Sunday, November 23, 2014

लखनऊ में संपन्न हुआ चौथा नवगीत महोत्सव

लखनऊ में संपन्न हुआ चौथा नवगीत महोत्सव




पूर्णिमा वर्मन 
लखनऊ : विभूति खण्ड स्थित 'कालिन्दी विला’ के परिसर में दो दिवसीय 'नवगीत महोत्सव - 2014' का शुभारम्भ 15 नवम्बर की सुबह 8 : 00 बजे हुआ। 'अनुभूति', 'अभिव्यक्ति' एवं 'नवगीत की पाठशाला' के माध्यम से वेब पर नवगीत का व्यापक प्रचार-प्रसार करने हेतु प्रतिबद्ध 'अभिव्यक्ति विश्वम' द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम न केवल अपनी रचनात्मकता एवं मौलिकता के लिए जाना जाता है, बल्कि नवगीत के शिल्प और कथ्य के विविध पहलुओं से अद्भुत परिचय कराता है। ख्यातिलब्ध सम्पादिका पूर्णिमा वर्मन जी एवं प्रवीण सक्सैना जी के सौजन्य से आयोजित यह कार्यक्रम पिछले चार वर्षों से लखनऊ में सम्पन्न हो रहा है। 

आर्ट गैलरी का एक दृश्य 
कार्यक्रम का शुभारम्भ देश-विदेश से पधारे नए-पुराने साहित्यकारों की उपस्थिति में वरिष्ठ नवगीतकार श्रद्धेय सर्वश्री कुमार रवीन्द्र, राम सेंगर, धनन्जय सिंह, बुद्धिनाथ मिश्र, निर्मल शुक्ल, राम नारायण रमण, शीलेन्द्र सिंह चौहान, बृजेश श्रीवास्तव, डॉ. अनिल मिश्र एवं जगदीश व्योम के द्वारा माँ सरस्वती के समक्ष दीप-प्रज्ज्वलन से हुआ।  

प्रथम सत्र में चर्चित चित्रकार-प्राध्यापक डॉ राजीव नयन जी ने शब्द-रंग पोस्टर प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। नए-पुराने नवगीतकारों के गीतों पर आधारित यह पोस्टर प्रदर्शनी आगंतुकों के लिए आकर्षण का केंद्र रही। ये पोस्टर पूर्णिमा वर्मन, रोहित रूसिया, विजेंद्र विज एवं अमित कल्ला द्वारा तैयार किये गए थे।

तदुपरांत देश भर से आमंत्रित आठ नवोदित रचनाकारों के दो-दो नवगीतों का पाठ हुआ। इस सत्र में पवन प्रताप सिंह, सुवर्णा दीक्षित, विजेन्द्र विज, अमित कल्ला, प्रदीप शुक्ल, सीमा हरिशर्मा, हरिवल्लभ शर्मा एवं संजीव सलिल का रचना पाठ हुआ, जिस पर वरिष्ठ नवगीतकारों के एक पैनल, जिसके सदस्य श्रद्धेय सर्वश्री कुमार रवीन्द्र, राम सेंगर, धनन्जय सिंह, बृजेश श्रीवास्तव एवं पंकज परिमल थे, ने अपने सुझाव दिए। इस अवसर पर श्रद्धेय कुमार रवीन्द्र जी ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में नवगीत में नवता को लेकर व्याप्त भ्रम को दूर करते हुए कहा कि शाब्दिकता तथा संप्रेषणीयता के बीच तारतम्यता के न टूटने देने के प्रति आग्रही होना नवगीतकारों का दायित्व है। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्रद्धेय राम सेंगर जी ने नवगीत महोत्सव को उत्सव बताते हुए कहा है कि इस प्रकार की कार्यशालाएं युवा रचनाकारों के रचनात्मक व्यकितत्व के विकास तथा उनमें नवगीत की समझ बढाने में सहायक होंगी। इस सत्र का सफल संचालन जगदीश व्योम जी ने किया



