आलेख
‘प्रगति’ के कवि महेंद्रभटनागर
- प्रो. डॉ. नत्थन
सिंह*
(‘प्रगति’ : प्रगतिशील कविता का संकलन)
सम्पादन
—
राहुल सांकृत्यायन / प्रकाशचंद्र गुप्त
प्रकाशन
—
आशा साहित्य सदन / लोक चेतना प्रकाशन, जबलपुर
(मध्य-प्रदेश)
प्रथम
संस्करण सन् 1962, पृष्ठ 171
*
संकलित
कवि:
केदारनाथ
अग्रवाल,
शिवमंगल
सिंह ‘सुमन’,
गिरिजाकुमार
माथुर,
रांगेय
राघव,
महेंद्रभटनागर
*
महेंद्रभटनागर
की वे कविताएँ जो इस संकलन में समाविष्ट हैं:
(1) ओ भवितव्य के
अश्वो!, (2) आस्था, (3) काटो धान,
(4) धूल-श्री, (5) री हवा!,
(6) अमिताभ,
(7) भविष्यत्, (8) बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे,
(9) आभास होता है,
(10) विश्वास है —,
(11) भोर का आह्नान, (12) पहली बार,
(13) मुख को छिपाती रही,
(14) प्रधूपिता से —,
(15) निवेदन, (16) जीवन-धारा, (17) रात का आलम, (18) संकल्प-विकल्प, (19) अनुबोध, (20) प्रतिकार्य।
*
‘प्रगति’
के पाँचवें कवि डॉ. महेंद्रभटनागर पर भी प्रगतिवादी साहित्य गर्व कर
सकता है। हिन्दी के जाने-माने प्रगतिवादी कवि जिस समय या तो भारतीय दर्शन के
अन्तराल में मुँह छिपाते जा रहे थे अथवा नवीन प्रयोगों के आकर्षण में जनवादी
जीवन-दृष्टि से अलग हटकर प्रतिगामी होते जा रहे थे, उस समय
हिन्दी-काव्याकाश में यह कवि अरुणोदय की रक्तिम ऊष्मा और राकेश की शीतलता लिए
प्रकट हुआ। साहित्य को जो लोग मानव समाज को सुन्दर बनाने की साधना मानते हैं;
उनको इस कवि के कृतित्व से संतोष हुआ। यह कवि छंद-साधना का परम
लक्ष्य मनुष्य को उत्कृष्ट प्राणी बनाना मानता है।
इस कवि में, भारत की दीन-दुखी और उपेक्षित जनता के प्रति असीम प्रेम, भारत के प्राकृतिक वैभव के प्रति विशेष आकर्षण, अपनी
विगत सांस्कृतिक गरिमा के प्रति गर्व, शोषक तत्त्वों के
प्रति आक्रोश, पूँजीवादी राष्ट्रों की पतनशील संस्कृति से
घृणा, धार्मिक तथा रूढ़िगत संकीर्णता का विरोध, जीवन और जगत से मोह, युद्ध तथा विस्तारवाद से विरोध
शांत एवं सुखद वातावरण के निर्माण के प्रति व्यग्रता, श्रमिकों
और किसानों की शक्ति में विश्वास, व्यक्तिवादिता के प्रति
विमुखता, नवीन प्रयोगों की कुशलता, निराशा,
कुंठा और अवचेतन मन की विकृतियों से अलगाव, प्रेम
की स्वस्थ एवं पावन शक्ति की पहचान, मानवता के शत्रुओं की
भर्त्सना और वैचारिक स्पष्टता पर्याप्त मात्रा में है।
कवि महेंद्रभटनागर भली
प्रकार जानते हैं कि अधिकांश भारतवासी भविष्य, भाग्य,
अदृष्ट और नियतिवादिता के शिकार हैं। ये अंध-विश्वास उसे प्रगति के
मार्ग पर अग्रसर नहीं होने देते। यही कारण है कि भारतवासी दीनता, हीनता, शोषण तथा पराधीनता के विषय बनते रहे हैं। कवि
ने ‘ओ, भवितव्य के अश्वो’ नामक रचना में भारतीयों की इस प्रतिगामिता और प्रतिक्रियावादिता पर कसकर
प्रहार किये हैं और मनुष्य को आशा, उत्साह, विश्वास तथा श्रमप्रियता का संदेश दिया है:
ओ अदृश्य की लिपियो !
