Friday, August 1, 2008

कहानी

थाती
- राम बिलास 'मनु'
'क्यों लाए हो इसे यहाँ ?'
'भैया, बाबू जी काफ़ी दिनों से बीमार हैं । वहां गांव में डॉक्टर .. ..'
'तो मैं क्या डॉक्टर हूं ?'
'पर यहां शहर में अच्छे डॉक्टर.. ..'
'अच्छे डॉक्टर की फीस का पता भी है तुम्हें ?'
'पर मेरे पास तो जितने पैसे थे सब वैध जी की दवाई .. ..'
'और तुम समझते हो मेरे पास पैसों की खान है ।'

मुरली निरीह सा गर्दन नीची किए अपने भैया के सामने निरुत्तर खड़ा था । मुरली के भैया अच्छे सरकारी पद पर हैं । शहर में दो-दो मकान हैं । अपने आपको बड़ा साहित्यकार भी कहते हैं । साथ ही मुहल्ले की सांस्कृतिक पुलिस की भूमिका भी निभाते हैं।
जहां कहीं दो-चार युवकों को टोली में खड़ा देखते हैं वहीं उन्हें गली-मोहल्ले की मर्यादा की सीख देने पहुंच जाते हैं और न मानने पर पुलिस अफसरों से संप होने की धमकी भी दे आते हैं । जब सड़क पर किसी लड़की को अंग-दिखाऊ कपड़ों में देख लेते हैं तो उसे रांड, बेशर्म जैसे सम्बोधन देने से भी नहीं चूकते । पूरे मुहल्ले में उनका दबदबा है । भाइयों का झगड़ा हो या पति-पत्नी का, लड़की को ससुराल में तंग करने का मामला हो या फिर कूड़े और नाली को लेकर पड़ोसियों के बीच हुए झगड़े का, सब लोग पंचों में उनकी गिनती करते हैं ।
* *
आज मुरली के बाबूजी को सरकारी अस्पताल में पांचवां दिन है । तबियत बिगड़ती ही जा रही है । डाक्टरों ने कह दिया है कि हमारे पास जितनी चिकित्सा सुविधाएं हैं हमने उस हिसाब से कोई कसर नहीं छोड़ी है । अगर आप किसी प्राइवेट अस्पताल में ले जाना चाहें तो हमें कोई आपत्ति नहीं है । मुरली की जेब में कौड़ी भी नहीं है । वह तो प्राइवेट अस्पताल का नाम लेने तक की भी हिम्मत नहीं कर सकता । उसके भैया दफ्तर गए हुए हैं । सुबह जाते वक्त बाबू जी ने कहा था कि बेटा, आज छुट्टी ले लो । मैं तुम्हें अपने पास बिठाकर तुमसे कुछ बातें करना चाहता हूं । आज मेरा मन है क्या पता फिर कभी बातें कर पाऊं या नहीं । लेकिन भैया दफ्तर में जरूरी काम बताते हुए निकल गए और अपनी जगह अपने लड़के को वहां छोड़ गए । बाबू जी सुबह से तीन बार भैया को बुलाने के लिए कह चुके हैं । मुरली की हिम्मत नहीं हो रही है भैया को दफ़्तर में टेलीफ़ोन करने की । जब बाबूजी ने चौथी बार भैया को बुलाने के लिए मुरली से आग्रह किया तो मुरली विवश हो गया । उसने अपने भतीजे को दफ़्तर में टेलीफ़ोन करने के लिए भेजा । भतीजे ने वापस लौटकर बताया कि पापा तो दफ़्तर से आधी छुट्टी लेकर साहित्यकारों की बौध्दिक चर्चा में भाग लेने गए हैं ।
बाबूजी भैया से बात करने को बहुत अधीर हो रहे हैं लेकिन उन्हें कहां खोजा जाए । शायद उनका आखिरी वक्त आ गया है । भैया का इंतजार करते-करते अब बाबूजी का धीरज जबाव देने लगा है । वे इशारे से मुरली को अपने पास बुलाते हैं । उनका पोता भी उनके पास बैठा है । बाबू जी मुश्किल से सांस जोड़ पाते हैं--'बेटा, अब मुझे जाना है, लगता है बैजू से बात करने की इच्छा साथ ही चली जाएगी । खैर, मैं अब अपने घर की जिम्मेवारी बैजू को सौंपकर जाता हूं । उससे कहना कि वह घर में सबसे बड़ा है । घर परिवार की ऊंच-नीच का ख्याल रखे । भाई-चारे की बेल को हरी रखे । हमारे बुजुर्गों की कमाई इज्जत को और ऊंचे ले जाय, घर की बहू-बेटियों के मान-सम्मान में फ न आने दे । और बेटा तुम भी अपने बड़े भाई की बात को कभी मत टालना । उसके मुंह से निकली बात को मेरी बात समझकर सिर माथे पर रखना ।' इतना कहकर बाबूजी ने अपने गले में से एक काला डोरा बाहर निकाला जिसमें भगवान सूर्यनारायण का एक लॉकेट बंधा था । पास बैठे पोते को वह लॉकेट सौंपते हुए बाबूजी बोले---'यह हमारे पूर्वजों की थाती है । यह लॉकेट मेरे दादा जी ने सबसे पहले पहना था । उनसे होते हुए यह मेरे तक पहुंचा । अब यह बैजू के गले में जाएगा । उससे कहना कि नित नेम से सूर्योदय के समय भगवान सूर्यनारायण को जल चढ़ाये । हमारे परिवार में पीढ़ियों से यह परंपरा चली आ रही है । अब बैजू को यह परंपरा निभानी है ।' और इतना कहकर बाबूजी ने आंखे मूंद ली । दादा का हाथ पोते के हाथ में था और दोनों हथेलियों के बीच पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा सहेजी जा चुकी थी ।