कुमार रवींद्र 


राम सेंगर 

धनञ्जय सिंह 


बुद्धिनाथ मिश्र
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में लब्धप्रतिष्ठित गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र का 'गीत और नवगीत में अंतर' शीर्षक पर व्याख्यान हुआ। आपका कहना था कि नवगीत का प्रादुर्भाव हुआ ही इसलिये था कि एक ओर हिन्दी कविता लगातार दूरूह होती जा रही थी, और दूसरी ओर हिन्दी साहित्य में शब्द-प्रवाह को तिरोहित किया जाना बहुत कठिन था। अतः नवगीत नव-लय-ताल-छंद और कथ्य के साथ सामने आया।

कार्यक्रम के तीसरे सत्र में देश भर से आये वरिष्ठ नवगीतकारों द्वारा नवगीतों का पाठ हुआ। इस सत्र के प्रमुख आकर्षण रहे - श्रद्धेय कुमार रवीन्द्र, राम सेंगर, अवध बिहारी श्रीवास्तव, राम नारायण रमण, श्याम श्रीवास्तव, ब्रजेश श्रीवास्तव, शीलेन्द्र सिंह चौहान, डॉ मृदुल, राकेश चक्र, जगदीश पंकज एवं अनिल मिश्रा। कार्यक्रम के अध्यक्ष कुमार रवीन्द्र जी  एवं मुख्य अतिथि राम सेंगर जी रहे। मंच संचालन अवनीश सिंह चौहान ने किया।

कार्यक्रम के प्रथम दिवस का समापन सांस्कृतिक संध्या से हुआ, जिसमें रोहित रूसिया, अमित कल्ला, रामशंकर वर्मा, सुवर्णा दीक्षित, सौम्या आशीष एवं आशीष (अभिनय एवं स्वर), विजेंद्र विज (फिल्म निर्माण), सृष्टि श्रीवास्तव (कत्थक नृत्य), सम्राट आनन्द, रजत श्रीवास्तव, मयंक सिंह एवं सिद्धांत सिंह (संगीत), अमित कल्ला (लोक गीत एवं संगीत) ने अपनी आकर्षक एवं मधुर प्रस्तुतियाँ दीं। इस सत्र में कुछ नवगीतों को माध्यम बनाकर नवोदित रचनाकारों द्वारा एक नाटिका प्रस्तुत की गयी और इसके तुरंत बाद फिल्म, गणेश वंदना, भजन, कत्थक नृत्य, लोक गीत, राजस्थानी संगीत आदि की प्रस्तुतियों ने सबका मन मोह लिया। उपस्थित रचनाकारों/काव्यरसिकों/अतिथियों ने इस सांस्कृतिक संध्या की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस सत्र का सफल संचालन रोहित रूसिया ने किया।

 दूसरा दिन

'नवगीत महोत्सव 2014’ का दूसरा दिन भी काफी महत्वपूर्ण रहा। अकादमिक शोधपत्रों के वाचन के सत्र में नवगीत विधा पर प्रकाश डालते हुए विद्वानों ने नवगीत आंदोलन, दशा और दिशा, संरचना एवं सम्प्रेषण, चुनौतियाँ आदि विषयों पर व्यापक चर्चा की। वरिष्ठ गीतकवि राम सेंगर जी ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में नवगीत दशक और डॉ शम्भुनाथ सिंह जी  से जुड़े अनुभव साझा किये। उन्होंने बताया कि नवगीत दशक को प्रकाशित करने की योजना 1962 में बनी थी, किन्तु वह बहुत बाद में पुस्तकाकार हो सकी। श्रद्धेय डॉ शम्भुनाथ सिंह जी के निर्देशन में उन्होंने स्वयं नवगीत दशक -एक, दो, तीन की पांडुलिपियों को अपनी हस्तलिपि में तैयार किया था। 'नवगीत की दशा और दिशा’ विषय पर अपना वक्तव्य देते हुए डॉ. धनन्जय सिंह जी ने कहा कि नवगीत संज्ञा नहीं वस्तुतः विशेषण है। आजकी मुख्य आवश्यकता शास्त्र की जड़ता से मुक्ति है, न कि शास्त्र की गति से मुक्ति। 'नवगीत : सरंचना एवं सम्प्रेषण' पर मधुकर अष्ठाना जी की उद्घोषणा थी कि नवगीत आज भी प्रासंगिक एवं गीतकवियों की प्रिय विधा है। 'रचना के रचाव तत्व’ पर बोलते हुए पंकज परिमल जी ने कहा कि शब्द, तुक, लय, प्रतीक मात्र से रचना नहीं होती, बल्कि रचनाकार को रचाव की प्रक्रिया से भी गुजरना होता है। रचाव के बिना भाव शाब्दिक भले हो जायें, रचना नहीं हो सकते। जगदीश व्योम ने 'नयी कविता तथा नवगीत के मध्य अंतर' को रेखांकित करते हुए कहा कि रचनाओं में छंद और लय का अभाव हिन्दी रचनाओं के लिए घातक सिद्ध हुआ। कविताओं के प्रति पाठकों की  अन्यमन्स्कता का मुख्य कारण यही रहा कि कविताओं से गेयता निकल गयी। द्वितीय दिवस का यह सत्र अकादमिक शोधपत्रों के वाचन के तौर पर आयोजित हुआ था, जिसके अंतर्गत वक्ताओं से अन्य नवगीतकार प्रश्न पूछकर समुचित उत्तर प्राप्त कर सकते थे। इस सत्र का मंच संचालन अवनीश सिंह चौहान ने किया था।

