Monday, April 14, 2014

अब मोदी के खिलाफ बुद्धिजीवियों का प्रलाप


अब मोदी के खिलाफ बुद्धिजीवियों का प्रलाप

मुद्दों पर भारतीय बुद्धिजीवियों का चयनित दृष्टिकोण सबसे बड़ा संकट

-संजय द्विवेदी

     देश के तमाम जाने- माने बुद्धिजीवियों ने एक दिल्ली में 7 अप्रैल को प्रेस क्लब आफ इंडिया की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में न सिर्फ भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को जी-भर कर कोसा वरन एक साझा बयान पर हस्ताक्षर भी किए (जनसत्ता, 8 अप्रैल,2014)। भारतीय बुद्धिजीवियों की यह लीला न पहली है न अंतिम बल्कि इससे पता चलता है कि समाज में चल रहे आलोड़न और अपनी जड़ों से वे कितने उखड़े हुए हैं। हमारे बुद्धिजीवियों का यही शुतुरमुर्गी चरित्र और मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण देश का सबसे बड़ा संकट है।

   सवाल यह उठता है कि पिछले दस सालों में मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेंक सिंह अहलूवालिया की आर्थिक कलाबाजियों, निरंतर भ्रष्टाचार के बीच सिसकते हिंदुस्तान के साथ कितनी बार ये हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवी नजर आए? यहां तक की अन्ना के आंदोलन में भी देश की पीड़ा के स्वर देने के लिए ये महापुरूष अपने ही बनाए स्वर्गों में अटके रहे। यूआर अनंतमूर्ति, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, के. सच्चिदानंद, प्रभात पटनायक से लेकर इस बयान पर हस्ताक्षर करने वाले लगभग दो दर्जन बुद्धिजीवियों की वीरता तब कहां थी जब मुलायम सिंह यादव के राज में हर महीने एक दंगा हो रहा था। ये महापुरूष कश्मीरी पंडितों के पलायन को लेकर कितनी बार हस्ताक्षर अभियान और गोष्ठियां करते नजर आए? क्या कश्मीर के पाप के लिए आज तक किसी नेता कश्मीरी उलेमा ने माफी मांगी ? सही मायने में यह वे कायर जमातें हैं जो समय के सवालों से मुंह चुराते हुए अपनी सड़ी हुयी वैचारिकी और न समझ में आने वाली भाषा में एकालाप की अभ्यासी हो चुकी है। तीन दशकों तक पश्चिम बंगाल को अपने वैचारिक सुराज से आलोकित करने वाले ये लोग किस मुंह से गुजरात और उसके मुख्यमंत्री की आलोचना के अधिकारी हैं? यू आर अनंतमूर्ति कहते हैं कि मोदी सत्ता में आए तो हम अपने लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार खो बैठेंगें। उन्हें याद करना चाहिए कि एक बार इस देश में श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर हमारे लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार छीने थे तो उस संघर्ष की अगुवाई वामपंथियों ने नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने की थी। संघ परिवार तो लोकतंत्र की मुक्ति के लिए लड़ने वाला परिवार रहा है जबकि हमारे बुद्धिजीवी संघर्ष की वेला में शुतुरमुर्गी शैली में रेत में सिर छिपा कर लुप्त हो जाते हैं। आज मोदी को कारपोरेट समर्थक बताकर कोसने वालों की नजर में सोनिया गांधी और उनके नामित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कैसे कारपोरेट विरोधी नजर आने लगे हैं? मनमोहन सिंह ही इस देश में मनुष्य विरोधी आर्थिक नीतियों के प्रेरणाश्रोत और प्रारंभकर्ता हैं। आखिर क्या कारण है जिन मनमोहन सिंह ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआई लागू की, उनके खिलाफ ये बुद्धिजीवी कोई बयान देते नजर नहीं आए और जिस नरेंद्र मोदी ने खुदरा में एफडीआई न लाने का वायदा किया है, वो कारपोरेट समर्थक हो गया।

  अफसोस तो यह है कि हमारे बुद्धिजीवियों की अपनी कोई राय है नहीं। वे स्वतंत्र चिंतन के बजाए मोदी फोबिया से ग्रस्त हैं। वे दंगों से भी पीड़ित नहीं हैं। वे मुलायम के दंगों, 84 में सिखों के नरसंहार, भागलपुर, मलियाना से लेकर 1947 से लेकर कितनी बार हुए दंगों से पीड़ित नहीं हैं।  उनके लेखन में भी यह पीड़ा कभी उभरकर नहीं आती वे तो बस मोदी के दंगों से पीड़ित हैं। यह जाने बिना कि आखिर गुजरात का दंगा हुआ क्यों? गुजरात के दंगे गोधरा के भीषण नरमेघ की प्रतिक्रिया में हुए थे। उस घटना के बाद गुजरात जल उठा। आखिर सेकुलर राजनीति चैंपियन मुलायम सिंह के राज में दंगें क्यों हो रहे हैं? क्या कारण है कि मुलायम सिंह दंगों की सीरीज के बावजूद सेकुलर राजनीति के मसीहा बने हुए हैं और मोदी जिनके राज में 2002 के बाद कोई दंगा नहीं हुआ वे सेकुलर बुद्धिजीवियों के निशाने पर हैं?

