Monday, March 7, 2016

मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘चाक’ में नारी चेतना

लेख
मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास चाक में नारी चेतना
-    रिजा जे.आर.
हिन्दी साहित्य में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दौर में नारी चेतना का उदय हुआ है। आज स्त्री समाज के समुचित विकास के लिए पुरुषों के कन्धे में कंधा डालकर आगे बढ़ रही है। इसके द्वारा स्त्री अपनी अलग पहचान, अस्मिता ढूँढ रही है। नारी चेतना नारी अस्मिता से जुड़ा अहसास है। नारी चेतना में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्र में दबी नारी का विरोध और उसके बाहर आने का प्रयास भी है।
पुराने काल में स्त्री का आदर मिलता था। कालान्तर में नारी की स्थिति में कमज़ोरी होती गई। लेकिन स्त्री शिक्षा के फलस्वरूप सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध आवाज़ उठाने की क्षमता उसमें उभर आई। घर की चार दीवारें तोडकर स्त्री अपना अस्तित्व खोजने का धैर्य दिखाने लगी। वह वर्तमान समाज में अपनी अस्मिता के प्रति सचेत है। फिर भी इस पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री अब भी पीड़ित है और दलित भी। नारी का पति, पुत्र, परिवार और समाज द्वारा अलग अलग तरीके से शोषण होता है। स्त्री इसका खिलाफ करे तो समाज में यह अनर्थ हो जाएगा। मैत्रेयीजी ने चाक की भूमिका में इस प्रकार कहा है— पर सुन मेरी बच्ची! अपनी कटी हुई हथेलियाँ न फैलाया, उस बनाने वाले के सामने की पिछली बार बनाते समय जो भूल की थी उसे सुधार ले! नहीं तुझे फिर वही बनना है! फिर औरत! सौ जन्मों तक औरत जब तक मेरे हिस्से का आसमान तेरे और सिर्फ तेरे नाम न कर दिया जाय।1
समकालीन महिला लेखिकाओं ने नारी शोषण के विरुद्ध अपनी तूलिका चलाई। कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, मन्नु भंडारी, ममता कालिया आदि इस कोटि में आती है। इनमें से मैत्रेयी पुष्पा का नाम शीर्षस्थ है। उन्होंने अपने उपन्यासों में स्त्रियों की दुनिया की बाहरी और भीतरी छटपटाहटों को अभिव्यक्त किया है।
मैत्रेयी जी नारी वर्ग को उसका स्वत्व बोध कराना चाहती है। वे नारी में नारीत्व को जागृत करना चाहती है। लेखिका ने महज नारी जीवन पर ही नहीं लिखा है, बल्कि जीवन की तमाम संवेदनाओं को रूपायित करके कई मायनों में वर्तमान रचनाकारों में विशेष कामयाबी भी हाँसिल की है। नारी की कलम से नारी के विषय में जो कुछ लिखा गया है, वह अत्यंत सार्थक और प्रशंसनीय है। मैत्रेयी जी के उपन्यास उनके नारीवादी सारोकार के साक्ष्य है। उनका चाक हिंदी के सर्वोत्तम उपन्यासों में चर्चा के केन्द्र में है। 1997 में प्रकाशित चाक उनका दूसरा उपन्यास है। यह ग्रामीण परिवेश में स्त्री चेतना के प्रसार को आख्यायित करता है। उपन्यास की नायिका सारंग है। वह अपनी फुफेरी बहन रेश्मा की हत्या से विद्रोह हो उठती है। इस गाँव की औरतें पुरुष अहं, शील और सतीत्व की रक्षा के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है। इसका वर्णन लेखिका ने इस प्रकार किया है कि – इस गाँव के इतिहास में दर्ज दस्तानें बोलती है— रस्सी के फंदे पर झूलती रुक्मणी, कुएँ में कुदनेवाली समदेई, करबन नदी में समाधिस्थ नारायणी – ये बेबस औरतें सीता माइया की तरह भूमि प्रवेश कर अपना शील – सतीत्व की खातिर कुरबान हो गई। ये ही नहीं, और न जाने कितनी...2
रेशम जो विधवा स्त्री है, अपने पति की मृत्यु के पाँच महीने के बाद वह अवैध गर्भधारण करती है। रेशम को इस पर अपराध बोध नहीं होता। लेकिन परंपरावादी सास घर की इज्जत बचाने के लिए जेठ डोरिया के साथ थापने को तैयार करती है। रेशम के इनकार से क्रुद्ध होकर जेठ डोरिया छल से रेशम की हत्या कर देता है। सारंग अपने पति रंजीत की सहायता से उनका गिरफ्तार कराती है।
