आलेख
तुलसीदास की भक्ति- पद्धति
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सिमी. एस.
कुरुप, कोयंबत्तूर (तमिलनाडु)*
राम के अनन्य भक्त तुलसीदासजी ने अपने इष्टदेव के प्रति अनन्य भक्ति और परम
विश्वास प्रकट करते हुए अपनी भक्ति-भावना को प्रकट किया है । तुलसी की भक्ति में श्रध्दा और विश्वास का निगूढ
समन्वय मिलता है । तुलसी की दृष्टि में राम के बराबर महान् और अपने बराबर
लघु कोई नहीं है । तुलसीदासजी ने भगवान राम को अनेक नामों से पुकारा है । नाम के
अतिरिक्त अपने इष्टदेव के रूप का वर्णन करते हुए उनके सगुण एवं निर्गुण, साकार एवं निराकार दोनों रूपों को स्वीकार किया है । तुलसी
ने भगवान राम की विविध लीलाओं का भी गान किया है । राम की ये लीलाएं दुष्टों के
दमन हेतु एवं संतों की रक्षा हेतु हुआ करती हैं । “निज इच्छा अवतार प्रभु, सुर महि गो द्विज लागि” कहकर तुलसी ने स्पष्ट किया है कि देवता, पृथ्वी, व्राह्मण आदि का
कल्याण करने के लिए ही भगवान अवतार लिया करते हैं । परंतु ये दूसरों के अनुरोध पर
नहीं, अपनी इच्छा से लिए जाते हैं । गोस्वामीजी ने राम के अलौकिक सौंदर्य का दर्शन
कराने के साथ ही उनकी अलौकिक शक्ति का भी साक्षात्कार कराया है । राम के शील के
अंतर्गत “शरणागत की रक्षा” को गोस्वामीजी ने बहुत प्रधानता दी है । यह वह गुण है जिसे देख पापी से पापी
भी अपने उद्धार की आशा कर सकता है । उनके अनुसार अन्तःकरण की पूर्ण शुद्धि भक्ति
के बिना नहीं हो सकती । सदाचार से भी मुख्य स्थान गोस्वामीजी ने भक्ति को दिया है
। जब तक भक्ति न हो तब तक सदाचार स्थायी नहीं है ।
तुलसीदासजी ने बताया है कि जैसे भोजन भूख मिटाते हैं, वैसे ही
हरिभक्ति सुगम एवं सुखदाई है । लेकिन यह भक्ति भी सेवक-सेव्यभाव की होनी चाहिए ।
तुलसीदास के अनुसार सेवक सेव्यभाव की भक्ति के बिना संसार में हमारा उद्धार नहीं
होगा । भक्ति के बारे में तुलसीदासजी ने भगवान् राम के मुख से कहलाया है कि जो लोग
इहलोक और परलोक में सुख चाहते हैं, उन्हें यह समझ
लेना जरूरी है कि भक्ति मार्ग अत्यन्त सुगम और सुखदायक है । ज्ञान का मार्ग तो
बहुत कठिन है । उसकी सिद्धि हो जाए तो भी भक्तिहीन होने से वह भगवान को प्रिय नहीं
होता । तुलसीदासजी कहते है कि भक्ति मार्ग में न तो योग है, न यज्ञ, न तप और न ही जप
। इसके लिए तो सरल स्वभाव होना चाहिए । मन में कुटिलता नहीं होनी चाहिए और जो कुछ
मिले उससे संतुष्ट रहना चाहिए । ऐसे भक्त के लिए सभी दिशाएं सदैव आनंदमयी रहती हैं
।
तुलसीदासजी ने अपनी भक्ति में विनय भावना को मुख्य स्थान दिया है । तुलसी की भक्ति
दास्यभाव की भक्ती है । इस प्रकार की भक्ति में दैन्य एवं विनय भाव की प्रधानता है
। अपने अभिमान का शमन करके इष्टदेव के शरण में जाने का उल्लेख उन्होंने किया है ।
तुलसीदासजी ने भक्ति की प्राप्ति के लिए सत्संग को प्रमुख स्थान दिया है । क्य़ोंकि
संत लोग हमेशा भगवान पर आश्रित रहते हैं और उनके सम्पर्क में आने पर स्वाभाविक रूप
से हमारे मन में भी भक्ति का उदय होता है । गोस्वामीजी ने तप, संयम, श्रध्दा, विश्वास, प्रेम आदि को
भक्ति का प्रमुख साधन बताया है ।
तुलसी की भक्ति भावना मूलतः लोकमंगल भावना से प्रेरित है ।
कवि सिर्फ उपासित और उपासक तक सीमित नहीं रह गया है । साथ ही लोकव्यापक अनेक
समस्याओं पर ध्यान दिय़ा है । अपने काव्य के प्रति कल्य़ाणकारी बनने का प्रय़ास किय़ा
है । जिस समय़ निर्गुण भक्त कवि संसार की निस्सारता का आख्यान कर रहे थे और कृष्ण
भक्त कवि अपनी आराध्य के मधुर रूप का वर्णन कर जीवन और जगत में व्याप्त नैराश्य को
दूर करने का प्रयास कर रहे थे, तब तुलसी ने मर्यादा पुरूषोतम राम की शील, शक्ति और
सौंदर्य का गुणगान करते हुए लोकमंगल के पथ को प्रशस्त किया । इसप्रकार हम कह सकते
हैं कि तुलसीदासजी हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं और उनकी भक्ति पध्दति अनुपम है ।
*सिमी. एस.
कुरुप, कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर में डॉ. पद्मावती अम्माल के निर्देशन में पीएच.डी. उपाधि के लिए शोधरत हैं ।
बेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (03-07-2013) के .. जीवन के भिन्न भिन्न रूप ..... तुझ पर ही वारेंगे हम .!! चर्चा मंच अंक-1295 पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार
उत्तम प्रस्तुतीकरण
ReplyDeleteVery good keep it up.
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteTq