Friday, August 15, 2008

कविता

सौंदर्य और प्रज्ञा

- कुणाल पिम्पलकर

श्वेत-श्याम वर्ण लाल तुम सदैव ज्योती हो,
उन्मुक्त उन्माद की यूँ तुम सदैव द्योती हो ।।
जल-जलज, प्रकाश, बिंदु ना कोई आकार हो,
धरा-गगन प्रचीती हो बस तुम ही निराकार हो ।।
मोह, माया, लोभ, काम ना कोई भान हो,
अंतर-मन-तल में मेरे तुम ही विद्यमान हो ।।
विलक्षणी ओ चंचला का रूप बिखेरता रहे,
चित्र तेरा मन ये मेरा यूं उकेरता रहे ।।
गौर वर्ण, केश काले मेघ से प्रचंड हो,
पुष्पलिप्त, रात्रियमन जैसे कई छंद हो,
आभूषण इत्यादी का संवाद जैसे दंड हो,
रूप ऐसा मेनका का दंभ खंड खंड हो 1

रूपवान हो, परंतु मद में क्यों यूं लीन हो,
सहृदय मैं कहता मेरे प्रेम में विलीन हो ।।
ज्योति है प्रखर, पर्यंत दीपक में बाती है,
श्रद्धाकण दृष्टिगोचर हो, तभी तो ख्याति है ।।
श्रृंगार प्रेमहीन होने से भी कोई अर्थ है?
सम्मुख हो कामदेव तो भी गुण सभी ये व्यर्थ हैं ।।
सौंदर्य, तप व साधना का ही वहाँ निष्कर्ष है,
शुष्क धरा, प्रेम सरिता दोनों जहाँ स्पर्श है ।।
नित्य अंहकार जैसे कुष्ठ का विकार हो,
स्त्री हो तुम वसुंधरा की भाँती तुम उदार हो,
रूपवान मूढ़ बनी मन ये मेरा खिन्न है,
सौंदर्य व संस्कार क्योंकि शब्द ये विभिन्न है 2

रहस्य-बोध हो यही प्रयत्न सधता रहा,
मौन हो गए जिन्हें प्रकांड मानता रहा ।।
तीव्र वेग जल में बहता पुष्प ये बता रहा,
जीवन के अंतकाल में तो रूप न छूआ रहा ।।
सौंदर्य, ज्ञान-बोध दोनों भ्रम के ही समान है,
आसक्ति हो तो फिर पतन के क्रम सभी समान है ।।
मन, वचन, विचार, धर्म शुद्धि मात्र लक्ष्य हो,
बुद्धि में प्राणी प्रेम और देवता के कक्ष हों ।।
व्यंजन स्वरूप जीवन के तत्त्व मात्र सर्व हों,
मनुष्य को मनुष्य की मनुष्यता पे गर्व हो,
रूप दास है व काल स्वामी का आकार है,
प्रज्ञा ही चिरस्थायी है व मोक्ष का द्वार है 3
प्रज्ञा ही चिरस्थायी है व मोक्ष का द्वार है.....


{संदर्भ:- कविता मुख्यतः तीन भागों में है । इस कविता में एक तरुण के मन का द्वंद है जो पहले भाग में एक तरुणी के प्रेम का अनुभव कर रहा है । अधिकांश तरुणों की तरह यह युवक भी अपने हृदय की बात कह नहीं पाता और आक्रोशित होता है, यही कविता का दूसरा भाग है । तीसरे व अंतिम भाग में उसे स्वयं की मति से ज्ञान होता है की मनुष्य जन्म का सही उद्देश्य क्या है? – कवि }

2 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता लिखी है आप ने ..

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  2. अति सुंदर रचना |
    रचनात्मकता की उच्च सीमा ||
    - जय नारायण त्रिपाठी

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