Wednesday, June 12, 2013

श्यामल सुमन की पाँच ग़ज़लें

श्यामल सुमन की पाँच ग़ज़लें

मेरे जीने की रफ्तार कम तो नहीं

मौत आती है आने दे डर है किसे, मेरे जीने की रफ्तार कम तो नहीं
बाँटते ही रहो प्यार घटता नहीं, माप लेना तू सौ बार कम तो नहीं

गम छुपाने की तरकीब का है चलन, लोग चिलमन बनाते हैं मुस्कान की
पार गम के उतर वक्त से जूझकर, अपनी हिम्मत पे अधिकार कम तो नहीं

था कहाँ कल भी वश में ना कल आएगा, हर किसी के लिए आज अनमोल है
कई रोते मिले आज, कल के लिए, उनके चिन्तन का आधार कम तो नहीं

लोग धरती पे आते हैं रिश्तों के सँग, और बनाते हैं रिश्ते कई उम्र भर
टूट जाते कई उनमे क्यों सोचना, कहीं आपस का व्यापार कम तो नहीं

जिन्दगी होश में है तो सब कुछ सही, बोझ माना तो हर पल रुलाती हमे
ये समझकर अगर तू न समझा सुमन, तेरी खुशियों का संसार कम तो नहीं।


ममता कैसे अलग करोगे?

अलग अलग हैं नाम प्रभु के, प्रभुता कैसे अलग करोगे?
सन्तानों के बीच में माँ की, ममता कैसे अलग करोगे?

अपने अपने धर्म सभी के, पंथ, वाद और नारे भी हैं
मगर लहू के रंग की यारो, समता कैसे अलग करोगे?

अपने श्रम और प्रतिभा के दम, नर-नारी आगे बढ़ते हैं
दे दोगे आरक्षण फिर भी, क्षमता कैसे अलग करोगे?

जीने का अन्दाज सभी का, जिसको जैसी लगन लगी है
ठान लिया कुछ करने की वो, दृढ़ता कैसे अलग करोगे?

शुभचिन्तक हम आमजनों के, घोषित करते हैं अब सारे
मूल प्रश्न है सुमन आज कि, रस्ता कैसे अलग करोगे?


नए सपने भी पल रहे कितने

दिल में अरमान जल रहे कितने
नए सपने भी पल रहे कितने

देख गिरगिट ने खुदकुशी कर ली
रंग इन्सां बदल रहे कितने

यूँ तो अपनों के बीच रहते हम
फिर भी आँसू निकल रहे कितने

चाँद पाने की दिल में ख्वाहिश ले
चाँद जैसे बदल रहे कितने

हजारों दोस्त मिलेंगे सिर्फ कहने को
दुख के दिन में असल रहे कितने

मौत परिचय बताती जीवन का
कोई जी कर सफल रहे कितने

इस हकीकत से रू-ब-रू है सुमन
हाल बदले, ऊबल रहे कितने


यह मुर्दों की बस्ती है

व्यर्थ यहाँ क्यों बिगुल बजाते, यह मुर्दों की बस्ती है
कौवे आते, राग सुनाते. यह मुर्दों की बस्ती है

यूँ भी शेर बचे हैं कितने, बचे हुए बीमार अभी
राजा गीदड़ देश चलाते, यह मुर्दों की बस्ती है

गिद्धों की अब निकल पड़ी है, वे दरबार सजाते हैं
बिना रोक वे धूम मचाते, यह मुर्दों की बस्ती है

साँप, नेवले की गलबाँही, देख सभी हैं अचरज में
अब भैंसे भी बीन बजाते, यह मुर्दों की बस्ती है

दाने लूट लिए चूहे सब समाचार पढ़कर रोते
बेजुबान पर दोष लगाते, यह मुर्दों की बस्ती है

सभी चीटियाँ बिखर गयीं हैं, अलग अलग अब टोली में
बाकी सब जिसको भरमाते, यह मुर्दों की बस्ती है

हैं सफेद अब सारे हाथी, बगुले काले सभी हुए
बचे हुए को सुमन जगाते, यह मुर्दों की बस्ती है


आँसू को शबनम लिखते हैं

जिसकी खातिर हम लिखते हैं
वे कहते कि गम  लिखते हैं

आस पास का हाल देखकर
आँखें होतीं नम, लिखते हैं

उदर की ज्वाला शांत हुई तो
आँसू को शबनम लिखते हैं

फूट गए गलती से पटाखे
पर थाने में बम लिखते हैं

प्रायोजित रचना को कितने
हो करके बेदम लिखते हैं

चकाचौंध में रहकर भी कुछ
अपने भीतर तम लिखते हैं

कागज करे सुमन ना काला
काम की बातें हम लिखते हैं।


श्यामल सुमन
09955373288

http://www.manoramsuman.blogspot.com
 http://meraayeena.blogspot.com/ http://maithilbhooshan.blogspot.com/

1 comment:

  1. देख गिरगिट ने खुदकुशी कर ली
    रंग इन्सां बदल रहे कितने
    (राजनीती समझ आ गयी )

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