर्व में दोनों दलों में थोड़े अन्तर से ही हार होती थी, इस चुनाव में वाम दलों को 140 में से केवल 68 स्थान ही प्राप्त हुए।

विषय संगठन की कमजोरी और सरकार की आम व्यक्ति की अपेक्षाओं में असफल रहना तो है, पर कहीं न कहीं यह प्रश्न भी उठना चाहिए की आखिर साम्यवाद का पतन क्यों? तर्क और व्यवहार के आधार पर साम्यवादी विचारधारा बड़ी आकर्षक लगती है क्योंकि वह सभी की समानता की बात करती है। समाज में एक ही वर्ग हो, ऐसा साम्यवादी विचारधारा का उद्देश्य रहता है। यहाँ तक तो ठीक है परन्तु इस समानता को प्राप्त करने के लिये जो आधार माना जाता है, उसके अनुसार हर व्यक्ति को एक राजनीतिक प्राणी की भूमिका में सोचा जाता है। व्यक्ति अपने अधिकारों को प्राप्त करे और अपने से उच्च श्रेणी वालों को या तो अपने स्तर पर लाये या फिर खुद उनके स्तर तक जाये। मूल स्रोत का तत्त्व है कि समाज का एक वर्ग शेष समाज का शोषण करता है।

हर नागरिक की मूल आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है, ऐसा साम्यवाद मानता हैं और सबको समान रोटी, कपड़ा और मकान मिले ऐसी व्यवस्था करना उद्देश्य है। विश्व में अनेकों उदाहरण ऐसे हैं जहाँ हिंसक क्रांति से साम्यवाद स्थापित हुआ और समानता स्थापित करने का प्रयास हुआ। वर्षों के बाद एक अलग तरह की वर्ग व्यवस्था समाज में बन गई और वर्गहीन समाज केवल सपना ही रह गया। रूस, पूर्व जर्मनी व क्यूबा में ऐसा ही हुआ। चीन में ऐसा ही हो रहा है।

कुछ देशों के साम्यवादियों ने हिंसक क्रांति की संभावना को कठिन या असम्भव मानते हुए प्रजातांत्रिक माध्यम से साम्यवाद की स्थापना का प्रयास किया। भारत में दोनों ही प्रयोग हुए सी.पी.एम. व सी.पी.आई. व सहयोगी दलों ने पश्चिम बंगाल केरल व कुछ-कुछ अन्य प्रान्तों में ऐसे सफल प्रयास किये। साथ ही कट्टर साम्यवादियों के बड़े हिस्से ने हिंसक क्रांति में विश्वास रखा और माओवाद और नक्सलवाद को विस्तार दिया। प्रजातंत्र के माध्यम ने तो साम्यवाद को सिकोड़ दिया। साम्यवाद का हिंसक रूप अपना प्रभाव बढ़ा रहा है, परन्तु क्रांति जैसी सफलता न तो उसको अभी मिली है और न ही मिलने का आसार नज़र आता है।

मूल समस्या कहीं साम्यवाद की अधूरी और कमजोर विचारधारा की है। समाज में एक नागरिक की भूमिका राजनीति के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक भी है। केवल रोटी, कपड़ा और मकान से समाज नहीं बनता है। संबंध, परम्पराएं, संस्कृति और एक दूसरे पर निर्भरता मनुष्य के समाज के अनिवार्य अंग है। जिनको साम्यवाद या तो नकाराता है और या उनकी भूमिका अत्यन्त गौण मानता है इसलिये कुछ समय के बाद साम्यवाद पतन को प्राप्त होता है। अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण प्रारम्भिक वर्ष साम्यवादी विचार के प्रचार-प्रसार में लगाये परन्तु कुछ ही वर्षों में उनको साम्यवाद का अधूरापन और अव्यवहारिकता समझ में आयी। उन्होंने साहस किया और कम्युनिस्ट आन्दोलन से अपने को अलग कर लिया। केरल और बंगाल की जनता को भी अब यह बोध हो गया है कि कम्युनिज्म के माध्यम से उनका विकास होना संभव नहीं है और जब माँ, माटी और मानुसका विकल्प उन्हें मिला तो उन्होंने उसे सहज स्वीकार किया।

साम्यवाद का विकल्प पूंजीवाद माना जाता है और दोनों के बीच में कई रंगों का समाजवाद भी आता है। पूंजीवाद में व्यक्ति को एक उपभोक्ता के रूप में माना जाता है। जिसकी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिये वस्तुओं और सेवाओं का निर्माण होता है। जिसमें पूंजी लगती है और उसका विस्तार होता है। मौलिक आवश्यकताएं पूर्ण होने पर और छद्म और काल्पनिक जरूरतें पैदा की जाती हैं जिससे की नयी-नयी वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़े और पूंजी का चक्र चलता रहे। एक स्थिति ऐसी आती है कि व्यक्ति और समाज समृद्धि के ऐसे पड़ाव पर पहुंच जाते हैं जहाँ से आगे जाने का कोई रास्ता नहीं होता और जो होता है वह सब व्यर्थ लगता है। जहाँ राजनीतिक व्यक्ति होने से समानता प्राप्त करना अव्यावहारिक है वहीं उपभोक्ता व्यक्ति होने से मनुष्य का विकास भ्रमित रहता है और दिशाविहीनता का भाव बढ़ता है। विश्व में कम्युनिज्म लगभग समाप्त हो गया और पूंजीवाद असफल होता हुआ लगता है। आखिर विकल्प क्या है? विकल्प समग्रता में है। मनुष्य एक जीव होने के साथ-साथ एक सांस्कृतिक प्राणी भी है। भौतिक आवश्यकताएं पूर्ण होने पर उसके मन में प्रकृति के विषय में प्रश्न उठते हैं और उनका उत्तर पाना उसके लिये जीवन का उद्देश्य बनता है। उसको भौतिक जगत के साथ-साथ ऐसी भी अनुभूति होती है कि मानों पूरे विश्व में एकरूपता व एकात्मता हो। मनुष्य विभिन्नता को सृष्टि का नियम मानता है और उससे संबंध बना कर आनन्द प्राप्त करता है। समाज में प्रतिस्पर्द्धा के स्थान पर सहयोग और आपसी निर्भरता को वहाँ अधिक सार्थक और व्यावहारिक मानता है।

