Friday, August 1, 2008

समीक्षा



पत्रिका समीक्षा
साहित्य अकादेमी के कर्मियों की साहित्यिक चेतना को प्रतिबिंबित करने वाली पत्रिका


आलोक
- डॉ. सी. जय शंकर बाबु
साहित्यिक अकादेमी की राजभाषा पत्रिका आलोक का अंक-8 (मार्च-2008) हाल ही प्रकाशित हुआ है । साहित्य अकादेमी के स्टॉफ सदस्यों का रुझान साहित्य की ओर अधिक होना वांछनीय एवं स्वागतयोग्य बात है । पत्रिका का यह अंक इन तथ्यों को उद्घाटित करता है । श्री ब्रजेंद्र जी ने अपने संपादकीय में लिखा है – “...इस पत्रिका के माध्यम से अपनी रचनात्मक यात्रा शुरू कर कुछ रचनाकारों ने दूसरी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है । साहित्य अकादेमी में ड्राइवर के रूप में कार्यरत श्री श्यामसिंह चौहान का पिछले दिनों पहला कविता संग्रह फिर भी रहेगी दुनिया प्रकाशित हुआ जिसका लोकार्पण अकादेमी के अध्यक्ष श्री सुनील गंगोपाध्याय के हाथों हुआ । ...”
आलोक में कविता, कहानी, नाटक, संस्मरण विधाओं की रचनाओं के अलावा विचारोत्तेजक आलेख भी प्रकाशित हुए हैं । मौलिक कविताओं तथा कहानियों के अलावा विविध भाषाओं से अनूदित कविताएँ तथा कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं । कुछ रेखांकन भी प्रकाशित हुए हैं जिनमें आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित चित्रों के अलावा रत्नाकर एस. पाटील का द्वारा रेखांकित नागार्जुन का चित्र ओजस्विता को लेकर बहुत ही आकर्षक है ।
‘देश में हिंदी’ शीर्षक से प्रकाशित अपने आलेख में श्री ब्रजेंद्र त्रिपाठी जी ने सही कहा कि अपनी भाषाओं को लेकर आज भी हम एक तरह की हीनता की ग्रंथि के शिकार हैं । इसी आलेख के निष्कर्ष के रूप में अंतिम अनुच्छेद हिंदी प्रकाशन एवं पाठकों की कमी की यथार्थ स्थिति की ओर इंगित करता है । उस अनुच्छेद की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत है – “हिंदी भाषा-भाषी लोगों की संख्या 50 करोड़ के आस-पास है । लेकिन हिंदी का साहित्य इनमें से कितने लोगों तक पहुँच रहा है या कितने लोग पुस्तकें ख़रीद कर पढ़ते हैं, यह देखनेवाली बात है । अब अधिकांश प्रकाशक 1100 भी नहीं, 500 पुस्तकों का संस्करण निकालते हैं ।...लेकिन यह भी ग़ौर करने की बात है कि ये पुस्तकें अधिकांशतः सरकारी थोक ख़रीद में जाती हैं, पाठकों के हाथों नहीं पहुँचतीं । एक तो इनका मूल्य इतना अधिक है कि एक मध्यवर्गी व्यक्ति की जेब इसे गवारा नहीं करती । दूसरा कारण है कि पाठकीयता में कमी आई है । पाठकों का समय इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने चुरा लिया है । यह ख़तरनाक स्थिति है ।”
ओम प्रकाश शर्मा जी का आलेख भागवत की शिक्षा एवं मनजीत कौर भाटिया जी का आलेख मित्रता अनमोल है भी शिक्षाप्रद एवं पठनीय हैं । अधिकांश मौलिक कविताएँ, कहानियाँ एवं नाटक भी स्तरीय एवं पठनीय हैं । अन्य संस्मरण एवं विचार बिंदु भी पत्रिका की पठनीयता को बढ़ाने लायक है । इस पत्रिका में बस कमी इस बात की महसूस हुई कि इसमें देश की किसी भाषा के सामयिक साहित्य पर समीक्ष्यात्मक लेख भी देते निश्चय ही इसकी गरिमा और भी बढ़ जाती थी ।
आलोक के संपादकीय में इस बात का भी उल्लेख है कि अपने चौवन वर्षों के कार्यकाल में अकादेमी ने सभी भाषाओं के साहित्य को अनुवाद के माध्यम से एक सूत्र में जोड़ा है और भारतीय भाषाओं के लिए एक कॉमन मंच उपलब्ध कराया है । यह दावा भले ही स्वीकार योग्य हो, मगर अकादमी से यह भी आशा की जानी चाहिए कि वह भारतीय भाषाओं की उन्नति की दिशा में और भी कारगर कदम उठाए । आलोक की इस समीक्षा के आलोक में ही अकादेमी से जुड़े मह्त्वपूर्ण साहित्यिक मुद्दों की भी दो पंक्तियों में क्यों न हम चर्चा कर लें । साहित्य अकादमी की अंग्रेज़ी तथा हिंदी में प्रकाशित होनेवाली पत्रिकाएँ – इंडियन लिटरेचर एवं समकालीन भारतीय साहित्य की आवधिकता एवं पहुँच बढ़ाने हेतु अपेक्षित कदम अवश्य उठाए जाने चाहिए । इन पत्रिकाओं की लोकप्रियता इतनी बढ़ें कि हर शहर में अख़बारों की दुकानों में भी मिल जाए । देश की सर्वेच्च साहित्यिक संस्था होने के नाते अकादेमी की पत्रिकाओं के संबंध में ऐसी अपेक्षा अवश्य की जानी चाहिए । इन पत्रिकाओं की पहुँच के बढ़ने के साथ ही विभिन्न भाषाओं के आम साहित्यकारों का भी इन पत्रिकाओं के साथ जुड़ने भी संभव हो पाएगा जिससे इन पत्रिकाओं में सभी भाषाओं के साहित्य को समुचित स्थान भी सुनिश्चित हो पाएगा । यदि किसी कारणवश इस दिशा में कदम उठाना संभव नहीं हो कम से कम अपने वेब साइट को ज्यादा सक्रिय बनाकर और उसमें कंटेट को बढ़कर इस उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है । केवल प्रकाशित पुस्तकों की सूचियाँ ही न जोड़कर उसमें भारत की सभी भाषाओं के साहित्य पर सारपूर्ण एवं सामग्री दी जाए एवं उसे अद्यतनीकरण की भी व्यवस्था की जाए । आलोक भविष्य के अंक अपनी रचनाओं में विचारों की विराटता से साहित्य आकादेमी को आलोकमय बना दें, ऐसी आशा की जा सकती है ।
(AALOK – A Review of a Hindi Magazine by Dr. C. JAYA SANKAR BABU for YUGMANAS)
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