कठिन प्रारब्ध हाहाकार के अविजेय दुर्गो !
हम उमड़ श्रम-धार से
हर हीन होनी की लिखावट को मिटाएंगे,
मदिर मधुमान श्रम संगीत से
हम हर तबाही के अभेदे दुर्ग तोड़ेंगे !
ओ भवितव्य के अश्वो !
तुम्हारी रास मोड़ेंगे !
इस रचना में कवि ने
भारतवासियों को ‘वर्चस्वी’, ‘दुर्धर्ष’,
‘तारुण्य के अविचल उपासक’ और ‘श्रम-भाव तेजोदृप्त’ आदि विशेषणों से सम्बोधित करके
अपनी निर्माण-कामना, जन-प्रियता और श्रम-साधना का परिचय दिया
है। इस रचना का एक-एक शब्द तारुण्य, जोश और सृजन-शक्ति का
परिचायक है।
‘आस्था’ नामक रचना में कवि का अदम्य विश्वास मुखर हुआ है। वह मनुष्य को ‘कण-कण को सींचने’, ‘हर सूखे बिरवे को पानी देने’,
‘टूटे उखड़े झाड़ों को अभिनव बल देने’, ‘नंगी
शाखों को जल-कण मुक्ता ’ से विभूषित करने और ‘चिर बाँझ धरा को शीतल जल का आलिंगन देने’ का आग्रह
करता है, क्योंकि उसका विश्वास है कि ‘शायद,
गहरी-गहरी परतों के नीचे जीवन सोया हो’:
सींचो
! कण-कण को सींचो !
हर सूखे बिरवे को पानी दो,
टूटे उखड़े झाड़ों को
अभिनव बल
फिर-फिर बढ़ने की तेज़ रवानी
दो!
चिर बाँझ धरा को जल का आलिंगन दो
शीतल आलिंगन दो !
शायद, गहरी-गहरी परतों के नीचे
जीवन सोया हो,
तम के गलियारों में खोया हो
!
चट्टानों को फोड़ कहीं,
नव अंकुर डहडहा उठें,
बाँझ धरा का गर्भस्थल
नूतन जीवन से कसमसा उठे !
दृढ़ता के साथ जीवन को
उन्मीलित करने के लिए कवि प्रयत्नशील है। जीवन-उन्मेष के प्रति इतनी लगन और सच्चाई
अन्यत्र विरल है। कवि का दृष्टिकोण साहित्य के माध्यम से मनुष्य का चरम-विकास करना
है। उसने प्रयोगवादियों की भाँति कभी नहीं कहा — ‘‘हर अच्छा
काम करने के बाद जैसे मैं असफल हुआ हूँ।’’ कितना अन्तर है,
एक युग के दो कवियों में — एक सत्य और जीवन से
विमुख, दूसरा उसी का गायक। एक कुंठा और विकृतियों का शिकार,
दूसरा निर्माण और सृजन का अग्रदूत। एक जीवन से उदासीन, दूसरा उसी का सर्जन तथा शृंगार करने वाला। विश्व पर एटमी अस्त्र लेकर टूट
पड़ने वाले मानवता के संहारक युद्ध-प्रेमियों को कवि ललकारता है:
हम
कभी भी
शांति का झंडा ज़रा झुकने नहीं
देंगे !
हम कभी भी
शांति की आवाज़ को
दबने नहीं देंगे !
क्योंकि हम इतिहास के आरम्भ
से
इंसानियत में, शांति में विश्वास रखते हैं,
गौतम और गांधी को हृदय के
पास रखते हैं !
हमें नादान बच्चों की हँसी
लगती बड़ी प्यारी ;
हमें लगती किसानों के ,
गड़रियों के गलों से
गीत की कड़ियाँ मनोहारी !
कवि विश्व में सुख, हर्ष और जीवन का सजग प्रहरी है। उसकी दृढ़ता का अनुमान इन पंक्तियों से
लगता है:
खुशी
के गीत गाते इन गलों में
हम कराहों औैर आहों को कभी
जाने नहीं देंगे !
हँसी पर ख़ून के छींटे कभी
पड़ने नहीं देंगे !