विविधता होने के बावजूद उसको लगता है कि सभी में कुछ एक समान तत्त्व भी हैं। जब उसको यह अनुभूति होती है कि सृष्टि के हर जीव और जड़ में कहीं न कहीं एक समान तत्त्व की उपस्थिति है तो सब अपनाऔर सभी अपनेका भाव आता है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में इसी प्रकार के दर्शन का बार-बार वर्णन मिलता है। युनान और रोम के प्राचीन ग्रंथों में भी एकरूपता की बात कही गई है। अमरीका के मूल निवासियों जिनको रेड इंडियन के रूप में जाना जाता है, की संस्कृति में भी पक्षियों, पर्वतों, नदियों और बादलों आदि का मनुष्य से संबंध माना गया है। मैक्सिको के एक विश्व प्रसिद्ध लेखक पाएलो कोहेलो ने अपने उपन्यास अलकेमिस्टमें लिखा है कि मनुष्य को रेत, मिट्टी पेड़, पर्वत, जल, वायु, बादल, घोड़े इत्यादि सभी से संवाद करने की क्षमता होनी चाहिए। उसने आगे लिखा है कि जब ऐसा होता है तो समूची प्रकृति षड़यन्त्र करके मनुष्य को सफल बनाती है। इस विचारधारा को राजनीतिक दृष्टि से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नाम दिया गया और दर्शन में इसे एकात्म मानववाद कहा गया। विश्व के वर्तमान परिवेश में जब साम्यवाद प्रायः नष्ट हो गया है और पूंजीवाद अंधी गली में अपने को पाता है, तो एकात्म मानववाद में मनुष्यता को अपने विकास का विकल्प ढूंढना होगा।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

श्यामल सुमन की कविताएँ

सम्वेदना ये कैसी?

सब जानते प्रभु तो है प्रार्थना ये कैसी?

किस्मत की बात सच तो नित साधना ये कैसी?

जितनी भी प्रार्थनाएं इक माँग-पत्र जैसा

यदि फर्ज को निभाते फिर वन्दना ये कैसी?

हम हैं तभी तो तुम हो रौनक तुम्हारे दर पे

चढ़ते हैं क्यों चढ़ावा नित कामना ये कैसी?

होती जहाँ पे पूजा हैं मैकदे भी रौशन

दोनों में इक सही तो अवमानना ये कैसी?

मरते हैं भूखे कितने कोई खा के मर रहा है

सब कुछ तुम्हारे वश में सम्वेदना ये कैसी?

बाजार और प्रभु का दरबार एक जैसा

बस खेल मुनाफे का दुर्भावना ये कैसी?

जहाँ प्रेम हो परस्पर क्यों डर से होती पूजा

संवाद सुमन उनसे सम्भावना ये कैसी?

***

रीति बहुत विपरीत

जीवन में नित सीखते नव-जीवन की बात।

प्रेम कलह के द्वंद में समय कटे दिन रात।।

चूल्हा-चौका संग में और हजारो काम।

इस कारण डरते पति शायद उम्र तमाम।।

झाड़ु, कलछू, बेलना, आलू और कटार।

सहयोगी नित काज में और कभी हथियार।।

जो ज्ञानी व्यवहार में करते बाहर प्रीत।

घर में अभिनय प्रीत के रीति बहुत विपरीत।।

बाहर से आकर पति देख थके घर-काज।

क्या करते, कैसे कहे सुमन आँख में लाज।।


Tuesday, May 24, 2011

कविता - करिश्मा

करिश्‍मा

- डॉ. एस. बशीर, चेन्नै

प्‍यार, दोस्‍ती, समर्पण मानव जीवन के परमार्थ
जिंदगी के प्रयोजन के लिए है
प्‍यार हमें मौत से नहीं लेकिन जीवन को परिपूर्ण बनायेगा
मौत जीवन के लिए दीर्घ विराम
यहॉं आत्‍मा सौंदर्य को अपनाकर
अंधेरों से हमें उजाले की ओर ले जाती ।
जिंदगानिया चल रही है ये रवानिया चल रही है किस करिश्‍मों से
दुनिया चल रही है, गम के मारे लाखों सयाने भटक रहे हैं आवारा बनके
लेकिन कुदरत का करिश्‍मा कोई न जाने
यह सिलसिला सदियों से चल रहा
किसके करिश्‍मों से
ये दुनिया चल रही है
फूल और काटा
बाप और बेटा
चले रहे आशा निराशा की राह पर
अनजाने से है ये सब तमाशा
जीवन-मरण का ये कारवा चल रहा है
ये किसके करिश्‍मों से
यह दुनिया चल रही है
चल रही है ये जीवन की कश्‍ती
मकसद से न देखा किसीन ने यह रवैय्या ।
कैसे यह चक्‍कर चल रहा है
किस करिश्‍मों से यह दुनिया चल रही है
अजब है ये जीवन
गजब है यह दुनिया
न मंजिल है न ठिकाना
न मकसद न फसाना न
फिर किसके लिए यह कारवां चल रहा है
किस करिश्‍मों से यह दुनियां चल रही है

