Tuesday, February 17, 2015

नालमेकभाष्या (One language is never enough)

दाऊदी बोहरा समाज के ५२ वें धर्मगुरू डॉ. सय्येदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन साहब की पुण्यतिथि पर एवं उनके पुत्र ५३ वें धर्मगुरू सय्येदना आलिक़द्र मुफद्दल सैफुद्दिन द्वारा गद्दी पर बिराजमान की पहले साल के अवसर पर ये कविता प्रस्तुत है -
नालमेकभाष्या

(One language is never enough)

भावनाओं की परिभाषा ने जब,
जताना चाहा शब्दों से
इस राष्ट्र की हर भाषा ने तब,
हाथ उठा दिये मेरे जज़्बातों से

मैं रह गया लफ़्ज़ों का मोहताज,
मेरे जज़्बात न भीतर उतर पाते थे,
ना ज़ुबान से शब्द निकल आते थे,
बस आँसू बनकर लहू को जलाते थे
इस राष्ट्र की हज़ारो रंगीन भाषाओं ने,
कर दिया था मुझे मिलकर ग़रीब 
मैं तो मोहताज सा हो गया एक लफ्ज़ का,
जो बता सके मैं कितना हो गया था अजीब

मेरे स्वर्गवास मौला की अमर यादों ने,
जो मुझे जीने का सहारा दिया
उसी के बलबूते पर मैं मौला मुफद्दल से,
राज निष्ठित होके मोक्ष प्रतीक्षित हुआ

उस कोमल अवधि में,
जब शब्दों का सूखा पड़ा था,
चारों ओर आँसुओ की बाढ़ थी,
तब एक देदीप्यमान व ईश्वरतुल्य मुख ने,
ऐसी दृष्टि घुमाई हम सब पर,


कि सारी तकलीफ़ें और कठिनाइयाँ,
कहाँ वंचित हो गई,
मैं अब भी अचंब हूँ
और ढूँढ रहा हूँ

ढूँढ रहा हूँतकलीफों को नहीं,
मगर उस एक पुरुष को,
जो ये बता सके के ये तकलीफें,
कहाँ चली जाती हैं

आज पता तो चल गया,
कि तकलीफें कहाँ जाके मेला लगाई हुई हैं,
मगर उस विषय में, मेरा यहा बतियाना,
उचित नहीं लगता,
जहाँ धर्मपरायण परिवेश में,
फिरिश्तों का आना-जाना प्रारंभ है

जहाँ शब्द हो जाते हैं निष्फल,
वहाँ जज़्बात ही काम आते हैं
जहाँ प्रभु दिल से सुनते हैं,
वहाँ तो शब्दों के चरावें भी स्वीकार हो जाते हैं

अमर रहे उनकी यादें,
और वारिस उनके रहे अम्लान
हुज़ैफा उनके प्रेम में रहे मगन,
वही तो है उसका वास्तविक सम्मान

हुज़ैफा हरयाणावाला
मुंबई


  February 2015  

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