नये इंसान के मासूम सपनों
पर
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं
देंगे !
विश्व में उपनिवेशवादी
दासता को क़ायम रखने के लिए पूँजीवादी देशों द्वारा ईजाद किया गया एक शस्त्र है —
युद्ध। इसके द्वारा शासन मानवीय अधिकारों का अपहरण कर लेता है और
मनुष्यता को गुलामी की ज़जीरों में बाँध देता है। कवि ने अपनी पूरी शक्ति के साथ
पूँजीवादी इरादों को ललकारा है:
आभास
होता है—
कि सदियों बद्ध बंधन आज
खुलकर ही रहेंगे !
इन धुएँ के बादलों से आग की
लपटें लरज कर
व्योम को निज बाहुओं में
घेर लेंगी !
शक्तिमत्ता-मद विषैला-नद
जलेगा,
हर उपेक्षित भीम गरजेगा
तुमुल संगर धरा पर !
गढ़ दमन के
राह के फैले हुए आटे सदृश
संघर्ष की भीषण हहरती
आँधियों के बीच उड़ मिट जाएँगे !
‘विश्वास है —’ नामक रचना में कवि ने निर्माण और स्वाधीनता के पथ पर बढ़ने वाले वीरों को
स्पष्ट आश्वासन दिया है — ‘‘एक दिन, काली
घटाओं से घिरा आकाश खुलकर ही रहेगा!’’ और उनके स्वागत के लिए,‘‘आगे लाल किरणें राह में बिखरी मिलेंगी।’’ यह भरोसा
देकर कवि ने मानव को विश्वास का दीप जलाकर आगे बढ़ने तथा उस दीप से अनेक
विश्वास-दीप जलाने के लिए उत्साहित किया है। कवि का मत है कि नया मानव यदि विश्वास
की दीप-माला लेकर आगे बढ़ गया तो निश्चय ही ‘तमिस्रा भंग कर
नव-स्वर्ण-पथ रचना करेगा।’ कवि इसी स्वर्णिम पथ की रचना के
लिए व्यग्र है। जिस दिन इस आलोक-पथ का निर्माण हो जाएगा, मनुष्य
दासता से सदा के लिए मुक्त हो जाएगा।
कवि को हर्ष है कि उसकी
साधना व्यर्थ नहीं गयी। उसने जीवन, शक्ति, उत्साह और सृजन के जो गीत गाए, जन-जीवन के उत्थान और
मानव-कल्याण भावना को जो वाणी दी वह फलवती हुई। आज विश्व में नव-जीवन अपनी आँखें
खोल रहा है, उदय होते सूर्य के साथ आज जन-समुदाय बहुजनहिताय
भावना से भर सक्रिय हो उठा है। जन-मन के अन्तर से विश्व-कल्याण के लिए वाणी फूट
रही है तथा नव-क्षितिज पर नये युग की समता और एकतावादी विचारणा-ज्वाला धधक रही है,
जो ह्रासोन्मुख पतनशील शक्तियों को ख़ाक कर देने के लिए आतुर है। ‘भोर का आह्वान’ नामक रचना में कवि ने विश्व की
विकासशील शक्तियों का अभिनन्दन किया है—
खुल रही आँखें
नयी इस ज़िन्दगी के भोर में !
उठ रहा उठते दिवाकर संग जन-समुदाय,
भर कर भावना बहुजन हिताय !
भव का भयानकतम भविष्यत् भी
भरे भय भग गया !
विश्वास है — यह अब न आएगा कभी,
ऐसा ग्रहण फिर ग्रस न पाएगा कभी
जन-चेतना के सूर्य को !
रे आज सदियों रुद्ध जनता-कंठ
सहसा खुल गया
संसार के इस शोर में !
खुल रही आँखें
नयी इस ज़िन्दगी के भोर में !
कवि महेंद्रभटनागर का
जीवन-दर्शन समाजवादी है। वे विश्व-मानवता का उपासक हैं। वे विश्व में किसी को भी
विपन्न, दुखी और विरस नहीं देखना चाहते। ‘आस्था’ नामक कविता में कवि ने प्रत्येक कण, वृक्ष और शाखा को सींचने का आग्रह किया है। वह जीवन को तम और मिट्टी में
प्रसुप्त नहीं रहने देना चाहता। वह मिट्टी के गर्भ में पड़े अंधकारमय जीवन को
जाग्रत करने के पक्ष में है। रजकणों का कवि की दृष्टि में बड़ा मूल्य है। वह मानता
है —
सींचो
कण-कण को सींचो !
