आलेख
दलितोद्धार और दलितों के विकास में अडचनें
- रेजी जोसफ
दलित शब्दांतर्गत समाविष्ट आशय के अनुसार कुचले हुए शोषित
जनों के जीवन कहानी उतनी ही प्राचीन है जितनी भारतीय हिन्दु संस्कृति । समाज रूपी
शरीर में सबसे ऊँचा स्थान ब्राह्मण का था। ज्ञान - दान उसका काम था, रक्षक क्षत्रिय था, कृषक वैश्य था और
सबसे नीचे तल में शूद्र था जिसका कार्य सभी की सेवा ही था। दलित शब्द विशिष्ट वर्ग
का वाचक है जिससे उपेक्षित जातियों का परिचय होता है। स्वतंत्रता के पहले दलितों
का जीवन शोचनीय था। शोषक और अन्यायी उच्च वर्ण पर प्रहार करने केलिए कई दलित विचारक
और समाज सुधारक पैदा हुए। उन्होंने दलितों पर शोषण करने वाले उच्च वर्ग पर चोट
करके दलितों को अपने अधिकारों से परिचय
कराने का प्रयास किया। उन्हें यह भी समझाया कि जातिभेद,
वर्णभेद और ऊँच - नीच का निर्माण ईश्वर ने नहीं किया बल्कि मतलबी मनुष्य ने। महात्मा
गांधी, डा. बाबा साहब अम्बेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले आदि का कार्य इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता
के पश्चात राज्य सरकारों ने दलितों के उद्धार केलिए समय समय पर अनेक कानून पारित
किए। असल में दलितों को अपनी उन्नति की रास्ता स्वयं खोजना है । उन्हें किसी के
सामने हाथ न फैलाना है और अपने बलबूते पर स्वउद्धार का प्रयत्न करना है। ज्ञातव्य
है कि दलितों के हितों की रक्षा, सामाजिक उन्नति और समाज में अधिकारों की प्रप्ति के लिए अब आवश्यक
प्रबन्ध किया गया है। शिक्षित, अशिक्षित, बेकार और दलित लोगों को व्यवसाय चलाने केलिए बैंक से कर्ज लेने की व्यवस्था
की गयी है। आरक्षण देकर सरकारी नौकरियों में उनके उद्धार का भी प्रबन्ध किया गया
है। आज के साहित्य में दलितों की वर्तमान स्थिति का चित्रण हो रहा है। जब तक दलित
स्वयं जाग्रत नहीं होता तब तक उनका विकास संभव नहीं है। वे जन्म से ही अपवित्र हैं, जन्म पर अपवित्र रहते हैं और अपवित्र रूप में मरते हैं। स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद बने संविधान के अनुसार धर्म, वंश, जाति और लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक से भेद्भाव रखना अपराध माना गया।
दूकान, कुएँ, पनघट, तालाब, मंन्दिर आदि सभी लोगों केलिए खुले किये गये।
पिछडी हुई जातियों केलिए संसद और विधान परिषद में सीटें आरक्षित की गयीं। सरकरी नौकरियों
में सीटें आरक्षित रखीं। अस्पृश्यता को नष्ट करने केलिए कनून में दण्ड का प्रबंध
किया गया। मंदिर प्रवेश तथा दलित सामाजिक अन्याय निवारक कानून भी पास किये गये।
खेद की बात है कि सभी कार्य सिर्फ कानून से संभव नहीं होते।
वह एक साधन मात्र है। इन कानूनों को सौ प्रतिशत अमल करने केलिए ईमान्दारी की जरूरत
है। कहने का मकसद यह है कि कानून के साथ ही साथ मानसिक बदलाव, परिवर्तन एवं सामाजिक मान्याता की भी आवश्यकता है। ज्ञातव्य
है कि जब तक समाज के सभी स्तर के लोगों में एकता, समता और
मानवता का भाव उत्पन्न नहीं होता, तब तक ये कानून और कायदे
कागज पर रहेगी। दलितों के सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक चेतना जाग़्रति में
महात्मागाँधी, महात्मा फुले, गोपालकृष्ण
गोखले, डा. भीमराव अंबेडकर आदि समाज
सुधारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संतों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से
मनुष्य में ही ईश्वर को देखने का संन्देश दिया और मानव धर्म की स्थापना की। महात्मा
फुले ने ‘सत्शोधक’ समाज की स्थापना
करके समाज परिवर्तन को एक नई दिशा दी। उन्होंने अछूतों केलिए अपना कुआँ खुला करके
पानी दे दिया। नारी शिक्षा और अछूतों की शिक्षा केलिए पाठशालायें खोलीं क्योंकि वे
जानते थे कि जब तक दलित समाज शिक्षित नहीं होता तब तक उनका विकास संभव नहीं है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था का एक अंग दलित है। व्यक्ति के
