Thursday, March 26, 2015

जयप्रकाश मानस की कविताएँ: सर्वस्व में शून्यता का संधान -

  
जयप्रकाश मानस की कविताएँ: सर्वस्व में शून्यता का संधान
-          डॉ. कुमार वरुण


     जयप्रकाश मानस का कविता-संग्रह ‘अबोले के विरूद्ध’ समकालीन संदर्भों को नए मूल्य-बोध की कसौटी पर परखने का माध्यम बना हैं। उनकी कविताएँ समाज, साहित्य और सांस्कृतिक मूल्यों को नई अर्थव्यंजनाओं से संपृक्त कर कविता संसार में नया मानक तैयार करने का मुकम्मल प्रयास करती हैं। काव्य-संग्रह प्रौढ़ होते कवि की साहित्यिक बेचैनी और छटपटाहट को प्रौढ़ता से प्रस्तुत करता है। बेचैनी और छटपटाहट केवल मानसिक क्षुधा को शांत करने का माध्यम नहीं बनती, बल्कि सामाजिक धरातल पर कई अर्थ-संदर्भों को साथ-साथ रूपायित करने के प्रति प्रतिबद्ध है।

     काव्य-संग्रह का शीर्षक है- ‘अबोले के विरूद्ध’। न बोलने के प्रति प्रतिबद्ध कवि बोलने के लिए मजबूर हो जाता है। समाज में न बोलने की परिपाटी विकसित हो गई है। जो नहीं बोलता है, वह सम्मान का हकदार होता है। विवेकानंनद कहते थे कि ‘न बोलने से अच्छा है: कुछ बोलना।’ बोलना जोखिम भरा कार्य है। कवि जयप्रकाश मानस इसी परंपरा से संबंद्ध है। स्वप्न को माध्यम बनाकर कवि अपनी स्मृतियों में झांकने का प्रयास करता है, क्योंकि स्मृतियों में ‘माँ’ की याद सुखद अहसास का अनुभव कराती है। कवि अपनी कविता ‘उपस्थिति’ में माँ के माध्यम से स्वप्न साकार करवाने का प्रयास करता है। माँ ही बच्चों के सपने को साकार करने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है। उपस्थिति कविता में माँ का बिंब अनायास नहीं आया है बल्कि माँ कवि के बचपन की यादों में खोने का माध्यम भी बनती है: ‘‘माँओं की गोद में आना बाकी है अंतिम बच्चा/चिडि़यों को याद है अभी भी गीत की एक कड़ी।’’

     माँ के प्रति कवि की प्रतिबद्धता- ‘माँ की रसोई’ शीर्षक कविता में भी दृष्टिगत होता है। रसोई और माँ का संबंध भारतीय परिवार में स्त्रियों की अर्थवत्ता केा इंगित करता है, साथ ही कवि माँ के बहाने बहन को याद कर फैंटेसी का निर्माण करता है: ‘‘मुझे नहीं पता-बहनें कैसे संभालती होंगी रसोई/पर माँ से संभलती है रसोई’।’’
   
     जयप्रकाश मानस की कविता और जीवन में फाँक नहीं है। वे सिर्फ स्वप्न में ही संभावनाओं की तलाश नहीं करते हैं बल्कि देश में पड़ने वाले अकाल का चित्रण अनुभवजन्य ज्ञान के आधार पर करते हैं। वही कवि अकाल का चित्रण कर सकता है जो लोक-जीवन में रच बस गया हो। जयप्रकाश मानस की कविता ‘अकाल में गाँव: तीन चित्र’ लोक की अनुभूतियों से प्रस्तुत करने का सार्थक प्रयास करती है: ‘‘इस साल फिर/बिटिया की पठौनी/पुरखौती जमीन की/कागज-पतर नहीं लौटेगी साहूकार की तिजोरी से।’’