हर मिट्टी में गर्मी है
हर मिट्टी पूत प्रसव-धर्मी
है !
कवि जब इस विकसित जीवन और
निर्माणोन्मुख विश्व को शीत-युद्ध के वातावण से त्रस्त, विश्व
के सांस्कृतिक क्षितिज को ध्वंस के मेघों से आच्छादित, स्नेह-सिंचित
हृदयों को स्वार्थी और संकीर्ण लोक से कलुषित और जगत के हरे-भरे कानन को सूखता
देखता है तो वह उस महान् व्यक्तित्व को पुकार उठता है, जिसने
संसार को शांति और जीवन का संदेश दिया था। जिसके गौरव के सम्मुख रक्त-पिपासु
तलवारें झुक गयी थीं —
इसलिये अमिताभ !
युग की दृष्टि तुम पर
है लिये विश्वास दृढ़तर;
सौम्य-मुख की हर किरन को
आज दो फिर हर नयन को !
यह नयी पीढ़ी
तुम्हारी मूक-सेवा साधना से
बलवती हो !
यह नयी पीढ़ी
तुम्हारे भव्यतम उत्सर्ग की शुभ-भावना से
बलवती हो !
ये पंक्तियाँ जहाँ कवि की
शांति-कामना की प्रतीक हैं, वहीं उसके सांस्कृतिक गौरव-भाव
का भी आभास देती हैं। वह अतीत का ऐतिहासिक महत्त्व स्वीकार करता है, पर उसका अंध-समर्थक नहीं है। वह उससे प्रेरणा ले सकता है, पर प्रतिक्रियावादियों की तरह उसके प्रत्यागमन पर बल देता हुआ कहीं नहीं
दीख पड़ता।
कवि महेंद्र विश्व-कल्याण
तथा मानवता के उद्धार के लिए अदम्य अभिलाषा लेकर भी स्व-देशानुराग से कहीं विलग
नहीं दीख पड़ते। उनका अन्तर्राष्ट्रीयतावाद राष्ट्रवाद का विस्मरण नहीं करता। ‘पहली बार’ नामक रचना में वह विश्व-स्वाधीनता-आन्दोलन
के साथ-साथ भारत के स्वाधीनता-आन्दोलन का भी अभिवादन एवं स्वागत करते हैं।
महेंद्र में नव-निर्माण के
लिए बल, ओज और शक्ति-प्रवाह ही नहीं है, वरन् समवेदना और सहानुभूति का अजस्र प्रवाह भी है। ‘मुख
को छिपाती रही’ नामक कविता में एक विपन्ना, कार्य-भार से त्रस्त, रोग-पीड़िता और समय की मार-खाई
नारी का चित्र सहानुभूतिपूर्वक अंकित किया गया है। कवि केवल आँसू पोंछने का ढोंग
नहीं करता। नारी के सुन्दर भविष्य के प्रति वह आशान्वित है —
निकट खाँसती है छिपी एक नारी
मृदुल भव्य लगती कभी थी,
बनी थी किसी की विमल प्राण प्यारी !
उसी की शक़ल अब धुएँ में सराबोर है !
और मुख की ललाई अँधेरी-अँधेरी निगाहों में खोयी !
जिसे ज़िन्दगी से न कोई शिकायत रही अब,
व जिसके लिए है न दुनिया
भरी स्वप्न मधु से लजाती हुयी नत,
अनेकों बरस से धुएँ में नहाती रही है !
कि गंगा व यमुना-सा
आँसू का दरिया बहाती रही है !
फटे जीर्ण दामन में मुख को छिपाती रही है !
मगर अब चमकता है पूरब से आशा का सूरज,
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही दुख की शिकन !
‘प्रधूपिता’ नामक कविता में भी जग के तिरस्कृत,
समाज से अभिशप्त, निर्वासित और उपहसित नारी के
प्रति कवि-हृदय की अपार सहानुभूति व्यक्त हुई है। उसका हृदय मानवीय करुणा से
परिपूर्ण है —
ओ विपथगे ! जग-तिरस्कृत!