पत्रकार रामबहादुर राय पर केंद्रित होगा मीडिया विमर्श का अगला अंक



भोपाल। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श का आगामी अंक देश के चर्चित पत्रकार श्री रामबहादुर राय पर केंद्रित होगा। हमारे समय की पत्रकारिता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर श्री राय के योगदान, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित यह अंक जुलाई माह में प्रकाशित होगा। एक छात्रनेता और जयप्रकाश आंदोलन के प्रमुख सेनानी के रूप में, बाद में एक पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में श्री राय की अनेक छवियां हैं। हमारे समय में जब मूल्यों और आदर्शों की पत्रकारिता का क्षरण हो रहा है, श्री राय जैसे लोग एक आस जगाते हैं कि सारा कुछ खत्म नहीं हुआ है। इस अंक हेतु लेख, विचार, विश्वलेषण, संस्मरण, फोटोग्राफ एवं आवश्यक पत्र 15 जुलाई,2011 तक भेजे जा सकते हैं। इससे इस अंक को महत्वपूर्ण बनाने में मदद मिलेगी। लेख भेजने के लिए पता है- संजय द्विवेदी, कार्यकारी संपादकः मीडिया विमर्श, 428-रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-462039 या अपनी सामग्री मेल भी कर सकते हैं-
123dwivedi@gmail.com , mediavimarsh@gmail.com

Monday, May 23, 2011

कविता - हिंदी का अभिवंदन

हिंदी का अभिवंदन


-डॉ.एस. बशीर, चेन्नै


वीणा का नाद है

वाणी का वाद है

सब का आकर्षण है

राष्ट्र की शान है


समाज का दर्पण है

साहित्य का सृजन है

ज्ञान की धरा है

सब ने इसे वारा है -ये हिंदी है

विनय की भाषा है

संस्कृति की परिभाषा है

आत्मा का निवेदन है

दिलों की धड़कन है-ये हिंदी है



सब वाकिफ़ हैं इसकी गरिमा

विश्व में यह भाषा सरताज है

इस का भविष्य है बड़ा उज्ज्वल

करते हैं इस भाषा का शत-शत

अभिवंदन

माखनलाल पत्रकारिता विवि में प्रवेश हेतु आवेदन की अंतिम तिथि 5जून तक बढ़ाई गयी


भोपाल,23 मई,2011। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में शैक्षणिक सत्र 2011-12 में संचालित होने वाले विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश हेतु आवेदन करने की अंतिम तिथि 5 जून,2011 तक बढ़ा दी गयी है। पूर्व में यह तिथि 25 मई निर्धारित की गयी थी। प्रवेश परीक्षा पूर्व घोषित तिथि 12 जून, 2011 को सम्पन्न होगी। विश्वविद्यालय द्वारा मीडिया मैनेजमेंट, विज्ञापन एवं विपणन संचार, मनोरंजन संचार, कॉर्पोरेट संचार तथा विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी संचार में एम.बी.ए. पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। 2 वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अंतर्गत एम.जे. (पत्रकारिता स्नातकोत्तर), एम.ए.-विज्ञापन एवं जनसंपर्क, एम.ए.-जनसंचार, एम.ए.-प्रसारण पत्रकारिता, एम.एससी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं । तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रमों के अंतर्गत बी.ए.-जनसंचार, बी.एससी.- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बी.एससी.-ग्राफिक्स एवं एनीमेशन, बी.एससी.-मल्टीमीडिया तथा बी.सी.ए. पाठ्यक्रम संचालित हैं। एक वर्षीय पाठ्यक्रम के अंतर्गत विडियो प्रोडक्शन, वेब संचार, पर्यावरण संचार, योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं अध्यात्मिक संचार तथा भारतीय संचार परंपराएँ तथा पीजीडीसीए जैसे स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त एमसीए तथा बी.लिब. पाठ्यक्रम भी चल रहे हैं। मीडिया अध्ययन में एम.फिल. तथा संचार, जनसंचार, कंप्यूटर विज्ञान तथा पुस्तकालय विज्ञान में पीएच.डी. हेतु आवेदन आमंत्रित किये गए हैं। यह प्रवेश प्रक्रिया विश्वविद्यालय के भोपाल, नॉएडा एवं खंडवा स्थित परिसरों के लिए है। प्रवेश हेतु प्रवेश परीक्षा का आयोजन 12 जून 2011 को भोपाल, कोलकाता जयपुर, पटना, रांची, लखनऊ, खंडवा तथा दिल्ली/नोएडा केन्द्रों पर किया जायेगा। अधिक जानकारी विवरणिका और आवेदन पत्र हेतु दिनांक 16-22 अप्रैल 2011 के “रोजगार समाचार” तथा “एम्प्लोयेमेंट न्यूज़” एवं दिनांक 18-24 अप्रैल 2011 के “रोजगार और निर्माण” में प्रकाशित विज्ञापन देखें अथवा विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.mcu.ac.in पर लागऑन करें या किसी भी परिसर में पधारें अथवा फोन करें 0755-2553523 (भोपाल), 0120-4260640 (नोएडा), 0733-2248895 (खंडवा)।विश्वविद्यालय के सभी पाठ्यक्रम रोजगारोन्मुखी हैं एवं मीडिया के क्षेत्र में रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध कराते हैं।



(डा. पवित्र श्रीवास्तव)
निदेशकः प्रवेश


मोबाइलः 09827258572

Friday, May 20, 2011

आलेख - आज का समाज और कबीर




आज का समाज और कबीर


- कुमार वरूण, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी



21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में आज हमारे सामने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व की अनेक समस्याएँ अपने समाधान के लिए मुँह बाए खड़ी हैं। लेकिन ऐसे चुनौती भरे वातावरण में मंदिर और मस्जिद विवाद के छोटे से मसले ने सांप्रदायिक कट्टरपंथ और धार्मिक तत्ववाद का सहारा लेकर देश को एक ऐसे विस्फोट पर खड़ा कर दिया है, जहाँ से आगे राह नहीं मिल पा रही है। सांप्रदायिक विद्वेष की इस गंभीरता को आज से लगभग छ: सौ वर्ष पहले कबीर ने रेखांकित किया था-