     कवि इस अनूठे प्रयोग के माध्यम से लोक की अनुभूतियाँ और दर्द को बयाँ करता है। अकाल के साथ-साथ साहूकार भी भारतीय समाज के लिए अभिशाप हैं। कवि समाज की सच्चाइयों को सूक्ष्म दृष्टि से पड़ताल करता है। अकाल को साहूकार का पर्याय मानना भारतीय समाज की सच्चाई है।

     साहित्य समाज का पर्याय है। साहित्य को समाज से अलगकर उसकी महत्ता को नहीं समझा जा सकता है। साहित्य ही मानव मन की चित्तवृत्तियों को आकाश में फैलाने के लिए जगह देता है। वर्तमान समय में समाज की आंतरिक बनावट और विन्यास में बदलाव आ रहा है। साहित्य भी इस बदलाव को महसूस कर अपनी संरचना को नया आयाम देने के प्रति प्रयासरत है। जयप्रकाश की कविताएं साहित्य और समाज के बदलते स्वरूप को महसूस कर नये विकल्पों के लिए आधारभूमि तैयार करती हैं। नए विकल्पों और नई अच्छाइयों के साथ कवि अपनी पहली कविता ‘उपस्थिति’ में कविता के लिए नये प्रतिमान गढ़ते हंै। नए शब्दों के लिए कवि का यह संघर्ष आशावादी दृष्टिकोण को रेखांकित करता है, साथ ही साहित्य के लिए सुखद अहसास भी है। ‘कुछ झूठ बोलना सीखो कविता’ में कवि का अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रति स्खलन दिखाई पड़ता है। साहित्य तो समाज का दर्पण है। साहित्य ही झूठ बोलने के लिए अभिशप्त है तो समाज का आईना कैसे? कवि का कविता के प्रति वैचारिक स्खलन मानसिक अंतद्र्वन्द्व को इंगित करता है। सच बोलने की सजा हत्या है तो सत्य का अवमूल्यन क्यों? वैयक्तिक अनुभूतियों का आत्म साक्षात्कार करके समाज में प्रस्तुत करना कवि का दायित्व है: ‘‘कविते!/कुछ फरेब करना सिखाओ/कुछ चुप रहना/वरना तुम्हारे कदमों पर चलने वाला कवि/मार दिया जाएगा खामखां।’’
     
     कवि संभावनाओं के माध्यम से जीवन वट को सींचने के लिए प्रतिबद्ध है। संभावनाओं के सहारे ही जीवन दृष्टि का विकास होता है। जीवन में नई ऊर्जा को रूपायित करने के लिए संभावनाओं की तलाश आवश्यक है। जयप्रकाश मानस अपनी कविता ‘कविता होगी तो’ में उसी संभावनाओं के सहारे साहित्य की उपादेयता को इंगित करते हैं, साथ ही कविता की अर्थवत्ता को भी बचाए रखा है: ‘‘कविता होगी तो/बची रहेंगी सारी सम्भावनाएँ’’

     प्रेम आत्मदान और आत्मीयता के सहारे कविता का अंग बनता है। जयप्रकाश मानस की प्रेम कविताओं का फलक व्यापक है। उनकी प्रेम संबंधी कविताएँ सामाजिक दायित्व का निर्वहन भी करती हैं। कविता संग्रह में प्रेम की विविध छवियाँ प्रस्तुत हुई हैं। ‘चिट्ठी: दो कविताएं’, ‘प्यार में’, ‘जिन्होंने नहीं लिखा प्रेम पत्र’ प्रेम पत्र संबंधी कविताएं प्रेम की अनेक व्यंजना प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविता चिट्ठी दो कविताएं’ में स्वर्ग की कामना के बनिस्पत् चिट्ठी के आने को शुभ माना गया है। प्रेमिका के लिए ‘चिट्ठी की अहमियत’ ज्यादा है। कविता प्यार में’ कवि की कामना तस्वीरों के माध्यम से प्रेम के ताप केा जलाए रखना है: ‘‘वर्षो पहले बिछुड़े हुए/उन दोनों की तस्वीरें, एक दूसरे की आंखों में उभरने के बाद’’।

