Tuesday, March 20, 2012

सूर्यबाला के 'सुबह के इंतज़ार तक' उपन्यास में नारी समस्या

सूर्यबाला के 'सुबह के इंतज़ार तक' उपन्यास में नारी समस्या

- डॉ. सूर्या बोस

समकालीन समाज का एक जिंदा सवाल है- 'आम औरत '. नारी की आज की स्थिति के बारे में व्यापक चर्चाएं हो रही हैं.उसकी स्थिति को बहतर बनाने के लिए कई योजनायें, पद्धतियाँ ,संगठन दिन-ब-दिन बनाते जा रहे हैं.सभी कर्मक्षेत्रों में नारी को निश्चित प्रतिशत आरक्षण मिल रहा हैं .इन सब छूटों के भोक्ता नारी की असली स्थिति क्या हैं ? उपर्युक्त सभी का प्रयोजन क्या प्रत्येक नारी तक पहुँच रहा हैं या नहीं .आज भी गार्हिक दासता से त्रस्त नारियां हैं. आज नारी की शक्ति का भी कोई सीमा नहीं हैं.नारी की इन प्रतिलोम पक्षों को 'सुबह के इंतजार तक' नामक उपन्यास में सूर्यबाला उजागर कर रही हैं.

आज़ादी के साठ वर्षों में क्या हम स्वतंत्र बन गए हैं.बुनियादी मानव अधिकारों से वंचित व्यक्ति स्वतंत्र हैं? खाना - कपड़ा व रहने की व्यवस्था , बीमारी से बचाव् , भय -आतंक , शोषण व असुरक्षा से हमें अभी तक छुटकारा नहीं मिला.शोषण व उत्पीडन से मुक्ति का संघर्ष आज भी मानव की बुनियादी समस्या हैं.व्यक्ति शोषित पर आश्रित रहने पर विवश है तो समाज में उसकी स्थिति क्या होगी इसका जवाब हमारे समाज में आज खुली तौर पर मिल रहा हैं.

मध्यवर्गीय परिवार में दिखाई देने वाले एक गंभीर समस्या है -नकली दिखावा.इसके कारणों को ढूँढ निकालना मुश्किल हैं.अपने सामथ्य॔ को बढ़ा - चढ़ा कर दिखाना समाज में उनका स्थान बनाए रखने में सहायक सिद्ध होता हैं.लेकिन घर के भीतर क्या घट रहा हैं, इसका मनोवैज्ञानिक चिंतन करने पर मालूम होगा , कि मामला कितना गंभीर हैं.घर के अन्दर घुट रही प्राणियों की मानसिकता पर इसका असर अलग-अलग तरीके से पड़ता हैं.मानसिक ग्रंथियों तथा कुंठाओं से पीड़ित ऐसे प्राणियों का निराला ,मर्म भेदी चित्र इस उपन्यास में खींचा गया हैं.नायिका मानु के शब्दों में -" किसी के कुंडा खटखटाने के साथ ही घर के अभाव और बेपर्दी को छिपाने की जी - तोड़ कोशिश ; घर में हम चाहें गुड की हलकी चाय पी रहे हों , पर असमय आये मेहमान के लिए एक छोटी टिन की डिब्बी में सहेजकर रखी चीनी, दो - एक साबुत कप........न जाने यह सब करके हम किस पर अपनी मातबरी का सिक्का बिठाने की कोशिश करते ." हाथी का दांत दिखाने के और जैसी इस कोशिश से घर के बड़ों से ज्यादा बच्चो के मन पर गहरा आघात पड़ता हैं.

मध्य वर्ग की मानसिकता का एक और छोर हैं - अपनी हैसियत के अनुसार काम करने की कोशिश .वे काम को हैसियत के अनुसार तौलते हैं. मध्यवर्ग के लोग इस गलतफह्मी को पालते हैं कि कुछ काम उनके हैसियत से कम की हैं.वे उस तरह के काम करने से अपने आपको भूखा रखना बहतर समझता हैं. नारियों में यह कोशिश ज्यादा दिखाई देती हैं.मानु की माँ नौकरी की तलाश में तो जाती ही हैं, लेकिन वर्ग चेतना और जाती चिंता उसे हमेशा पीछे को खींचती हैं.रसोई बनाने या आयागिरी करने की उसकी मानसिकता कभी नहीं बनी.वह शालीनता से नौकरी दाताओं से कहती हैं- " जी ,मैं प्रतिष्ठित पढ॓ लिखे घर की हूँ.सिलाई ,बुनाई,कढाई, वगैरह से संबंधित कोई काम हो तो बताईये ." कोई भी काम करके घर चलाने की मानसिकता उनमें नहीं रहती,क्योंकि वे पेट भरने से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखना चाहते हैं.इस मध्य वर्गीय मानसिकता का सीधा असर उनकी आर्थिक स्थिति पर पड़ता हैं.कभी कभी वे पाई -पाई के लिए मुहताज होते हैं,फिर भी प्रतिष्ठा खोना नहीं चाहते . प्रतिष्ठा का आत्मसम्मान से कितना संबंध हैं,यह इस अवसर पर चिंतनीय हैं,अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने की मानु की माँ -बाप की भरसक कोशिश के बावजूद मामा -मामी को सच्चाई का पता लग ही जाता हैं तो मानू की माँ अपराधियों की तरह घडी रहती हैं.शहरी दिखावे से भरपूर मामा के घर से मानु की पाँव भारी हो जाती हैं,तो प्रतिष्ठा और आत्मसमान के बीच की खाई साफ़ ज़ाहिर होती हैं.