अरे इन दोउन राह न पाई
हिन्दु की हिन्दुवाई देखी तुरकन की तुरकाई
कहें कबीर सुनो भाई साधो, कौन राह जाई॥



आज की विचारधारात्मक उठापटक और सामाजिक वितंडावाद के बीच अनेक बार कबीर की बानियों की सार्थकता बतायी जाती है। आज का समय कबीर के सच होने का है, 'न हिन्दू न मुसलमान' कहकर कबीर ने दोनों संप्रदायों में व्याप्त धर्मान्धता और कठमुल्लावाद की धज्जियां उड़ाई। हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो यह 'अस्वीकार का साहस' है, जो अपने आप में सत्य की परख है। कबीर ने सीधी चोट करने वाली बानियों के द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की जरूरतों का एहसास कराया। उनकी उत्तोजक प्रतिवाद-भावना से मध्ययुग में धर्म की एक प्रगतिशील भूमिका उभकर सामने आती है। जो कि वर्तमान समय के समाज के लिए पूर्व पीठिका तैयार करती है।

कबीर का विद्रोह एक ओर प्रगतिशीलता का चिन्ह है, तो दूसरी ओर व्यक्ति-वैचित्र्य और निषेधमूलक नकारात्मक दृष्टिकोण का भी। वे भीड़ के कायल नहीं- 'सिंह के लहड़े नही हंसन की नहिं पांति। लालन की नाहिं बोरियां साधु न चलै जमात॥'' वे भ्रष्ट समाज को भस्म कर देने हेतु एकाकी हैं। उनके सुधार में ध्वंस का आवेग है, पर जो शोमन है, जो शुभ है उसका संकल्प भी। इस सामाजिक क्रांति के दौरान उन्हें यदा-कदा कुंठा, हताशा एवं कुढ़न का अनुभव भी होता है। एक पद में अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए वे रहते हैं-

संतो देख्यों जग बौराना।
सांच कहौ तो मारन धावै, झूंठ कहौ पतियाना।



कबीर की भक्ति में सभी मनुष्यों के लिए समानता का भाव है। इसमें किसी भी बाह्याचार या धार्मिक कर्मकाण्ड को स्थान नहीं दिया गया है। कबीर अपने आत्मगत ईश्वर में पीड़ित एवं वंचित मनुष्य की छाया देखते हैं। वे ऐसे मनुष्य की हिताकांक्षा लेकर सुल्तान के दरबार तक पहुँचाना चाहते हैं, लेकिन वह भी अपनी मजलिस में दरबारी से घिरा रता है-


तहां मुझ गरीब की को गुठरावै।
मजलिस दूरि महल को पावै॥

कबीर की इन पंक्तियों में मध्ययुगीन शासन वर्ग का सच उजागर होता है। इतिहासकार इरफान हबीब ने दिल्ली सल्तनत के अधीन उत्तार भारत की सामाजिक स्थिति का वर्णन इन शब्दों में किया है ''किसान जैसे अपने घर के भी मालिक नहीं थे और उनकी दशा दासों से बेहतर न थी। सुल्तान ने भूमि-कर अधिकारियों को किसानों से निर्ममतापूर्वक कर वसूल करने के कठोर आदेश दे रखे थे ताकि वे कृषि-उत्पादन को तुरन्त बेचने पर विवश हो जाएं (कैंब्रिज इकॉम्नोमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया खण्ड-1, पृ0 54)
कबीर की रचनाएँ समाज सुधार की प्रेरणा देती है। उनमें सर्वधर्म समन्वय का मूलमंत्र छिपा है, बावजूद इसके कबीर सर्वधर्म समन्वयकारी न तो उस अर्थ में समाज सुधारक जिन अर्थों में लोग उन्हें इन कटघरों में बैठाना चाहते हैं। सर्वधर्म समन्वय की जिन बुनियादी शर्तों की आवश्यकता हो सकती है, वे कबीर में मौजूद हैं। किन्तु वर्तमान समय में सर्वधर्म समन्वय जो अर्थ लिया जाता है इससे उनका मत नितांत भिन्न है। निरर्थक आचार एवं रूढ़ियों से उन्हें बेहद चिढ़ थी, चाहे किसी अवतारी पुरूष या पैगम्बर द्वारा ही प्रवर्तित क्यों न हो। कबीर अपनी राह पर चलाते थे। उनकी राह न हिन्दू की थी, न मुसलमान की। यथा


हिन्दू मूये राम हि, मुसलमान खुदाइ।
कहै कबीर सो जीवता, दुइ में कदे न जाई॥''



कबीर की रचनाओं में जो सच है, वह उनके जीवन और समाज का ही सच है। उनकी अनुभूतियों में व्यक्ति की निजता के साथ ही काल का तीव्र बोध है, जिसके कारण वे आधुनिक बोध के निकट दिखाई पड़ते हैं। वे तुलसी से प्राचीन होते हुए भी आधुनिक और प्रगतिशील हैं, क्योंकि उन्होंने अपने ज्ञान के माध्यम से न सिर्फ साधना का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि मनुष्य और मनुष्य के बीच बैर पैदा करने वाली सामाजिक नियमों की धज्जियाँ भी उड़ाई हैं। अकाटय तर्क से युक्त उनके सधे हुए व्यंगों से भारतीय विवेकवाद के विकास का प्रमाण मिलता है। यह अकारण नहीं है कि आज मध्ययुगीन समाज के स्वस्थ इतिहास का शोध कबीर की बानियों के आधार पर किया जा रहा है। उनके अनुभवपूर्ण विचारों की अर्थवान् संगति अब खुलने लगी है।