     प्रेम और कविता के अंतःसम्बन्धों की पड़ताल कवि ‘जिन्होंने नहीं लिखा कभी कोई प्रेमपत्र’ कविता में करता है। प्र्रेम मानव मस्तिष्क को नई ऊर्जा उमंगों से आह्लादित करता है, उसी प्रकार कविता को भी नया जीवन प्रदान करने में सहायक है। कोई भी कवि प्रेम के ताप से अछूता नहीं रहता है। मानस जी लिखते हैं कि ‘‘जिन्होंने नहीं लिखा कभी कोई प्रेमपत्र/वे नहीं लिख सकते कविता।’’ उनकी प्रेमपत्र’ कविता पहली कविता का अगला पड़ाव है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि: ‘‘जब न प्रेमी होंगे/न प्रेमिका, और न ही प्रेम/तब भी मौजूद होंगे दोनों, और उनका प्रेम/इन पीले पड़ चुके कागज में/अच्छे समय के दस्तावेज की तरह’’।

     हिन्दी काव्य परंपरा में प्रकृति की भूमिका आरंभ से ही विविध रूपों में विद्यमान रही है। प्रकृति मनुष्य के लिए सर्वथा उपभोग की वस्तु के समान है, उसी प्रकार समय के साथ-साथ उसकी भूमिका भी बदलती रहती है। उत्तर-आधुनिकता के इस दौर में प्रकृति पर मनुष्य का विजय अभियान जारी है। कवि इस अभियान को रोककर मनुष्य को उपभोक्तावादी-संस्कृति से बचाने के प्रति कृतसंकल्प है। ‘छाँव निवासी’ कविता मनुष्य और प्रकृति के संबंधों में आए बदलाव को इंगित करती है: ‘‘धूप की मंशाएँ भांपकर/इधर-उधर, आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ जगह बदलते रहते।’’

     कविता-संग्रह में अनेक कविताएँ यथाः कुछ छोटी कविताएँ, ‘कैसोवरी, हमारे द्वीप में आना मत ‘इधर बहुत दिन हुए’, ‘वन देवता से पूछ लो’, अशेष’ में प्रकृति से लगाव की कविताएं हैं। संग्रह को कविता ‘जो हुआ नहीं पृथ्वी में’ में जीवन के प्रति सकारात्मक भाव कवि की अंतःवैयक्तिक अनुभूति है। जीवनानुभूति की यह दशा समाज में आशावाद का संचार करती है। कवि लिखता है: ‘‘हर भाषा में साफ-साफ देखी जा सके/पृथ्वी की आयु निरंतर बढ़ते रहने की अभिलाषा/ऐसा ही कुछ-कुछ कविता में।’’ मानस की कविता ‘कैसोवरी, हमारे द्वीप में आना मत’ मानव पर पशु की जीत की कविता है। कैसोवरी पक्षी का चिडि़याँ होकर मनुष्य की कविता में आना मनुष्य और पक्षी के साह्चर्यजन्य प्रेम का प्रतीक है। जयप्रकाश मानस की संवेदना इतनी व्यापक है कि यहां सबकुछ के लिए स्थान है, कुछ भी वर्जित और त्याज्य नहीं है: ‘‘कैसोवरी/हम चिडि़याँ होकर भी शामिल हैं/मनुष्य की कविता में देह में हीमोग्लोबिन की तरह।’’

