Monday, July 6, 2015

अँधा हुआ समय का दर्पन : बोल रहा है सच कवि का मन

कृति चर्चा:
अँधा हुआ समय का दर्पन : बोल रहा है सच कवि का मन 
चर्चाकार: आचार्य संजीव
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[कृति विवरण: अँधा हुआ समय का दर्पन, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', नवगीत संग्रह, १९०९, आकार डिमाई, पृष्ठ १२७, १५०/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, अयन प्रकाशन दिल्ली, संपर्क: ८६ तिलक नगर, फीरोजाबाद १८३२०३, चलभाष: ९४१२३६७७९,dr.yayavar@yahoo.co.in
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इनलाइन चित्र 1श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' के आठवें काव्य संकलन और तीसरी नवगीत संग्रह 'अँधा हुआ समय का दर्पण' पढ़ना युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडम्बनाओं से आहत कवि-मन की सनातनता से साक्षात करने की तरह है. आदिकाल से अब तक न विसंगतियाँ कम होती हैं न व्यंग्य बाणों के वार, न सुधार की चाह. यह त्रिवेणी नवगीत की धार को अधिकाधिक पैनी करती जाती है. यायावर जी के नवगीत अकविता अथवा प्रगतिवादी साहित्य की की तरह वैषम्य की प्रदर्शनी लगाकर पीड़ा का व्यापार नहीं करते अपितु पूर्ण सहानुभूति और सहृदयता के साथ समाज के पद-पंकज में चुभे विसंगति-शूल को निकालकर मलहम लेपन के साथ यात्रा करते रहने का संदेश और सफल होने का विश्वास देते हैं. 

इन नवगीतों का मिजाज औरों से अलग है.  इनकी भाव भंगिमा, अभिव्यक्ति सामर्थ्य, शैल्पिक अनुशासन, मौलिक कथ्य और छान्दस सरसता इन्हें पठनीयता ही नहीं मननीयता से भी संपन्न करती है. गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, हाइकु, ललित निबंध, समीक्षा, लघुकथा और अन्य विविध विधाओं पर सामान दक्षता से कलम चलाते यायावर जी अपनी सनातन मूल्यपरक शोधदृष्टि के लिये चर्चित रहे हैं. विवेच्य कृति के नवगीतों में देश और समाज के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक परिदृश्य का नवगीतीय क्ष किरणीय परीक्षण नितांत मलिन तथा तत्काल उपचार किये जाने योग्य छवि प्रस्तुत करता है. 

पीर का सागर / घटज ऋषि की / प्रतीक्षा कर रहा है / धर्म के माथे अजाने / यक्ष-प्रश्नों की व्यथा है -२५, 

भूनकर हम / तितलियों को / जा रहे जलपान करने / मंत्र को मुजरे में / भेजा है / किसी ने तान भरने -२६, 

हर मेले में / चंडी के तारोंवाली झूलें / डाल पीठ पर / राजाजी के सब गुलाम फूलें / राजा-रानी बैठ पीठ पर / जय-जयकार सुनें / मेले बाद मिलें / खाने को / बस सूखे पौधे - ३८ 

दूधिया हैं दाँत लेकिन / हौसला परमाणु बम है / खो गया मन / मीडिया में / आजकल चरचा गरम है / आँख में जग रहा संत्रास हम जलते रहे हैं - ३९ 

सूखी तुलसी / आँगन के गमले में / गयी जड़ी / अपने को खाने / टेबिल पर / अपनी भूख खड़ी / पाणिग्रहण / खरीद लिया है / इस मायावी जाल ने - ४४ 

चुप्पी ओढ़े / भीड़ खड़ी है / बोल रहे हैं सन्नाटे / हवा मारती है चाँटे / नाच रहीं बूढ़ी इच्छाएँ / युवा उमंग / हुई सन्यासिन / जाग रहे / विकृति के वंशज / संस्कृति लेती खर्राटे -५२ 

भूमिका पर थी बहस / कुछ गर्म इतनी / कथ्य पूरा रह गया है अनछुआ / क्या हुआ? / यह क्या हुआ? - ५७  

यहाँ शिखंडी के कंधे पर / भरे हुए तूणीर / बेध रहे अर्जुन की छाती / वृद्ध भीष्म के तीर / किसे समर्पण करे कहानी / इतनी कटी-फ़टी -६०-६१ 

सम्मानित बर्बरता / अभिनन्दित निर्ममता / लांछित मर्यादा को दें सहानुभूति / चलो / हत्यारे मौसम के कंठ को प्रहारें -७१ 