लेखिका इन शब्दों में युवा विधवा को लेकर समाज की सोच पर सवाल उठाती है— रेशम विधवा थी – ज़माने के लिए, रीति रिवाज़ों के लिए, शास्त्र पुराणों के चलते घर – गाँव के लिए। विधवा सिर्फ विधवा होती है। वह औरत नहीं रहती फिर। यह बात पता नहीं उसे किसी ने समझाई कि नहीं? किसी ने कहा कि इच्छाओं के रेशमी तार में आग लगा दे रेशम? उसने तो केवल इतना माना कि पेड़ हरा-भरा रहे तो फूल-फल क्यों नहीं लगेंगे? ऐसा हो सकता है कि ऋतु और बल्लरी लता फूले नहीं?”3
सारंग संवेदनशील नारी है। रेशम के वध को जानकर भी गाँववालों की मूकता देखकर सारंग उसकी जाँघों में जूते से मारती है। इससे डोरिया सारंग के गर्दन में दबोचकर कहता है कि – तेरे छोरा की नार और मसकनी है। फिर भूल जायेगी बिफरना। साली इकबंझिया! पूरी ज़िंदगी निपूती होकर बिसूरती रहना।4
मैत्रेयी पुष्पा ने चाक में स्त्री शोषण के विविध आयामों को अत्यन्त सहज और यथार्थपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। मैत्रेयी पुष्पा के अनुसार – मेरी सारंग अपने अधिकार का मूल्य जानती है। सांस्कृतिक मनो भूमिकाओं में वह किसी पुरुष से ऊपर है। अपमान, घृणा, उपेक्षा जो पति से मिलती है, उसका निदान हमख्याल मित्र के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में है। उसे पति नहीं, साथी चाहिए। साथी मन का भी, तन का भी।5
मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी रचनाओं में स्त्री के सामने आने वाली अनेक समस्याओं को अभिव्यक्त किया है। उनकी रचनाओं में जो प्रश्न उठाये जाते हैं, वे अत्यंत आधुनिक होते हैं। वे स्त्री विमर्श के सभी आयामों – यौन – मुक्ति, नारी – चेतना, नारी – अधिकार, सहअस्तित्व को विश्लेषित करने में सक्षम हो गया है। नारी अस्मिता को उजागर करना वह अपना धर्म समझती है। नारी चेतना केवल शब्द में नहीं उसे व्यवहार में लाना भी अनिवार्य समझती है। नारी का अपना जीवन है, और सिर्फ महिमा मंड़ित होकर नहीं जीना, अपितु मानव समाज में गरिमापूर्ण, सम्मान एवं अधिकार से जीना है। उसका लेखन बहुस्तरीय, सच्चा, ईमानदार है। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में चित्रित नारी भारतीय नारी है और इन उपन्यासों में नारी विषयक धार्मिक संवेदना के विविध आयामों का यथार्थ अंकन हुआ है।
संदर्भ ग्रंथ:-
1.  चाक, मैत्रेयी पुष्पा
2.  चाक, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 7
3.  चाक, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 17
4.  चाक, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 46
5.  सुनो मालिक सुनो, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 223
हायक ग्रंथ:-
1.  दसवें दशक के हिन्दी उपन्यासों में दलित चेतना, वसानी कृष्णावंती पी. पृष्ठ संख्या 172
2.  ममता कालिया के कथा साहित्य में नारी चेतना, डॉ. सानप शाम, पृष्ठ संख्या 100
3.  सुनो मालिक सुनो, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 223
4.  हिन्दी साहित्य में नारी संवेदना, डॉ. एन.पी. दौड़ गौडर, डॉ. डि.बी. पांड्रे
पत्रिका:-
1.  आज कल, मार्च 2014
2.  केरल हिन्दी साहित्य अकादमी शोधपत्रिका, 2 जुलाई 2012
*डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के निर्देशन में कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयमबत्तूर में पीएच.डी. के लिए शोधरत हैं ।


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