विकास से समाज का विकास होता है और पूरे समाज के विकास होने पर ही पूरे देश का
विकास संभव है। यही विकास का सूत्र है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के सभी सरकारों
ने देश को विकास के पथ पर अग्रसर कराने का प्रयास किया। विज्ञान, कृषि, शिक्षा, चिकित्सा, संचार आदि सभी क्षेत्रों में देश का विकास हुआ लेकिन क्या यह विकास समाज
के निम्न स्तर तक पहुँचा है ? पिछडे और दलित लोगों तक विकास
योजनाएँ कहाँ तक पहुँचीं ? नगर, महानगर, गाँव और बस्ती में रहनेवाले दलित अलग अलग ढंग से अपने जीवन जीते हैं।
नगरों में रहनेवाले दलित मानते हैं कि गाँव में रहनेवाले दलित अशिक्षित होने के
नाते उनसे दूर रहना है। जो दलित पढा लिखा है, वह अपने स्वजाति
के अन्य दलितों से अलगाव रखते हैं और उनकी अज्ञानता को मिटाने की कोशिश नहीं करते।
इसी मानसिकता के कारण दलित समाज हमेशा विकास के पथ से हमेशा दूर रहते।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में प्राचीन काल में शूद्र और नारी
को शिक्षा का अधिकार नहीं था। उन्हें पाठशाला के बाहर बैठाया जाता था। वे आज भी
अशिक्षित हैं और शिक्षा संबंधी सुविधाओं से वंचित हैं। इससे सरकार के द्वारा किये
जानेवाले विकास योजनाओं का फायदा उठा नहीं पाते। दलितों का विश्वास है कि प्रत्येक
सुख-दुख ईश्वर से निश्चित है। बीमारी हटाने, मनोकामना की पूर्ति, संकट से मुक्ति आदि हर एक
आवश्यकता की पूर्ति केलिए वे अंधविश्वासों के पीछे दौड-धूप करते हैं। नतीजा यह
निकलता है कि अंधविश्वास उनके जीवन के अभिन्न अंग बन जाते और जीवन दूभर हो जाता
है। अज्ञानी और अंधश्रद्ध दलित समाज में चेतना का अभाव है। वे अपने अधिकार और हक
के बारे में अनभिज्ञ और उदासीन हैं। जो कुछ हम में नहीं हैं उन्हें पाने और जो कुछ
हैं उन्हें सुरक्षित रखने की चेतना जाग्रत करने पर ही दलित समाज अन्य जन जातिओं की
तरह उन्नति के पथ पर अग्रसर हो जायेंगे। वे पुरानी मान्यताओं पर अटके रहने से नये
विचारों को स्वीकार नहीं कर पाते। आज के राजनीतिज्ञ अपनी स्वार्थता की पूर्ति केलिए दलितों को
संगठित करते हैं और वे उन्हें ‘वोट बैंक’ के हिसाब से नापते हैं। ऐसी स्वार्थी और कपटी रजनीतिज्ञ दलितों के विकास
में अडचन पैदा करते हैं।
स्पष्ट है कि दलितों का जीवन समस्यावों और अभावों में अटका
हुआ है। जातीय भेद- भाव, अज्ञान, अवैध संबंध, रूढीपरंपरा, कमजोर
मानसिकता, संगठन और नेतृत्व की कमी आदि के कारण वे पिछ्डे
रहते हैं। प्रत्येक सरकार दलितों के विकास केलिए कार्यरत है परंतू सभी लाभान्वित
नहीं हो रहे हैं। सरकार की उदार नीति, जनसंगठन, समाजसेवी संस्थाओं का सहयोग, दलित नेतावों की
सेवावृत्ति आदि के बल पर सभी समस्याएँ हल हो जायेंगी। शिक्षा प्रसार की सुविधाओं को
अपनाने से वे अपने अधिकार केलिए संघर्ष करने लगे हैं। दलित नारी शोषण को पहचानकर
आवाज बुलन्द करने लगी है। अज्ञान, अशिक्षा और नशापान से
पीडित दलित आज उनसे कोसों दूर हैं। स्वास्थ्य की सुविधा प्राप्ति से उनका जीवन
परिवर्तित हो रहा है। भ्रष्टाचार, भूख,
बेकारी जैसी समस्याएँ दिन-ब-दिन कम हो रही हैं। अज्ञान और अशिक्षा के शिकार दलितों
में शिक्षा - प्रसार और शिक्षा के प्रति जाग्रति पैदा करके हम उनकी दयनीय हालत को
नये मोड दे सकते हैं।
संदर्भ
ग्रंथ -
1. दलित चिंतन के विविध आयाम – डा. एन सिंह ।
2. दलित चेतना
और समकालीन हिंदी उपन्यास – डा. मुन्ना तिवारी ।
3. हिंदी उपन्यासों में दलित जीवन – डा.शम्भूनाथ
।
रेजी
जोसफ, कर्पगम विश्वविदयालय,
कोयम्बतूर, तमिलनाडु में डा. के. पी. पद्मावति अम्मा के
निर्देशन में पीएच.डी.उपाधि केलिए शोधरत हैं।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-11-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1796 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार