Saturday, September 6, 2008

कविता

आकाश की ओर

- हरिहर झा

( अति मह्त्वाकांक्षी लोग… क्या क्या गुल खिलाती हैं उनकी हीन ग्रंथियां…)

पिकनिक पॉइंट पर खड़ा

मैं देख रहाढलकता पानी

जलधारा का मैं छूना चाहता झिझकती उंगलियों से

टपकती करुणा इन बूंदों से

गिरती खाइयों में

जिसकी गहराइयां भयदायी

पर कुछ बूंदों की लपटें

महत्वाकांक्षा लिए

वाष्पीभूत होकर

उठी आकाश की ओर ।

मैं ही हूं वाष्पीभूत जल

ऊपर को उठता हुआ

क्यों समझते तुम मुझे

क्षुद्र और नीचा !

देखता हूँन जाने क्यों नीचे रह कर

कीड़े-मकोड़े आनंदित हैं

मैं जल रहा नन्हेपन की पीड़ा में

घनीभूत हो रहाओछेपन का भाव

और सूइयां चुभती

हीन ग्रंथि की

मैं चिल्लाता हूं

देखो, मुझे देखो

मेरी ऊँचाई !

पर मग्न हो तुम स्वयं में

विनाशकारी धारा से अनजान

बिजली के तार परबैठी चिड़िया की तरह;

मैं भी चहचहाना चाहता

कुछ परागकण

फैलाता वायुमंडल में

बिखरा देता कुछ बीज धरती पर

मकसद वही

विशाल वृक्ष से प्रतिस्पर्धा करने ।

मेरे कंप्यूटर का की-बोर्ड

उपहास करता

मेरी आजीवन पीड़ा और बेचैनी पर;

व्यथा बेझिझक और अनंत दुख

अंधकार में ढीले पड़ते स्नायु
तनाव से भरा जीवन

और मौत की क्षणभर आयु

निकली कीबोर्ड के बल्ब की चमक

आत्मसात होने

दूर गगन की

निहारिका की ओर

रह गई आधी अधूरी

धुएं की लकीर का छोर

इस ओर ।

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