प्रथम सत्र के तुरंत बाद सभी नवगीतकारों/ साहित्यकारों को अभिव्यक्ति विश्वम द्वारा परिकल्पित 'सांस्कृतिक भवन' के निर्माण स्थल पर बस और कारों से ले जाया गया जहाँ उन्हें पूर्णिमा जी ने भावी योजनाओं की जानकारी दी। साथ ही पूर्णिमा जी के आदरणीय पिताजी आदित्य कुमार वर्मन जी ने भवन निर्माण और वास्तुशिल्प की गहरी जानकारी दी।

'चोंच में आकाश’ का लोकार्पण करते साहित्यकार 
भोजनावकाश के बाद दूसरे सत्र में विभिन्न प्रकाशनों से प्रकाशित कुल दो नवगीत-संग्रहों एवं एक संकलन का लोकार्पण हुआ। ये पुस्तकें थीं - चर्चित रचनाकार पूर्णिमा वर्मन जी का नवगीत-संग्रह 'चोंच में आकाश’रोहित रूसिया का नवगीत-संग्रह 'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ एवं डॉ. महेन्द्र भटनागर पर केंद्रित पुस्तक 'दृष्टि और सृष्टि।’ तदुपरांत विभिन्न विद्वानों ने छः कृतियों पर अपने विचार व्यक्त किये।  रोहित रूसिया के नवगीत-संग्रह 'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ पर डॉ. गुलाब सिंह की भूमिका को वीनस केसरी ने प्रस्तुत किया।चर्चित रचनाकार पूर्णिमा वर्मन जी के नवगीत-संग्रह 'चोंच में आकाश’ पर आचार्य संजीव सलिल ने समीक्षा प्रस्तुत की। ओमप्रकाश तिवारी के नवगीत-संग्रह 'खिड़कियाँ खोलो’ पर सौरभ पाण्डेय ने अपने विचार रखे।  चर्चित कवि यश मालवीय के संग्रह 'नींद काग़ज़ की तरह’ पर वरिष्ठ साहित्यकार निर्मल शुक्ल जी ने अपना वक्तव्य दिया। निर्मल शुक्ल जी के नवगीत-संग्रह 'कुछ भी नहीं असंभव’ पर वरिष्ठ गीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने समीक्षा प्रस्तुत की। वरिष्ठ गीतकार डॉ. महेन्द्र भटनागर पर केंद्रित पुस्तक 'दृष्टि और सृष्टि’ पर बृजेश श्रीवास्तव ने समीक्षा प्रस्तुत की। सभी समीक्षकों ने उपर्युक्त नवगीत-संग्रहों एवं संकलन के भाव तथा शिल्प पक्षों पर खुल कर अपनी बात रखी। इस सत्र का संचालन अवनीश सिंह चौहान ने किया।