आज हम एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं जहाँ विचारों और नैतिकता का अंत हो रहा है और पूरी दुनिया भूमंडलीकृत होकर एक बाजार में तब्दील होती जा रही है। ऐसा ''बाजार'' जिसमें अंधेरगर्दी और लूटपाट के सिवा कुछ नहीं है। कबीर इस बाजारवादी स्वरूपों की पहचान कराकर हमें आज का सच का एहसास दिलाने के लिए प्रयासरत हैं -

कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर फूंके आपना सो चले हमारे साथ



कथ्य और सांकेतिक व्यंजनाओं के कारण कबीर की बानियां आज भी समाज को समकालीन जीवन में बदले हुए सन्दर्भों में उतनी ही झकझोरती है, जितना मध्यकालीन यथार्थबोध के संदर्भों में। इसीलिए कबीर का साहित्य अतीत के अनेक रचनाकारों का साहित्य की तरह अप्रासंगिक और निष्प्राण साहित्य नहीं है। कबीर का साहित्य हमें हर चुनौती से लड़ने की शक्ति प्रदान करती है।






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Tuesday, May 17, 2011

फ़ैज़ और केदार जन्मशती अंतरराष्ट्रीय समारोह संपन्न




फ़ैज़ के मयार तक कौन पहुँच सकता है – डॉ.मुनीज़ा हाश्मी

भिलाई । मेरा बचपन बहुत तनहा बीता। मैं लगभग पाँच वर्ष की बच्ची थी जब अब्बू की गिरफ़्तारी हुई थी। मेरे ज़ेहन में वह मंजर आज भी ताज़ा है, मामा (माँ) के गुस्से का इज़हार, उनकी सिसकियाँ और अब्बू का उनको समझाना, मैं और मेरी बड़ी बहन सलीमा कमरे के एक कोने दुबकी हुईं, कारों के जाने की आवाज़ ये सब कहते हुये उनका गला रुँध आया। मेरे अब्बाजान यानी फ़ैज़ साहब पंजाबी थे और माँ अँग्रेज़। इस नाते अँग्रेजी मेरी मातृभाषा हुई और पंजाबी पितृभाषा। उर्दू कुछ मैंने सीखी है। पापा से हमेशा एक भीनी ख़ुशबू आती थी और मैंने कभी भी उन्हें बेतरतीब नहीं देखा। वे एक सलीक़ेमंद शायर थे। मैं शायरी नहीं करती क्योंकि फ़ैज़ के मयार तक भला कौन पहुँच सकता है। फ़ैज़ साहब की सुपुत्री डॉ. मुनीज़ा हाश्मी (लाहौर-पाकिस्तान) ने अपना वक्तव्य देते हुए अपने बचपन की यादों से सभागार को द्रवित कर दिया। उन्होंने प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा 14-15 मई को इस्पात नगरी भिलाई में आयोजित फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और केदारनाथ अग्रवाल जन्मशती पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय समारोह के उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए उन्होंने सभी हाज़रीन को लाहौर के फ़ैज-घर आने की दावत भी दी तथा संस्थान का शुक्रिया अदा किया। इसके पूर्व उन्होंने आयोजन का शुभारम्भ देश-विदेश के सैकड़ों वरिष्ठ साहित्यकारों की उपस्थिति में मंगलदीप प्रज्ज्वलित कर एवं फ़ैज़ साहब के चित्र पर माल्यार्पण कर विधिवत उद्घाटन किया।

फ़ैज़ प्रगतिशील आंदोलन की प्रेरणा में रहेगें – खगेंद्र ठाकुर

भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के आधारस्तम्भ एवं प्रख्यात आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर (पटना) ने उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए कहा कि दिल्ली में सम्पन्न प्रेमचंद इंटरनेशनल सेमीनार में उन्होंने पहली बार फ़ैज़ के दीदार किये और उनकी नज़्म सुनी। उन्होंने कहा कि कविता के इतिहास में शायर-कवियों का क़द कम होता गया है। प्रगतिशील आन्दोलन में हमने हमने हमेशा फ़ैज, केदार और नागार्जुन आदि को अपनी सोच और प्रेरणा के केन्द्र में रखा है। पूर्वज शायर-कवियों ने जो वैचारिक लड़ाइयाँ लड़ी हैं, उस दाय को, विरासत को हम सम्हाल नहीं पा रहे हैं इसलिये भी महत्वपूर्ण रचनायें और बड़े रचनाकार सामने नहीं आ पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह तो माया और ममता का समय है - इसमें ऐसे आयोजन भी संभव हैं और हो रहे हैं - यह मेरे लिये संतोष और आशा का आसमान खोलते हैं।

महत्वपूर्ण साहित्यकारों को अँधेरे से निकालना होगा - विश्वरंजन

प्रमोद वर्मा संस्थान के अध्यक्ष श्री विश्वरंजन ने स्पष्ट किया कि मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, श्रीकांत वर्मा और प्रमोद वर्मा ऐसे साहित्य-साधक हुये हैं जिनसे आज भी लेखक अपनी धार लेते हैं। ऐतिहासिकता में प्रमोदजी के अनदेखे किये जाने की स्थिति में यह संस्थान एक नैतिक लेखकीय दायित्व के तहत अस्तित्व में आया। इससे हम यह संदेश भी देना चाहते हैं कि ऐसे बहुतेरे महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं जिन्हें व्यवस्थित रूप से अँधेरे में ही रखने के कुचक्र सक्रिय हैं। अतः प्रमोद वर्मा संस्थान इस प्रवृत्ति, प्रकृति और निष्क्रियता से उपजे शून्य को भरने का एक विनम्र प्रयास है। अधिकाधिक लेखकों को प्रकाशित करना इसकी एक कड़ी है।

मेरी आश्नाई की शुरुआत फ़ैज़ से – डॉ. धनंजय वर्मा

प्रखर समालोचक डॉ. धनंजय वर्मा ने विस्तार से फ़ैज़ की शायरी और उनके द्वन्द्व पर प्रकाश डालते हुये कहा कि उर्दू शायरी से मेरी आश्नाई की शुरूआत फ़ैज़ की शायरी से ही हुई थी।

साहित्य मानवीय संस्कृति का विकास करे- डॉ. अजय तिवारी

आलोचक डॉ. अजय तिवारी ने कहा कि साहित्य को इतिहास से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। वैयक्तिक प्रतिभा के साथ इतिहास का चक्र ही ऐसे नामचीन लेखकों को जन्म देता है। क्या कारण है कि 1910-11 एक-दो नहीं 23 महत्वपूर्ण नामी-गि़रामी लेखकों जन्मशती का वर्ष है। ये तमाम लेखक स्वतंत्रता और क्रान्तिकारी आन्दोलनों की उपज हैं। हम भारत में केदार और फ़ैज़ की जन्म शताब्दी एक मंच पर एक साथ मना रहे हैं, यह भारत की सांस्कृतिक बुनियादी विशेषता है जो साहित्य में भाषा और सरहदों की सीमाओं दरकि़नार कर लोक-कल्याण को सर्वोपरि रखती है। साहित्य की यही भूमिका भी है कि वह मानवीय संस्कृति का विकास करे।

उद्घाटन अवसर पर प्रमोद वर्मा संस्थान के महासचिव व शायर मुमताज़ ने स्वागत वक्तव्य दिया। संस्थान के उपाध्यक्ष व श्री कवि रवि श्रीवास्तव ने उद्घाटन सत्र का संचालन किया। स्वागताध्यक्ष श्री अशोक सिंघई अतिथियों का पुष्पगुच्छ से हार्दिक स्वागत किया।

नयी कृतियों का विमोचन

इस अवसर पर विश्वरंजन के सम्पादन में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर प्रकाशित एकाग्र सच जि़न्दा है अब तकएवं केदारनाथ अग्रवाल पर प्रकाशित एकाग्र बांदा का योगीका लोकार्पण हुआ। इन महत्वपूर्ण संकलनों के साथ लाला जगदलपुरी की किताब गीत धन्वा’, डॉ. दयाशंकर शुक्ल की पुनर्प्रकाशित छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य का अध्ययन’, शिवशंकर शुक्ल की डोकरी के कहिनी’, रवि श्रीवास्तव की नदी थकने नहीं देती’, सुनीता वर्मा की घर घुंदिया’, शंभुलाल बसंत की इंक्यावन नन्हे गीत’, विश्वरंजन/आर.के. विज़/जयप्रकाश मानस की इंटरनेट, अपराध और कानूनके साथ ही जयप्रकाश मानस की तीन अन्य कृतियों विहंग, जयप्रकाश मानस की बाल कवितायेंतथा छत्तीसगढ़ की लोककथाएँ रमेश गुप्त का कविता संकलन त्रिवेणी, आदि कृतियों के लोकार्पण विशिष्ट अतिथियों द्वारा सम्पन्न हुए।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर केंद्रित प्रथम सत्र क़ैद-ए-क़फ़स से पहलेमें बीज वक्तव्य दिया पाकिस्तान से पधारे अब्दूर रऊफ़ । इस सत्र में कुमार पंकज, डॉ. धनंजय वर्मा, अजय तिवारी सहित मुनीज़ा हाश्मी ने फ़ैज़ की शायरी पर व्यापक विमर्श किया । सत्र की अध्यक्षता की पाकिस्तान की वरिष्ठ आलोचक आरिफ़ा सैयदा । सत्र का सुव्यवस्थित संचालन किया युवा आलोचक पंकज पराशर ने । द्वितीय सत्र शामे-सहरे-यारांकी अध्यक्षता की आलोचक याकूब यावर ने । बीज वक्तव्य दिया मौसा बख़्श ने । इस अवसर, खगेंद्र ठाकुर, डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे, मुनीजा हाश्मी, पंकज पराशर, फ़ज़ल इमाम मल्लिक और डॉ. रोहिताश्व आदि वक्ताओं ने अपनी बात रखी ।

दो प्रतिष्ठित कवियों का सम्मान

रात्रि कालीन आयोजन में समग्र व विशिष्ट साहित्यिक योगदान के लिये उर्दू के नामचीन वरिष्ठ शायर ज़नाब बदरुल क़ुरैशी बद्र, दुर्ग एवं भिलाई के वरिष्ठ कवि श्री हरीश वाढेर को प्रमोद वर्मा सम्मान से सम्मानित किया गया । उन्हें संस्थान की ओर से शॉल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह और संस्थान द्वारा प्रकाशित कृतियाँ आदि प्रदान कर अंलकृत किया गया ।

अन्तरराष्ट्रीय मुशायरामहफ़िल--सुख़नसम्पन्न


प्रगतिशील शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जन्मशती समारोह के अंतिम और रात्रिकालीन सत्र में देश-विदेश के ख्यातिलब्ध शायरों ने अपनी शायरी से फ़ैज़ साहब को याद किया और गंगा-जमुनी संस्कृति को और भी पुख़्ता करते हुये उर्दू और हिन्दी ज़ुबानों की मिलनसारिता सिद्ध की। इस अन्तरराष्ट्रीय मुशायरे की सदारत (अध्यक्षता) पाकिस्तान की मशहूर शायरा डॉ. आरिफ़ा सैयदा साहिबा ने की। लाहौर से भिलाई पधारीं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की साहबज़ादी डॉ. मुनीज़ा हाश्मी मुख्य अतिथि थीं। मौक़े पर पाकिस्तान के जिओ टीव्ही. के डायरेक्टर अब्दूर रऊफ़ साहब एवं दुर्ग के महापौर डॉ. एस.के. तमेर विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे।