* *

पंद्रह साल से बैजू नित नेम से सूर्य भगवान को जल चढ़ाता आ रहा है । सुबह नहा-धोकर बनियान और धोती पहनकर सबसे पहले सूर्य भगवान को जल चढ़ाने के बाद ही वह मुंह में कुछ डालता है । बस एक यही नियम है जो पंद्रह सालों से नहीं बदला है । बाकी तो बहुत कुछ बदल गया है बैजू की जिंदगी में ।
बैजू के लड़के की शादी को दो साल होने को हैं । इन दो सालों से बैजू मन का सुकून पाने को तरस रहा है । वह चिड़चिड़ा हो गया है, बात-बात पर भड़क उठता है । कभी-कभी तो गुस्से में अपनी पत्नी और बच्चियों पर हाथ तक उठा देता है । अब तो मोहल्ले वाले भी उससे किनारा करने लगे हैं । अब मुहल्ले में उसकी पहले जैसी पूछ नहीं रही । लोगों ने इन दो सालों में घर के सामने सड़क पर बाप-बेटे के कितने ही वाक्-युध्द देखे हैं । बेटा घर से अलग होकर किराए के मकान में रहने लगा है । लोग कहते हैं बेटे की शादी के दूसरे ही दिन से बैजू के घर से हंसी-ठिठोली की जगह डांट-डपट की आवाजें आने लगी थीं । बैजू के आदेश से बेटे और बहू की सुहागरात अलग-अलग कमरों में मनी । बैजू के दोस्त कहते हैं लड़की इज्जतदार घर की नहीं है । उसे घर बांधना नहीं आता । बैजू को तो लड़की पहले ही पसंद नहीं थी लेकिन उसे तो बेटे की जिद के सामने झुकना पड़ा । बात तो विदा के समय ही बिगड़ गई थी । बैजू ने विदा पर एक लाख रुपये की मांग कर दी थी । लड़की के मां-बाप ने पैसा देने से मना कर दिया । दोस्तों-रिश्तेदारों ने समझा-बुझाकर 51 हजार पर समझौता करवाया । रिश्ते में खटास पहले ही पैदा हो चुकी थी ।
बैजू की बहू प्राइवेट नौकरी करती है । उस दिन उसे शादी की छुट्टियों के बाद वापस नौकरी पर जाना था । नई-नई शादी के खुमार में दोनों पति-पत्नी रात को देर से सोये होंगे । इसलिए सुबह उठने में देर हो गई । उसने जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाने की कोशिश की । उसने सारे घर में झाड़ू लगा ली थी । समय देखा तो 8.30 बज चुके थे । 9 बजे तो उसे ऑफिस जाना था । अभी खाना भी बनाना था । अगर वह पोंछा लगाएगी तो और भी देर हो जाएगी यह सोच कर वह सीधे रसोई में घुस गई । उसने अभी तीन-चार रोटियां ही बनाई थी कि उसे ससुर का स्वर सुनाई पड़ा --'यही सिखाया है क्या तुम्हारे मां-बाप ने?' घर में सफाई तो की भी नहीं और घुस गई रसोई में । चल रसोई से बाहर निकल और पहले पोंछा लगा । 'पापा, मुझे ऑफिस जाने में देर हो रही है, पोंछा कल लगा दूंगी ।' उसने साहस जुटाकर मजबूरी जताई । 'तो खाना भी कल बना लेना, क्यों रसोई में घुसी है ।' ससुर ने मुंह बनाया । बेचारी जलती भुनती बाल्टी में पानी भरकर पोंछा लगाने बैठ गई । ससुर का मुंह फिर खुला-- 'क्या झाड़ू लगाई है तुमने ? वो मेज के नीचे पड़ा कागज दिखाई नहीं दिया तुम्हें । तुम्हारी आंखें हैं या कटोरे ?' अब तो हद ही हो गई थी । उसने गुस्से में पोचा फर्श पर पटक दिया और रोती हुई अपने कमरे में आ गई ।
अब तो आए दिन किसी न किसी बात को लेकर ससुर और बहु में कहा-सुनी होती रहती । बहु ने भी तीखे तेवर अपना लिए थे । वह ईंट का जवाब पत्थर से देने लगी । बैजू ने अपने बेटे के माध्यम से बहु पर लगाम कसनी चाही लेकिन बेटे ने बाप का साथ देने से इंकार कर दिया । अब तो बेटे को भी नामर्द, जोरु का गुलाम, बीवी का यार जैसी पदवियां मिलने लगीं । कुल मिलाकर बात इतनी आगे बढ़ी कि बाप बेटे में बोलचाल बंद है । बेटा बाप से नफरत करने लगा है ।
* *
आज मुरली गांव से भाई के घर आया है । बाबूजी की मौत के बाद मुरली पहली बार भाई के घर आया है । उसे पता चला कि भाई को गले का कैंसर हो गया है । बैजू ने अपने लड़के की शादी में भी मुरली को नहीं बुलाया था । इतने सालों में बैजू ने कभी गांव की ओर रुख नहीं किया । उल्टे यहां बैठे-बैठे चिट्ठियों के माध्यम से मुरली के लिए हुक्म भेजता रहा --खेत में गेहूं नहीं सरसों बोनी है । सरसों के अच्छे दाम मिलते हैं, गेहूं तो कच्चे काटकर तुम अपनी भैंसों को खिला देते हो । बाई का भात भर आना, मुझे फुर्सत नहीं है । गांव की गौशाला में मेरे नाम से एक गाड़ी भूसा भेज देना ।
भाभी की बातों से मुरली को पता चला कि दोनों बाप बेटों में बोलचाल बंद है और भैया बेटे को घर लाने के इच्छुक हैं । उन्होंने कई बार बेटे को संदेश भी भिजवाया है लेकिन उसकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है । सब बातें जानकर मुरली ने भाभी को दिलासा दिया कि वह समझा बुझाकर उनके बेटे को घर ले आएगा ।
मुरली ने अपने भतीजे को लाख मनाने की कोशिश की लेकिन वह घर आने को तैयार नहीं हुआ । थक हार कर मुरली वापस लौट आया है । मुरली के हाथ बेटे ने बाप के नाम एक चिट्ठी भिजवाई है । बैजू चिट्ठी पढ़ रहा है ---
"आदरणीय बाबूजी,
पंद्रह साल पहले दादा जी ने जो थाती आपके हाथों की जगह मेरे हाथों में सौंपी थी वह उनकी मजबूरी थी या यह सब नियति का खेल था, मुझे संदेह होने लगा है । मुझे दु:ख है मैं आपके हाथों से उस थाती को ग्रहण नहीं कर पाऊंगा । क्योंकि वह तो दादा जी ने मरते समय ही अपने हाथों से मुझे संभला दी थी । आप चिंता न करें मैं उस थाती का पूरा सम्मान करूंगा और नित नेम से सूर्य भगवान को जल चढ़ाऊंगा । आप इस बारे में कोई बोझ मन में न रखें । हमारी पीढ़ियों की परंपरा बरकरार रहेगी ।'
बैजू की आंखों से टप-टप गिरते आंसू डूबते सूर्य भगवान को जल चढ़ा रहे हैं ।
(TAATHI – A Hindi STORY by RAMBILAS MANU for YUGMANAS)

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