पीड़ा के खेत / खड़े / शब्द के बिजूके / मेड़ों पर आतंकित / जनतंत्री इच्छाएँ / वन्य जंतु / पाँच जोड़  बांसुरी बजाएँ / पीनस के रोगी / दुर्गन्ध के भभूके / गाँधी की लाठी / पर / अकड़ी बंदूकें -७३ 

हर क्षण वही महाभारत / लिप्साएँ वे गर्हित घटनाएँ / कर्ण, शकुनि, दुर्योधन की / दूषित प्रज्ञायें / धर्म-मूढ़ कुछ धर्म-भीरु / कुछ धर्म विरोधी / हमीं दर्द के जाये / भाग्य हमारे फूटे-७६ 

मुखिया जी के / कुत्ते जैसा दुःख है / मुस्टंडा / टेढ़ी कमर हो गयी / खा / मंहगाई का डंडा / ब्याज चक्रवर्ती सा बढ़कर / छाती पर बैठा / बिन ब्याही बेटी का / भारी हुआ / कुँआरापन -८७

पीना धुआँ, निगलने आँसू / मिलता  ज़हर पचने को / यहाँ बहुत मिलता है धोखा / खाने और खिलाने को / अपना रोना, अपना हँसना / अपना जीना-मरना जी / थोड़ा ही लिखता हूँ / बापू! / इसको बहुत समझना जी- पृष्ठ ९९



इन विसंगतियों से नवगीतकार निराश या स्तब्ध नहीं होता। वह पूरी ईमानदारी से आकलन कर कहता है:
'उबल रहे हैं / समय-पतीले में / युग संवेदन' पृष्ठ ११०

यह उबाल बबाल न बन पाये इसीलिये नवगीत रचना है. यायावर निराश नहीं हैं, वे युग काआव्हान करते हैं: 'किरणों के व्याल बने / व्याधों के जाल तने / हारो मत सोनहिरन' -पृष्ठ ११३

परिवर्तन जरूरी है, यह जानते हुए भी किया कैसे जाए? यह प्रश्न हर संवेदनशील मनुष्य की तरह यायावर-मन को भी उद्वेलित करता है:
' झाड़कर फेंके पुराने दिन / जरूरत है / मगर कैसे करें?' -पृष्ठ ११७

सबसे बड़ी बाधा जन-मन की किंकर्तव्यविमूढ़ता है:
देहरी पर / आँगन में / प्राण-प्रण / तन-मन में / बैठा बाजार / क्या करें? / सपने नित्य / खरीदे-बेचे / जाते हैं / हम आँखें मींचे / बने हुए इश्तहार / क्या करें? -पृष्ठ १२४
पाले में झुलसा अपनापन / सहम गया संयम / रिश्तों की ठिठुरन को कैसे / दूर करें अब हम? - पृष्ठ ५६

यायावर शिक्षक रहे हैं. इसलिए वे बुराई के ध्वंस की बात नहीं कहते। उनका मत है कि सबसे पहले हर आदमी जो गलत हो रहा है उसमें अपना योगदान न करे:
इस नदी का जल प्रदूषित / जाल मत डालो मछेरे - पृष्ठ १०७

कवि परिवर्तन के प्रति सिर्फ आश्वस्त नहीं हैं उन्हें परिवर्तन का पूरा विश्वास है:
गंगावतरण होना ही है / सगरसुतों की मौन याचना / कैसे जाने? / कैसे मानें? -पृष्ठ ८४

यह कैसे का यक्ष प्रश्न सबको बेचैन करता है, युवाओं को सबसे अधिक:
तेरे-मेरे, इसके-उसके / सबके ही घर में रहती है / एक युवा बेचैनी मितवा -पृष्ठ ७९

आम आदमी कितना ही  पीड़ित क्यों न हो, सुधार के लिए अपना योगदान और बलिदान करने से पीछे नहीं हटता:
एकलव्य हम / हमें दान करने हैं / अपने कटे अँगूठे -पृष्ठ ७५

यायावर  जी शांति के साथ-साथ जरूरी होने पर क्रांतिपूर्ण प्रहार की उपादेयता स्वीकारते हैं:
सम्मानित बर्बरता / अभिनन्दित निर्ममता / लांछित मर्यादा को दे सहानुभूति / चलो / हत्यारे मौसम के कंठ को प्रहारें - पृष्ठ ७१

भटक रहे तरुणों को सही राह पर लाने के लिये दण्ड के पहले शांतिपूर्ण प्रयास जरूरी है. एक शिक्षक सुधार की सम्भावना को कैसे छोड़ सकता है?:
आज बहके हैं / किरन के पाँव / फिर वापस बुलाओ / क्षिप्र आओ -पृष्ठ ६९