      ग्रामीण परिवेश के साथ लोक-जीवन के बहुरंगी यथार्थ के अनेक चित्र संग्रह की कविताओं में सौंदर्य-बोध के नए प्रतिमान गढ़ते हैं। कवि की कविता का लोक यथार्थ की कड़ी धूप से निःसृत है। क्योंकि वे लोक-जीवन का चित्रण कल्पना-लोक में नहीं करते हैं बल्कि छत्तीसगढ़ी लोक में ढूंढ़ते हैं। छत्तीसगढ़ी जीवन-रेखा नदी के माध्यम से कवि ने मानव और प्रकृति के अंतर्संबंधों और उससे जुड़ी लोकप्रथाओं का मार्मिक चित्रण किया है। ‘नदी’ कविता में लोकजीवन की सहजता को लोक गीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। लोक गीत में पुरखों तक की बात होती है, कवि का आद्य-बिबों के प्रति लगाव मानवीय सरोकार को स्पष्ट करता है। ‘लोक’ कविता में नदी से मानव-प्रकृति के लगाव को कई सरणिओं में प्रस्तुत करता है: ‘‘एक सीधी-सादी/जानी-पहचानी नदी/........../ पारे-पारे में बहती-रहती है हरदम/अपने पारदर्शी जल के साथ।’’

     पारदर्शी जल के साथ नदी की गतिशीलता पवित्रता के साथ जीवन प्रवाह की धारा को इंगित करती है। पवित्रता और गतिशीलता का संगम मानवीय मूल्यों के प्रति आस्थवान समाज को आशावाद की तरफ ले जाता है। समरस समाज निर्माण के प्रति कवि कृतसंकल्पित है। ‘मनौती’ कविता ग्रामीण समाज और नगरीय बोध के आपसी साह्चर्यजन्य प्रेम को समझने के लिए व्यापक फलक तैयार करती है। ग्रामीण समाज की उपयोगिता को कवि स्पष्ट करना चाहता है। साथ ही साथ समाज के नग्न यथार्थ का क्रूर चित्रण भी करता है: ‘‘महिलाएँ मनबोधी फल को, लाख न चाहते हुए भी, शहर में छोड़ आती हैं/नोन, तोप, साबुन के लिए।’’
     
     जयप्रकाश मानस की कविताओं में जीवन के प्रति गहरी आस्था है। जीवन के प्रति गहरी आस्था ‘जीवन के संपूर्ण उपभोग में अगाध विश्वास’ को व्यक्त करती है। ‘एक अदद घर’ कविता गहरी आस्था को व्यक्त करने का माध्यम है। कवि के लिए अदद घर की अहमियत वैयक्तिक आस्था का प्रतीक न होकर अंतर्वैयक्तिक आस्था और विश्वास का नायाब तोहफा है: ‘‘एक अदद घर/समूचे पड़ोस में/सारी गलियों में/सारे गाँव में/पूरी पृथ्वी में।’’

     विरोध-विद्रोह, आक्रोश, विद्रूपता, क्रांति को प्रमुख स्थान देने वाली संग्रह की कविताएँ अनास्थावादी दिखाई देने के बावजूद जन सामान्य के अखंड-विश्वास पर टिकी सास्थावादी कविता हैै। कवि जयप्रकाश मानस मानसिक और भावनात्मक यथार्थ को वस्तुगत यथार्थ के रूप में देखने के प्रति प्रयत्नशील हैं। विचारधारणात्मक स्तर पर कवि आधुनिक भावबोध को स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि आधुनिक-भावबोध को अभिव्यक्त करने के लिए कविता को माध्यम मानता है। कविता-संग्रह की ‘अब जो दिन आएगा’ कविता संपूर्ण जीवन के प्रति लगाव की कविता है: ‘‘सबसे बड़ी बात होगी/अब जो दिन आएगा/नहीं डूबेगा किसी के इशारे पर/सबसे छोटी बात।’’

     मानवीय भाव-बोध की भयावह स्थिति का बोध संग्रह की कविताओं में होता है। समाज में सबसे भयानक परिस्थितियाँ तटस्थ लोगों से उत्पन्न होती है। तटस्थ लोगों से खतरा समाज के लिए अभिशाप है। मानव-मूल्यों के प्रति आस्थावान कवि खंडित मूल्यों के प्रति समाज को सचेत करता है। ‘ठंडे लागे’ कविता इसी वैचारिक मूल्यबोध को स्पष्ट करती है: ‘‘जो नहीं उठाते जोखिम/जो खड़े नहीं होते तनकर/जो कह नहीं पाते बेलाग बात/जो नहीं बचा पाते धूप-छाँह/यदि तटस्थता यही है, तो सर्वाधिक खतरा/तटस्थ लोगों से है।’’