  सही मायने में हमारे बुद्धिजीवी मोदी के खिलाफ सुपारी किलर्स की तरह व्यवहार कर रहे हैं। आखिर यह सुपारी किसने दी है? वे कौन होते हैं भारत के एक राज्य के तीसरी बार निर्वाचित मुख्यमंत्री के खिलाफ इस प्रकार विष वमन करने वाले और लोगों को गुमराह करने वाले? भारत की जनता की समझ क्या इतनी भोथरी है कि वह सही और गलत का फैसला न कर सके। आखिर क्या कारण है देश के तमाम चुनावों में ये बुद्धिजीवी इतनी रुचि नहीं दिखाते किंतु नरेंद्र मोदी के खिलाफ ये तुरंत एकजुट हो गए। इसमें कहीं न कहीं संदेह उपजता है कि ये बुद्धिजीवी भारतीय लोकतंत्र और उसके नागरिकों के शुभचिंतक नहीं हैं। देश में पिछले दस सालों में क्या कुछ नहीं हुआ। महंगाई, भ्रष्टाचार और कदाचार के प्रतिदिन होते प्रसंगों पर, नक्सलियों के आतंक और आतंकियों की वहशत पर हमारे बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका रही है? कहने की आवश्यक्ता नहीं है। आखिर नरेंद्र मोदी अगर देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो इस देश के संविधान की शपथ लेकर और जनसमर्थन के बाद ही बनेंगें। क्या हमें अपने संविधान,संसद, न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है? क्या नरेंद्र मोदी ने गुजरात में ऐसा कुछ किया है, जिसके प्रमाण इन बुद्धिजीवियों के पास हैं? सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधों और राजनीतिक दुराग्रहों के आधार पर मोदी को लांछित करना ठीक नहीं हैं। बहुत दिन नहीं हुए जब 90 के दशक की राजनीति में लालकृष्ण आडवानी को ऐसे ही सांप्रदायिक फ्रेम में कसा जाता था। आज वे भी सेकुलर नेताओं के दुलारे हैं। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के पहले ऐसी ही आशंकाएं उनकी सरकार को लेकर भी जतायी जाती थीं। आज भी भाजपा देश के कई राज्यों गुजरात, मप्र, छत्तीसगढ़, गोवा में सत्ता में है, पंजाब में वह सहयोगी दल है। बिहार में जेडीयू की सहयोगी रही है। उप्र, कर्नाटक,महाराष्ट्र में उसकी सरकारें रही हैं। क्या वे सरकारें अल्पसंख्यकों से भेद करती नजर आयीं। क्या वे संविधान को तोड़ती नजर आयीं। जाहिर तौर पर नहीं। भाजपा और उसकी सरकारों का कामकाज कमोबेश अन्य दलों की सरकारों जैसा ही रहा है। कई मायने में बेहतर भी। दिल्ली से लेकर राज्यों तक में भाजपा के साथ सत्ता का अनुभव देश और सहयोगी दलों सबको है। आज देश की राजनीति में भाजपा अश्पृश्य नहीं है। वह देश की एक ऐसी पार्टी है जिसने अपने भौगोलिक और राजनीतिक विस्तार किया है। विविध समाजों और पंथों और क्षेत्रों तक उसकी पहुंच बनी है। वही है जो राष्ट्रपति पद के लिए डा. एपीजे कलाम को चुन सकती है और एक ईसाई आदिवासी पीए संगमा का समर्थन कर सकती है। वही है जो कश्मीर पंडितों की पीड़ा और उनके आर्तनाद में साथ खड़ी हो सकती है। वही है जिसके जिसके लिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषाएं बेमानी है। भारतीयता उसके केंद्र में है। इसे वे नहीं समझ सकते जो विदेश विचारों,विदेशी सोच और विदेशी पैसों के बल पर सोचते और बोलते हैं। कोई भी विचारधारा देश से बड़ी नहीं होती। किंतु फिर भी कुछ लोगों के लिए चीन युद्ध के समय चीन के चेयरमैन माओ उनके भी चेयरमैन लगते रहे हैं। रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण उनके लिए राजनीतिक नारा हो सकता है। किंतु जिन्हें देश की, उसके इतिहास की समझ नहीं है, उन्हें तो सरदार पटेल द्वारा सोमनाथ का उद्धार भी एक राजनीति ही लगेगा। देश के बुद्धिजीवियों से देश इसीलिए निराश है। क्योंकि वे राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बनने के बजाए खुद राजनीति का हिस्सा बन गए हैं। ऐसी राजनीति का हिस्सा जिसे इस देश के मन की थाह नहीं है। ऐसी राजनीति जो बंटवारे और टुकड़े करने में भरोसा रखती है। उसे नरेंद्र मोदी रास कहां आएंगें? उन्हें तो मनमोहन सिंह, गुजराल, देवगौड़ा या कुछ भी दे दीजिए वे सह लेगें पर वे एक नरेंद्र मोदी को नहीं सह सकते क्योंकि उन्हें पता है कि मोदी का मतलब एक ऐसी विचारधारा है जिसके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है जबकि इनकी परिभाषा में भारत एक राष्ट्र है ही नहीं। इनका बस चले तो ये कश्मीर पाकिस्तान को, छ्त्तीसगढ़ माओवादियों को और अरूणाचल चीन को सौंप दें। ऐसे बुद्धिजीवी इस देश को नहीं चाहिए, हम बुद्धिहीन ही सही पर देश नहीं बंटने नहीं देंगें। इसीलिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की आवाज जब प्रचार माध्यमों पर गूंजती है- मैं देश नहीं झुकने दूंगा तो इन बुद्धिवादियों को दर्द सबसे ज्यादा होता है, किंतु हर आम हिंदुस्तानी इस पर मंत्र झूम उठता है, झूमता रहेगा।

 (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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