आ, माँग
को सिन्दूर से भर दूँ !
सहचरी ओ ! मूक रोदन की —
कंठ को नाना नये स्वर दूँ !
ओ धनी ! अभिशप्त जीवन की —
आ, तुझे
उल्लास का वर दूँ !
ओ नमित निर्वासिता !
आ — आ
नील कमलों से घिरा घर दूँ !
वंचिता ओ ! उपहसित नारी—
अरे आ, रुक्ष केशों पर
विकंपित स्नेह-पूरित उँगलियाँ धर दूँ !
कवि उपेक्षितों और शोषितों
के प्रति सर्वत्रा प्रेम-भाव और सहानुभूति रखता है। ‘निवेदन’
नामक कविता की कुछ पंक्तियाँ भी देखने योग्य हैं —
फूल जो मुरझा रहे जग-वल्लरी पर अधखिले
कारण उसी का खोजता हूँ !
कवि
संसार-लता पर मुरझाए पुष्पों का कारण खोजने में इस सीमा तक व्यस्त और इस गहराई तक
तल्लीन है कि अपनी प्रेयसी को कुछ समय तक भुलाए रखने तथा उसके यौवन और शृंगार की
उपेक्षा करने तक से नहीं चूकता। व्यक्ति पर समष्टि की यह महान् विजय! कवि
समष्टिवादी है और उसकी जीवन-साधना का उद्देश्य जीवन को मुखरित करना है —
हे प्राण ! मुझको माफ़ करना
यदि तुम्हारे गीत कुछ दिन मैं न गाऊँ !
स्वर्ण आभा-सा सुवासित तन तुम्हारा
देख, अनदेखा
करूँ,
छवि पर न मोहित हो तनिक भी मुसकराऊँ !
फूल जब मुरझा रहे
वसुधा बनी विधवा
सुमुखि ! फिर अर्थ क्या शृंगार का,
पग-नूपुरों की गूँजती झंकार का ?
हर फूल खिलने दो ज़रा,
डालियों पर प्यार हिलने दो ज़रा !
कवि अनुशासित, संयमित और उदात्त जीवन का समर्थक, हर प्रकार के शोषण
का विरोधी, क्रूरता और नृशंसताओं का शत्रु, समाजवाद का समर्थक, शांति का उपासक, जीवन का रक्षक और मानवता का मित्र है। वह उन्नत शिल्प और उदात्त
वस्तु-पक्ष का श्रेष्ठ कवि है।
* *
(प्रमुख पाँच प्रगतिशील कवियों के संकलन ‘प्रगति’
के प्रकाशन का उद्देश्य, एम. ए. हिन्दी ‘आधुनिक काव्य’ के प्रश्न-पत्र के लिए प्रामाणिक और
स्तरीय पाठ्य-पुस्तक मुहैया कराना था। इसका प्रकाशन ‘तार-सप्तक’
की तरह किसी काव्यान्दोलन के निमित्त नहीं था। अतः यह संकलन ‘तार-सप्तक’ की तरह
प्रचारित नहीं किया गया। फिर भी,
जिन प्रबुद्ध आलोचकों ने इसे देखा, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की! इस संकलन से सम्बद्ध
तीन आलेख (आलोचक — महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, डॉ. राजेन्द्र मिश्र, डॉ. नत्थन सिंह) ‘नयी कविता’ (सम्पादक डॉ. वासुदेवनन्दन प्रसाद
(प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग, मगध
विश्वविद्यालय, बोध-गया, बिहार) /
प्रकाशक ‘कल्याणमल एण्ड सन्स’, जयपुर)
नामक समीक्षा-पुस्तक में समाविष्ट हैं । प्रस्तुत आलेख इसी सम्पादित आलोचना-पुस्तक
से उद्धृत है। ‘प्रगति’ का अन्यत्र भी
उल्लेख हुआ और आज भी होता रहता है; यद्यपि अब यह कृति
अनुपलब्ध है।)
* *
*C-307 Gate Way Towers, Vaishali , Sector — 4,
GAZIABAD — 201 010 (U.P.)
M- 93 10 79 04 85