      जयप्रकाश मानस की कविताओं में मानवीय जीवन की ट्रेजडी और काॅमेडी दोनों ही सीधे ढंग से आते हैं। उनकी कविताएँ अपने समय और संदर्भों में मानवीय उपस्थिति और लगाव की कविताएं है। वह बहुआयामी जीवन की सच्चाईयों को बिना लागलपेट के रूपायित करती हैं। ‘खौफ’ कविता में मानव जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी को महसूस किया जा सकता है: ‘‘जाने-पहचाने पेड़ से/फल के बजाए टपक पड़ता है बम/काक-भगोड़ा राक्षस से कहीं ज्यादा खतरनाक।’’

     मृत्यु जीवन की सच्चाई है, परंतु स्वाभाविक मृत्यु। ‘खौफ’ कविता में बम का भय मानवीय संवेदना को झंकृत करता है। ‘खौफ’ मृत्यु से भी भयानक है। ‘खतरा’ कविता खौफ की भयावह स्थितियों को निरूपित करती है। आसन्न खतरे का एहसास कवि मन के अंतर्जगत में व्याप्त भय से है। भय मानव-मन को सर्वाधिक बेचैेन करता है: ‘‘खतरा यादे हीं है तो/मन में घात लाए बैठे/घुसपैठिये से/भय से।’’
    
     शहरी बुद्धिजीवी और आदिवासी समाज के वैचारिक द्वन्द्व को ‘वनवासी गमकता रहे’ कविता में दिखाया गया है। शहरी बुद्धिजीवी कमरे में रहकर हमेशा उधेड़बुन में पड़ा रहता है। मानसिक अंतद्र्वन्द्व की भयावह परिस्थितियों से कवि रू-ब-रू है। शहरी बुद्धिजीवी के विपरीत साधनहीन आदिवासी समाज के लोग सहजता और सादगी को समेटे हुए मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील हैं। साठ के दशक के बाद आए परिवर्तन के बाद शहरी मध्यवर्ग की जीवन शैली में अनगढ़ता विद्यमान हो गई है। इस मनःस्थितियों में आए बदलाव के पीछे पूंजीवाद का परोक्ष रूप से हाथ है। कविता के माध्यम से कवि आदिवासी जीवन-शैली का समर्थन करता है: ‘‘आदिवासी नहीं जानता/सभ्यता को पढ़ने की चतुर भाषा/विचारशीलता के बिंब भी/होते नहीं उनके पास/फिर भी ताउम्र चाहता हूँ/आदिवासी गमकता रहे।’’

     जयप्रकाश मानस की कविता का सारा दृष्टिकोण आधुनिक है। आधुनिक दृष्टि का संदर्भ नए मूल्यों के लिए विकलता और संवेदना से है। इसी दृष्टि से संग्रह की कविताएं आज के तनावों, सार्वभौम संकट, मनुष्य की पीड़ा और उसकी नगण्यता तथा गरिमा से जुड़ती हैं। कवि संग्रह के माध्यम से चेतना के विस्तृत धरातल पर उतरकर मानवीय परिस्थितियों और प्रकृति के अनेक उपादानों को रूपायित करता है। कवि घनघोर निराशा के वातावरण में कविता के पुराने मानदण्डों को तोड़कर कविता के लिए नई जमीन तैयार करता है, साथ ही समाज के भीतर कविता के सम्मान के लिए संघर्षरत रहने का फैसला करता है।

अबोले के विरुद्ध/जयप्रकाश मानस/शिल्पायन, 10295,
लेन नं.-1, वेस्ट गोरखपार्क, दिल्ली-110032, मूल्य- रु. 175

 त्रिपुरा विश्वविद्यालय
अगरतला
मो. 9389140751

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