अध्यक्षीय आसंदी से मुबारक़बाद देते हुये डॉ. आरिफ़ा सैयदा साहिबा ने कहा कि उर्दू और हिंदी भाषायें, पाकिस्तानियों और हिन्दुस्तानियों की तरह मिलनसार हैं। यह हमारी सांस्कृतिक एकरूपता का बुनियादी और ठोस बयान है। उन्होंने फ़ैज़ साहब की रचनाओं का प्रभावी पाठ भी किया। संस्थान के निदेशक श्री जयप्रकाश मानस ने तरन्नुम में फ़ैज़ साहब की ग़ज़लों का पाठ कर महफ़िल को भाव-विभोर कर दिया। देर रात तक चले मुशायरे में बनारस विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रमुख डॉ. याक़ूब यावर, दिल्ली के युवा कवि व पत्रकार फ़ज़ल इमाम मल्लिक के साथ स्थानीय तथा जाने-माने शायरों में फ़ैज़ सम्मान से सम्मानित बदरूल क़ुरैशी बद्र, अशोक शर्मा, मुकुन्द कौशल, नजीम कानपुरी, क़ाविश रायपुरी, डॉ. संजय दानी, साकेत रंजन प्रवीर, डॉ. नौशाद सिद्दीकी, रामबरन कोरीक़शिश’, मोहतरमा नीता काम्बोज़ और निज़ामत कर रहे शायर मुमताज़ ने अपनी नायाब रचनायें पेश कीं।

जहाँ गिरा मैं, कविताओं ने मुझे उठाया

द्वितीय दिवस 15 मई, 2011 प्रगतिशील धारा के प्रमुख कवि केदारनाथ अग्रवाल जन्मशती समारोह के अन्तर्गत को देश के ख्यातिलब्ध कवियों ने कविताओं की धार से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। भिलाई निवास में देर रात तक सम्पन्न जहाँ गिरा मैं, कविताओं ने मुझे उठायाराष्ट्रीय काव्य गोष्ठी में देश के नामचीन कवियों ने बेहतरीन कविताओं से केदारजी को शब्दांजलि दी। इस अति महत्वपूर्ण काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता डॉ. धनंजय वर्मा (भोपाल), डॉ. खगेन्द्र ठाकुर (पटना), डॉ. अजय तिवारी (नई दिल्ली), डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल (नई दिल्ली) एवं प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष व कवि श्री विश्वरंजन, पुलिस महानिदेशक, छत्तीसगढ़ ने की।

सर्वप्रथम संस्थान के अध्यक्ष श्री विश्वरंजन ने श्रीमती सुनीता अग्रवाल (केदारजी की पौत्री) का शॉल, श्रीफल व स्मृतिचिन्ह एवं संस्थान की कृतियाँ भेंट कर सम्मान किया।

पहले चरण में केदारजी की कविताओं का पाठ उनकी पौत्री श्रीमती सुनीता अग्रवाल, संस्थान के निदेशक श्री जयप्रकाश मानस व मुमताज ने किया। अध्यक्षीय आसंदी से डॉ. खगेन्द्र ठाकुर ने आयोजन की सफलता पर बधाई देते हुये कहा कि केदारजी की कविताओं के बरअक्स उनकी शान में आज पढ़ी गई कविताओं में आज के समय की अनुगूँज है।

इस गोष्ठी की विशेषता यह रही कि अध्यक्ष मंडल से डॉ. खगेन्द्र ठाकुर एवं श्री विश्वरंजन ने भी काव्यपाठ किया। इनके साथ प्रमोद वर्मा सम्मान से सम्मानित हरीश वाढेर (भिलाई), फ़ज़ल इमाम मलिक (दिल्ली), माताचरण मिश्र (भोपाल), डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे (लातूर), प्रो. रोहिताश्व (गोवा), भारत भारद्वाज (नई दिल्ली), नंद भारद्वाज (जयपुर), श्री श्रीप्रकाश मिश्र (इलाहाबाद), डॉ., प्रताप राव कदम (खण्डवा), रमेश खत्री (जोधपुर), संतोष श्रीवास्तव (मुम्बई), जया केतकी (भोपाल), इला मुखोपाध्याय (भिलाई), संतोष झाँझी (भिलाई), श्री रवि श्रीवास्तव (भिलाई) एवं संचालक अशोक सिंघई ने अपनी उत्कृष्ट रचनायें प्रस्तुत कीं। संस्थान के उपाध्यक्ष व कवि अशोक सिंघई ने गोष्ठी का संचालन किया। आभार व्यक्त किया संस्थान के वरिष्ठ उपाध्यक्ष व लेखक डॉ. सुशील त्रिवेदी ने ।

बिंबों की गतिशीलता में केदार अकेले कवि हैं – अजय तिवारी

दूसरे दिन 15 मई को केदार नाथ अग्रवाल जन्मशती समारोह के अंतर्गत केदार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अभिकेंद्रित सत्र तेज़ धार का कर्मठ पानीके सत्राध्यक्ष और प्रसिद्ध आलोचक अजय तिवारी ने कहा कि केदार नाथ अग्रवाल मार्क्सवादी सौंदर्य चेतना के विरल कवि हैं । जिन्होंने मार्क्सवादी सौंदर्य दृष्टि से चीज़ों को देखा है । नदी, पहाड़, केन के सौंदर्य को संश्लिष्टता प्रदान की है । केदार के बिंब स्थायी नहीं गतिशील बिंब हैं । बिंबों की गतिशीलता को लेकर प्रगतिशील हिंदी कविता के केदार अकेले कवि हैं ।

