Monday, August 18, 2008

कविता

अभी नहीं

- मैत्रेयी बनर्जी

आंसुओं अभी मत बहो अभी बहने का वक्त नहीं है
तुम एक वीरांगना की पलकों मे पनपी हो
तुम्हें अपने दुखों पर रोने का कोई हक़ नही है ।
-वीर अभिमन्यु की तरह पलना है तुम्हें इन्हीं पलकों में
देखना है दुनिया वालों के बदलते रंग
किस तरह छलनी किए जाते हैं इस जहाँ में
मासूम दिलों के उमंग ।
जानना है तुम्हें इस चक्रव्यूह के राज को
जो रची गई है धर्म, सत्य, आचार, और इमान, की लाश पर
जानना है तुम्हें उन सभी को - जो गद्दियों पर
विराजमान है भ्रष्टाचार के बल पर
तोड़ना है तुम्हें उसी चक्रव्यूह को
जिसे युग पहले वह अभागा ना तोड़ सका
रटना है तुम्हें उसी अंतिम पाठ को
जिसे वह अभागा ना सुन सका
बंधे रहो तुम तब तक इन्हीं आखों में
सिसकते रहो हर क्षण इसी रणभूमि में
क्योंकि तुम अभिमन्यु हो और सुभद्रा का कोख यही है
आंसुओं अभी मत बहो अभी बहने का वक्त नही है ।
-बहना तुम उस घड़ी जब कोई मजबूर
इमानदार बेचे अपनी इमान को
बहना तुम उस घड़ी जब कोई वृद्ध कंधा
सहारा दे बेटे की लाश को
फूट पड़ना तुम उस समय जब कोई
लालची सास सताए अपनी पुत्रवधू को
बह जाना तुम उस समय जब
बचा सको नारी की लूटती लाज को
निकल जाना इसी कोख से तुम उस समय जब
धो सको दूसरो के दुःख, घृणा, और अभाव के कलंक को
नही रोकेंगी ये आँखें तुम्हें उस वक्त
ये इन पलकों का वादा है.. पर -
आंसुओं अभी मत बहो अभी बहने का वक्त नहीं है ।
{लेखकीय टिप्पणी - अपने छोटे छोटे दुखों पर आंसू ना बहाकर इन्हें उस समय बहने दे जब आप किसी के दुःख और पीरा को समझ सकें और उन्हें कुछ कम कर सकें । - मैत्रेयी}

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