प्रयास होगा तो भूल-चूक भी होगी:
फिर लक्ष्य भेद में चूक हुई / भटका है / मन का अग्निबाण - पृष्ठ ६२

भूल-चूल को सुधारने पर चर्चा तो हो पर वह चर्चा रोज परोसी जा रही राजनैतिक-दूरदर्शनी लफ्फ़ाजियों सी बेमानी न हो:
भूमिका पर थी बहस / कुछ गर्म इतनी / कथ्य पूरा रह गया है अनछुआ / यह क्या हुआ? / यह क्या हुआ? -पृष्ठ ५७

भटकन तभी समाप्त की  जा सकती है जब सही राह पर चलने का संकल्प दृढ़ हो:
फास्टफूडी सभ्यता की कोख में / पलते बवंडर / तुम धुएँ को ओढ़कर नाचो-नचाओ / हम, अभी कजरी सुनेंगे- पृष्ठ ५४

कवि के संकल्पों का मूल कहाँ है यह 'मुक्तकेशिनी उज्जवलवसना' शीर्षक नवगीत में इंगित किया गया है:
आँगन की तुलसी के बिरवे पर / मेरी अर्चना खड़ी है -पृष्ठ ३१

यायावर जी नवगीत को साहित्य की विधा मात्र नहीं परिवर्तन का उपकरण मानते हैं. नवगीत को युग परिवर्तन के कारक की भूमिका में स्वीकार कर वे अन्य नवगीतिकारों का पथप्रदर्शन करते हैं:
यहाँ दर्द, यहाँ प्यार, यहाँ अश्रु मौन / खोजे अस्तित्व आज गीतों में कौन? / शायद नवगीतकार / सांस-साँस पर प्रहार / बिम्बों में बाँध लिया गात -पृष्ठ ३०

यायावर के नवगीतों की भाषा कथ्यानुरूप है. हिंदी के दिग्गज प्राध्यापक होने के नाते उनका शब्द भण्डार समृद्ध और संपन्न होना स्वाभाविक है. अनुप्रास, उपमा, रूपक अलंकारों की छटा मोहक है. श्लेष, यमक आदि का प्रयोग कम है. बिम्ब, प्रतीक और उपमान की प्रचुरता और मौलिकता इन नवगीतों के लालित्य में वृद्धि करती है. आशीष देता सूखा कुआँ, जूते से सरपंची कानून लाती लाठियाँ, कजरी गाता हुआ कलह, कचरे में मोती की तलाश, लहरों पर तैरता सन्नाटा, रोटी हुई बनारसी सुबहें आदि बिम्ब पाठक को बाँधते हैं.

इन नवगीतों का वैशिष्ट्य छान्दसिकता के निकष पर खरा उतरना है. मानवीय जिजीविषा, अपराजेय संघर्ष तथा नवनिर्माण के सात्विक संकल्प से अनुप्राणित नवगीतों का यह संकलन नव नवगीतकारों के लिये विशेष उपयोगी है. यायावर जी के अपने शब्दों में : 'गीत में लय का नियंत्रण शब्द करता है. इसलिए जिस तरह पारम्परिक गीतकार के लिये छंद को अपनाना अनिवार्य था वैसे हही नवगीतकार के लिए छंद की स्वीकृति अनिवार्य है.… नवता लेन के लिए नवगीतकार ने छंद के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किये हैं. 'लयखंड' के स्थान पर 'अर्थखण्ड' में गीत का लेखन टी नवगीत में प्रारंभ हुआ ही इसके अतिरिक्त २ लग-अलग छंदों को मिलकर नया छंद बनाना, चरण संख्या घटाकर या बढ़ाकर नया छंद बनाना, चरणों में विसंगति और वृहदखण्ड योजना से लय को नियंत्रित करना जैसे प्रयोग पर्याप्त हुए हैं. इस संकलन में भी ऐसे प्रयोग सुधीपाठकों को मिलेंगे।'

निष्कर्षत: यह कृति सामने नवगीत संकलन न होकर नवगीत की पाठ्य पुस्तक की तरह है जिसमें से तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ परिनिष्ठित भाषा और सहज प्रवाह का संगम सहज सुलभ है. इन नवगीतों में ग्रामबोध, नगरीय संत्रास, जाना समान्य की पीड़ाएँ, शासन-प्रशासन का पाखंड, मठाधीशों की स्वेच्छाचारिता, भक्तों का अंधानुकरण, व्यवस्थ का अंकुश और युवाओं की शंकाएं एक साथ अठखेला करती हैं.

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