प्रवीण सक्सैना 

'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ का लोकार्पण 



तीसरे सत्र से पूर्व अभिव्यक्ति-अनुभूति संस्था की ओर से अवनीश सिंह चौहान (इटावा) को उनके नवगीत संग्रह 'टुकड़ा काग़ज़ का’कल्पना रामानी (मुम्बई) को उनके काव्य संग्रह 'हौसलों के पंख’ तथा रोहित रूसिया (छिंदवाड़ा) को 'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ के लिए सम्मानित तथा पुरस्कृत किया गया। पुरस्कार स्वरुप इन सभी को ११०००/- (ग्यारह हज़ार) रुपये, प्रशस्ति पत्र एवं स्मृति चिन्ह प्रदान किया गया। इस कार्यक्रम में कल्पना रामानी अस्वस्थ होने के कारण उपस्थित नहीं हो सकीं, इसलिए उनका पुरस्कार लेने के लिए संध्या सिंह को मंच पर आमंत्रित कर लिया गया। इस सत्र का सफल संचालन जगदीश व्योम जी ने किया


तीसरे सत्र में आयोजन की परिपाटी के अनुसार सबसे पहले आमंत्रित रचनाकारों ने अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ किया। इस वर्ष के आमंत्रित कवियों में चेक गणराज्य से पधारे डॉ. ज्देन्येक वग्नेरनिर्मल शुक्ल, वीरेन्द्र आस्तिक, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग, शैलेन्द्र शर्मा, पंकज परिमल तथा जयराम जय थे।
इनके अतिरिक्त इस सत्र में श्रद्धेय कुमार रवींद्र जी, धनञ्जय सिंह जी, कमलेश भट्ट कमल जी, ब्रजेश श्रीवास्तव, राकेश चक्र, अनिल वर्मा, पूर्णिमा वर्मन, मधु प्रधान, जगदीश व्योम, सौरभ पांडे, अवनीश सिंह चौहान, रामशंकर वर्मा, रोहित रूसिया, प्रदीप शुक्ला, संध्या सिंह, शरद सक्सेना, आभा खरे,  वीनस केसरी आदि ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। मंच का सफल सञ्चालन श्रद्धेय धनञ्जय सिंह जी ने किया। 

आदरणीय यज्ञदत्त पण्डित, प्रभा वर्मन, निर्मल शुक्ल, वीरेन्द्र आस्तिक, चन्द्रभाल सुकुमार, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', पारसनाथ गोवर्धन, सुरेश उजाला, राजेश परदेशी, शैलेन्द्र शर्मा, अनिल वर्मा, मधु प्रधान, महेंद्र भीष्म, सौरभ पाण्डेय, ओम प्रकाश तिवारी, श्रीकान्त मिश्र कान्त, राकेश चक्र, संध्या सिंह, रश्मि, शरद सक्सेना, जयराम जय, आभा खरे, वीनस केसरी, राहुल देव सहित शहर के कई साहित्यकार, विद्वान, गणमान्य व्यक्ति आदि मौजूद रहे। फोटोग्राफी एवं फिल्मांकन में आशीष, रोहित रूसिया, विजेंद्र विज, राम शंकर वर्मा, श्रीकांत मिश्र कांत, वीनस केसरी और न्यूज़ मेकिंग और कम्पोज़िंग में सौरभ पाण्डे विशेष सहयोगी रहे। इस अवसर पर पूर्णिमा वर्मन जी ने सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि गीत भारतीय काव्य का मूल स्वर है, इसके प्रचार प्रसार में हिन्दी भाषा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार की असीम संभावनाएँ छुपी हुई हैं। इसे बचाए रखना और इसका विकास करना हमारा उत्तरदायित्व होना चाहिये। अन्य विद्वानों द्वारा नवगीत विधा के बहुमुखी विकास की संभावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही 'नवगीत महोत्सव 2014’ का विधिवत समापन हुआ।

Saturday, November 15, 2014

कविता - श्रेयस्

कविता

श्रेयस्






महेंद्र भटनागर
सृष्टि में वरेण्य
एक-मात्र
स्नेह-प्यार भावना!
मनुष्य की
मनुष्य-लोक मध्य,
सर्व जन-सृष्टि मध्य
राग-प्रीति भावना!
समस्त जीव-जन्तु मध्य
अशेष हो
मनुष्य की दयालुता!
यही
महान श्रेष्ठतम उपासना!
विश्व में
हरेक व्यक्ति
रात-दिन / सतत
यही करे
पवित्र प्रकर्ष साधना!
व्यक्ति-व्यक्ति में जगे
यही
सरल-तरल अबोध निष्कपट
एकनिष्ठ चाहना!
*
मो॰ 81097 30048

