Wednesday, March 20, 2013

अम्मी

मुक्तिका:

अम्मी

संजीव 'सलिल'
*
माहताब की जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में,
हरदम पडी दिखाई अम्मी.

कौन बताये कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी.

भावज जी भर गले लगाती,
पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था,
अब बाकी पहुनाई अम्मी.

बसा सासरे केवल तन है.
मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी.

अब्बा में तुझको देखा है,
तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.

तू दीवाली, तू ही ईदी.
तू रमजान फाग होली है.
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी.
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