अनुभूति
कभी जिन्दगी ने मचलना सिखाया
मिली ठोकरें तो सम्भलना सिखाया
जीना सम्भलकर कठिन जिन्दगी में
उलझ भी गए तो निकलना सिखाया
रंगों की महफिल है ये जिन्दगी भी
गिरगिट के जैसे बदलना सिखाया
सबकी खुशी में खुशी जिन्दगी की
खुद की खुशी में बहलना सिखाया
बहुत दूर मिल के भी क्यों जिन्दगी में
सुमन फिर भ्रमर को टहलना सिखाया
बेबसी
बात गीता की आकर सुनाते रहे
आईना से वो खुद को बचाते रहे
बनते रावण के पुतले हरएक साल में
फिर जलाने को रावण बुलाते रहे
मिल्कियत रौशनी की उन्हें अब मिली
जा के घर घर जो दीपक बुझाते रहे
मैं तड़पता रहा दर्द किसने दिया
बन के अपना वही मुस्कुराते रहे
उँगलियाँ थाम कर के चलाया जिसे
आज मुझको वो चलना सिखाते रहे
गर कहूँ सच तो कीमत चुकानी पड़े
न कहूँ तो सदा कसमसाते रहे
बेबसी क्या सुमन की जरा सोचना
टूटने पर भी खुशबू लुटाते रहे
bebasee aur anubhooty mey zindagee ka nicod hai subh mangal
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