-- 



*महेंद्रभटनागर*



DR. MAHENDRA BHATNAGAR

Wednesday, November 12, 2014

दलितोद्धार और दलितों के विकास में अडचनें

आलेख


दलितोद्धार और दलितों के विकास में अडचनें 


                                                    - रेजी जोसफ

दलित शब्दांतर्गत समाविष्ट आशय के अनुसार कुचले हुए शोषित जनों के जीवन कहानी उतनी ही प्राचीन है जितनी भारतीय हिन्दु संस्कृति । समाज रूपी शरीर में सबसे ऊँचा स्थान ब्राह्मण का था। ज्ञान - दान उसका काम था, रक्षक क्षत्रिय था, कृषक वैश्य था और सबसे नीचे तल में शूद्र था जिसका कार्य सभी की सेवा ही था। दलित शब्द विशिष्ट वर्ग का वाचक है जिससे उपेक्षित जातियों का परिचय होता है। स्वतंत्रता के पहले दलितों का जीवन शोचनीय था। शोषक और अन्यायी उच्च वर्ण पर प्रहार करने केलिए कई दलित विचारक और समाज सुधारक पैदा हुए। उन्होंने दलितों पर शोषण करने वाले उच्च वर्ग पर चोट करके  दलितों को अपने अधिकारों से परिचय कराने का प्रयास किया। उन्हें यह भी समझाया कि जातिभेद, वर्णभेद और ऊँच - नीच का निर्माण ईश्वर ने नहीं किया बल्कि मतलबी मनुष्य ने। महात्मा गांधी, डा. बाबा साहब अम्बेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले आदि का कार्य इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के पश्चात राज्य सरकारों ने दलितों के उद्धार केलिए समय समय पर अनेक कानून पारित किए। असल में दलितों को अपनी उन्नति की रास्ता स्वयं खोजना है । उन्हें किसी के सामने हाथ न फैलाना है और अपने बलबूते पर स्वउद्धार का प्रयत्न करना है। ज्ञातव्य है कि दलितों के  हितों की रक्षा, सामाजिक उन्नति और समाज में अधिकारों की प्रप्ति के लिए अब आवश्यक प्रबन्ध किया गया है। शिक्षित, अशिक्षित, बेकार और दलित लोगों को व्यवसाय चलाने केलिए बैंक से कर्ज लेने की व्यवस्था की गयी है। आरक्षण देकर सरकारी नौकरियों में उनके उद्धार का भी प्रबन्ध किया गया है। आज के साहित्य में दलितों की वर्तमान स्थिति का चित्रण हो रहा है। जब तक दलित स्वयं जाग्रत नहीं होता तब तक उनका विकास संभव नहीं है। वे जन्म से ही अपवित्र हैं, जन्म पर अपवित्र रहते हैं और अपवित्र रूप में मरते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बने संविधान के अनुसार धर्म, वंश, जाति और लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक से भेद्भाव रखना अपराध माना गया। दूकान, कुएँ, पनघट, तालाब, मंन्दिर आदि सभी लोगों केलिए खुले किये गये। पिछडी हुई जातियों केलिए संसद और विधान परिषद में सीटें आरक्षित की गयीं। सरकरी नौकरियों में सीटें आरक्षित रखीं। अस्पृश्यता को नष्ट करने केलिए कनून में दण्ड का प्रबंध किया गया। मंदिर प्रवेश तथा दलित सामाजिक अन्याय निवारक कानून भी पास किये गये।
खेद की बात है कि सभी कार्य सिर्फ कानून से संभव नहीं होते। वह एक साधन मात्र है। इन कानूनों को सौ प्रतिशत अमल करने केलिए ईमान्दारी की जरूरत है। कहने का मकसद यह है कि कानून के साथ ही साथ मानसिक बदलाव, परिवर्तन एवं सामाजिक मान्याता की भी आवश्यकता है। ज्ञातव्य है कि जब तक समाज के सभी स्तर के लोगों में एकता, समता और मानवता का भाव उत्पन्न नहीं होता, तब तक ये कानून और कायदे कागज पर रहेगी। दलितों के सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक चेतना जाग़्रति में महात्मागाँधी, महात्मा फुले, गोपालकृष्ण गोखले, डा. भीमराव अंबेडकर आदि समाज सुधारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संतों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से मनुष्य में ही ईश्वर को देखने का संन्देश दिया और मानव धर्म की स्थापना की। महात्मा फुले ने सत्शोधक समाज की स्थापना करके समाज परिवर्तन को एक नई दिशा दी। उन्होंने अछूतों केलिए अपना कुआँ खुला करके पानी दे दिया। नारी शिक्षा और अछूतों की शिक्षा केलिए पाठशालायें खोलीं क्योंकि वे जानते थे कि जब तक दलित समाज शिक्षित नहीं होता तब तक उनका विकास संभव नहीं है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था का एक अंग दलित है। व्यक्ति के विकास से समाज का विकास होता है और पूरे समाज के विकास होने पर ही पूरे देश का विकास संभव है। यही विकास का सूत्र है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के सभी सरकारों ने देश को विकास के पथ पर अग्रसर कराने का प्रयास किया। विज्ञान, कृषि, शिक्षा, चिकित्सा, संचार आदि सभी क्षेत्रों में देश का विकास हुआ लेकिन क्या यह विकास समाज के निम्न स्तर तक पहुँचा है ? पिछडे और दलित लोगों तक विकास योजनाएँ कहाँ तक पहुँचीं ? नगर, महानगर, गाँव और बस्ती में रहनेवाले दलित अलग अलग ढंग से अपने जीवन जीते हैं। नगरों में रहनेवाले दलित मानते हैं कि गाँव में रहनेवाले दलित अशिक्षित होने के नाते उनसे दूर रहना है। जो दलित पढा लिखा है, वह अपने स्वजाति के अन्य दलितों से अलगाव रखते हैं और उनकी अज्ञानता को मिटाने की कोशिश नहीं करते। इसी मानसिकता के कारण दलित समाज हमेशा विकास के  पथ से हमेशा दूर रहते।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में प्राचीन काल में शूद्र और नारी को शिक्षा का अधिकार नहीं था। उन्हें पाठशाला के बाहर बैठाया जाता था। वे आज भी अशिक्षित हैं और शिक्षा संबंधी सुविधाओं से वंचित हैं। इससे सरकार के द्वारा किये जानेवाले विकास योजनाओं का फायदा उठा नहीं पाते। दलितों का विश्वास है कि प्रत्येक सुख-दुख ईश्वर से निश्चित है। बीमारी हटाने, मनोकामना की पूर्ति, संकट से मुक्ति आदि हर एक आवश्यकता की पूर्ति केलिए वे अंधविश्वासों के पीछे दौड-धूप करते हैं। नतीजा यह निकलता है कि अंधविश्वास उनके जीवन के अभिन्न अंग बन जाते और जीवन दूभर हो जाता है। अज्ञानी और अंधश्रद्ध दलित समाज में चेतना का अभाव है। वे अपने अधिकार और हक के बारे में अनभिज्ञ और उदासीन हैं। जो कुछ हम में नहीं हैं उन्हें पाने और जो कुछ हैं उन्हें सुरक्षित रखने की चेतना जाग्रत करने पर ही दलित समाज अन्य जन जातिओं की तरह उन्नति के पथ पर अग्रसर हो जायेंगे। वे पुरानी मान्यताओं पर अटके रहने से नये विचारों को स्वीकार नहीं कर पाते। आज के राजनीतिज्ञ  अपनी स्वार्थता की पूर्ति केलिए दलितों को संगठित करते हैं और वे उन्हें वोट बैंक के हिसाब से नापते हैं। ऐसी स्वार्थी और कपटी रजनीतिज्ञ दलितों के विकास में अडचन पैदा करते हैं।
स्पष्ट है कि दलितों का जीवन समस्यावों और अभावों में अटका हुआ है। जातीय भेद- भाव, अज्ञान, अवैध संबंध, रूढीपरंपरा, कमजोर मानसिकता, संगठन और नेतृत्व की कमी आदि के कारण वे पिछ्डे रहते हैं। प्रत्येक सरकार दलितों के विकास केलिए कार्यरत है परंतू सभी लाभान्वित नहीं हो रहे हैं। सरकार की उदार नीति, जनसंगठन, समाजसेवी संस्थाओं का सहयोग, दलित नेतावों की सेवावृत्ति आदि के बल पर सभी समस्याएँ हल हो जायेंगी। शिक्षा प्रसार की सुविधाओं को अपनाने से वे अपने अधिकार केलिए संघर्ष करने लगे हैं। दलित नारी शोषण को पहचानकर आवाज बुलन्द करने लगी है। अ‍ज्ञान, अशिक्षा और नशापान से पीडित दलित आज उनसे कोसों दूर हैं। स्वास्थ्य की सुविधा प्राप्ति से उनका जीवन परिवर्तित हो रहा है। भ्रष्टाचार, भूख, बेकारी जैसी समस्याएँ दिन-ब-दिन कम हो रही हैं। अज्ञान और अशिक्षा के शिकार दलितों में शिक्षा - प्रसार और शिक्षा के प्रति जाग्रति पैदा करके हम उनकी दयनीय हालत को नये मोड दे सकते हैं।

संदर्भ ग्रंथ - 
1. दलित चिंतन के विविध आयाम – डा. एन सिंह ।
      2. दलित चेतना और समकालीन हिंदी उपन्यास – डा. मुन्ना तिवारी ।
      3. हिंदी उपन्यासों में दलित जीवन – डा.शम्भूनाथ ।


रेजी जोसफकर्पगम विश्वविदयालय, कोयम्बतूर, तमिलनाडु में डा. के. पी. पद्मावति अम्मा के निर्देशन में पीएच.डी.उपाधि केलिए शोधरत हैं

Tuesday, November 11, 2014

दो चित्र : एक प्रतिक्रिया''

सोरठा-दोहा गीत
दो चित्र : एक प्रतिक्रिया


-संजीव वर्मा 'सलिल'
                          


कई झाड़ुएँ साथ
जहाँ- न कचरा वहाँ हैं
लचक न जाएँ हाथ
थामे हैं होकर सजग

कचरा मन में सड़ रहा  
कैसे होगा दूर
प्यार प्रदर्शन कर रहे
पेशेवर हो क्रूर
सिर्फ शरीरों से किया
कृत्य हुआ बेनूर
लगता है वीभत्स यह
तजिए, बनें न सूर

होते हैं आरम्भ
प्रेम-सफाई घरों से
हुआ प्रदर्शित दम्भ
वृथा प्रदर्शन- लें समझ

देख-देख यह कृत्रिमता
सच को आती शर्म
गर्व करें अनुभव विहँस
ये नादां बेशर्म
है प्रचार के लिए ही
यह नौटंकी कर्म
काश समझ पाते तनिक
प्रेम-कर्म का मर्म

किसे पड़ेगा फर्क
आप थूक या चूम लें
करते रहें कुतर्क
उड़ी हँसी, जग घूम लें

हो विनम्र झुककर करें
साफ़-सफाई आप
तनकर चलती नायिका
रूप गया जग-व्याप
मन से जब तक दर्प का
हटे न कचरा- शाप
पुण्य बताकर कर रही
तब तक जानें पाप

जन-मन से अनजान  
अख़बारों की खबर बन
घटा रहीं आधार 
हे माँ! हेमा आज तन  

देह-देह की चाहकर
हुई देह के संग
गेह न पाया प्रेम ने
हुआ रंग बदरंग
इतने पर ही क्यों रुकें?
आगे करिए जंग
बेशर्मी से उतारें
चाहें कपडे तंग

देख अशोभन कृत्य
पशु भी लज्जित हो रहे
दानव मानव भेस में 
काहे को दुःख बो रहे

अवनत करते जा रहे 
उन्नति के सोपान 
मुर्दा शूकर कर लिए 
कहें करो गोदान 
माटी में देंगे मिला 
जनक-जननि की आन 
घर से निकले आज ये 
मन में यह हठ ठान 

नहीं साथ में आरहे 
बंधु-बांधवी शर्म कर 
नज़र मिला ना पा रहे 
खुद से गर्हित कर्म कर 

***