सीधे और सहज रास्ते के कवि है केदार – भारत भारद्वाज

भारत भारद्वाज ने केदार अग्रवाल पर बोलते हुए ने कहा कि अग्रवाल मार्क्सवादी चेतना के सीधे और सहज रास्ते के कवि हैं । अभिव्यक्ति की जटिलता का केदार की कविता में स्थान नहीं है । अभिव्यक्ति की जटिलता को लेकर ही केदारनाथ. ने मुक्तिबोध की कविता की कहीं-कहीं आलोचना भी की है । उन्होंने यह भी कहा कि इसे रामविलास शर्मा की दृष्टि से न देखकर केदार की कविता की दृष्टि स देखा जाना चाहिए ।

केदार सामाजिकता और समष्टि के कवि हैं – कृष्णदत्त पालीवाल

प्रख्यात आलोचक कृष्णदत्त पालीवाल ने कहा कि अग्रवाल और अज्ञेय भिन्न विचारधारा के होते हुए भी दोनों के संबंध मित्रवत थे । केदारजी ने अपनी कविताएँ तार सप्तक में नहीं दी हैं । इसके कारण इतर हो सकते हैं । केदारजी और मुक्तिबोध की मित्रता उनके पत्रों से साबित होती है । जो मेरे पास धरोहर के रूप मे हैं । के. अ. सामाजिक समष्टि के कवि हैं । और अज्ञेय व्यक्तिवादी कवि होते हुए भी हिन्दी को जो कुछ उन्होंने दिया वह कम मह्तवपूर्ण नहीं है ।

इस अवसर बोलते हुए केदार जी के नाती चेतन अग्रवाल ने कहा कि मेरे नाना केदार जी बहुत ही सरल सहज और व्यक्तित्व के स्वामी थे । उन्होंने कभी भी जीवन में अपने कार्य व्वयहार में छल-छद्म को स्थान नहीं दिया । उन्होंने जो कुछ भी लिखा और जिया वो बहुत ही ईमानदारीपूर्ण था । इस अवसर पर केदार जी की पोती सुनीता अग्रवाल जी ने भी अपने संस्मरण सुनाये ।

इसके अलावा बांदा का योगी वाले सत्र में अध्यक्ष मंडल के डॉ. धनंजय वर्मा, खगेन्द्र ठाकुर, डॉ. अजय तिवारी के अलावा डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे, डॉ. रोहिताश्व, डॉ. श्याम सुंदर दुबे, श्री नंद भारद्वाज, डॉ. प्रताव राव कदम, डॉ. प्रकाश त्रिपाठी, श्री नरेंद्र पुंडरीक, श्री भारत भारद्वाज, कुमार वरूण आदि ने केदार के व्यक्तित्व के कई पहलुओं पर प्रकाश डाला । सत्रों का संचालन श्रीप्रकाश मिश्र और नरेंद्र पुंडरीक ने किया । इस दो दिवसीय आयोजन में केदारनाथ अग्रवाल की पौत्री श्रीमती सुनीता अग्रवाल (दिल्ली) शिरक़त करने विशेष तौर पर उपस्थित थीं।

इस अवसर पर डॉ. सुशील त्रिवेदी, रमेश नैयर, डॉ. प्रेम दुबे, श्री आरिफ़ हुसैन, डॉ. गंगाप्रसाद बरसैया, तेजेन्दर, सतीश जायसवाल, गिरीश पंकज, डॉ. सी. जय शंकर बाबु (पांडिच्चेरी), डॉ.चितरंजन कर, डॉ. तीर्थेश्वर सिंह,संतोष झांझी, मुंकुंद कौशल, अजहर कुरैशी, सुनीता वर्मा, निर्मल आनंद, कमल बहिदार, सुजीत आर. कर, मीना महोबिया, डॉ. मांघीलाल यादव, गुलबीर भाटिया, अशोक शर्मा, रौनक जमाल, यश ओबेराय, गिरीश पंकज, डॉ. चितरंजन कर, डॉ. तीर्थेश्वर सिंह, श्री दानेश्वर शर्मा, विनोद मिश्र, सरोज प्रकाश, डॉ. पी.सी.लाल यादव, त्र्यम्बक राव साटकर, शंकर सक्सेना, लोकनाथ साहू, डॉ. राधेश्याम सिंदुरिया, बल्देव कौशिक, आर. सी. मुदलियार, सरला शर्मा, डॉ. सुधीर शर्मा, राघवेंद्र सिंह, रविशंकर शुक्ल, सहित महावीर अग्रवाल, डॉ. चित्तरंजन कर, सुशील अग्रवाल, दानेश्वर शर्मा, के.पी.सक्सेना, वीरेंद्र पटनायक, हर्षवर्धन पटनायक, रमेश पांडेय, अभय तिवारी, वर्षा रावल, गायत्री आचार्य, रानू नाग, डॉ. निरूपमा शर्मा, शीला शर्मा, प्रभुनाथ सिंह, जयशंकर प्रसाद डडसेना, दिनेश माली, शाद बिलासपुरी, शेख़ निज़ाम राही कंदर्प कर्ष, वीरेंद्र बहादुर सिंह, योगेश अग्रवाल, अजय कुमार शुक्ल, अंजनी अंकुर, हर प्रसाद निडर, मंगत रवीन्द्र, प्रतिमा श्रीवास्तव, दिलीप पाटिल, शिवमंगल सिंह, महंत कुमार शर्मा, संजीव तिवारी, सईद खान, यश प्रकाशन के शांति स्वरूप शर्मा और शिल्पायन प्रकाशन के ललित शर्मा, यश ताम्रकार, पंकज ताम्रकार, सहित कई राज्यों के साहित्यकार भारी संख्या में समुपस्थित थे ।

भोपाल से जया केतकी की रपट