भारत में आज नारी की सुरक्षा को लेकर ज़ोरदार चर्चाएँ चल रही हैं.नारी सुरक्षा की कई योजनायें सरकार की ओर से बनायी जा रही हैं; जैसे वनिता आयोग .फिर भी नारी हमारे समाज में सुरक्षित नहीं हैं .सड़क ,बस ,रेल गाडी ही नहीं अपने घर में भी वह सुरक्षित नहीं हैं.हाल ही में चलती रेलगाड़ी से गिराकर सौम्या नामक लड़की के इज्ज़त के साथ खिलवाड़ किया था.घर के भीतर भी छल से बच्चियाँ गर्भवती बनाने की खबरें आती हैं,आजकल .भारत बच्ची के पैदा होने के लायक जगह नहीं रह गयी हैं.

बलात्कार के शिकार लड़की की पारिवारिक स्थिति का खुलासा इस उपन्यास में हुआ हैं. मामा के घर में रहते वक्त मानू के साथ यह हादसा होता हैं .मामा - मामी मामले को नरमाई से सुलझाने की कोशिश करते हैं.लेकिन उस खालिस फ़िल्मी खलनायक के आगे मामा की धमकी का कोई असर नहीं पड़ता .ज़हरीली मुस्कराहट के साथ वह उलटे मामा को धमकाता हैं--" आप ढेकेदार के पास जाकर मेरी बदचलनी का ढिंढोरा पीट आईये :मैं युनियन की मदद लेकर आप के नाम का मुर्दाबाद बुलवा देता हूँ ." आजकल हम यही देख रहे हैं कि लड़कियों के इज्ज़त के साथ खिलवाड़ करने के बावजूद मर्द अपने आपको दोषी महसूस नहीं करते .कानून को सख्त करना तथा ऐसे लोगों को कड़ी से कड़ी सजा देने के बगैर समाज से ऐसी बहशी मिजाज़ मिट नहीं जायेगी.समाज के नैतिक स्वत्व को चोट पहुँचानेवाले ऐसे लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं : आज की सामजिक स्थिति.हाल ही में हमने देखा कि सौम्या नामक लड़की को जिसने पैरों तले कुचल दिया था ,उसी को मुकदमे से छुड़ाने के लिए कितने बड़े बड़े हस्तियों ने कोशिश किया था.इन लड़कियों के घरवालों पर क्या गुज़रता हैं,यह जानने की कोशिश कोई नहीं करते.मानू को बेशर्मी से बचाने के लिए दूर ले जाने वाले भाई से वह कहती है -" मेरी जिस स्थिति को स्वीकार करने की दहशत से माँ ने खाट पकड़ ली , पिताजी कमजोरी से जर्जर हो गए,वह सब सह पाने के लिए तुझे मजबूर करना ........"

लड़की की इज्ज़त लुट जाने के बाद उसकी ज़िन्दगी क्या हो जाती हैं ?क्या वह अपनी वर्तमान स्थिति से जीवनी शक्ति पाकर आगे बढ़ सकती है? नहीं!ज़्यादातर लडकियों की जीवन की गति वहीं रुक जाती हैं.अपनी ज़िन्दगी में इस तरह का एक भारी धक्का लग जाने के बावजूद इस उपन्यास की नायिका मनू अपनी समस्त जीवनी शक्ति को लेकर आगे बढती हैं.उसके शब्दों में -" - " इस विद्रोह की अंतिम परिणति होगी मेरी स्वीकार में ....मेरी इस स्थिति ,इस अभिशाप के स्वीकार में ,जो कुछ मैं करूंगी ,जैसे भी मैं जिउंगी ,समाज द्वारा थोपे इस अभिशाप की सच्चाई को जीते हुए - इसे नकारते हुए नहीं ....समाज के कलंक को समाज के बीच जिंदादिली से ढोते हुए ....."

कलुषित ज़िन्दगी के अधिकारिणी नारी का सचाई के साथ आगे बढना कितना कठिन हैं .यह कहते नहीं बनता.यह महसूस मरने की बात हे उसकी गलती न होने पर भी ऐसे मामलों में लड़की ही गलत या बुरी कहलाई जाती हैं.मनू इन सभी समस्याओं का हिम्मत से सामना करती हैं.लेकिन समाज, बलात्कार के शिकार युवती को आम लड़की की तरह नहीं स्वीकारता.समाज के नज़र में वह हास्यास्पद एवं निर्लज्ज हैं.मानू के सच बखारती फिरने से मानू तथा उसको दूर ले जानेवाले भाई बुलू पर पड़ा असर भी समाज के सोच तथा नज़रिए का ही परिचायक हैं.मानू का लोगों से सच्चाई कहना उससे ज्यादा बुलू को महँगी पड़ता हैं.मानू के राय में -" मेरी शिराओं को चीर चीर कर जैसे हजारों समाज भयावहता से अट्टहास करने लगे. मुझे लगा इन पथरीले अट्टहासों में मैं नहीं, बुलू लहुलुहान होता जा रहा हैं."



बच्चे को जन्म देना हर स्त्री की ख्वाहिश है .लेकिन नाजायज बच्चे को जन्म देने के पीछे की मनोवृति के बारे में सोचना उतना ही दुखदाई होता हैं.मानु बलात्कार के फलस्वरूप प्राप्त बच्चे को मृत पाकर अपने आपको मुक्त महसूस करती हैं.लेकिन उसके अन्दर भी ममतामयी माँ की भावनाएं मौजूद हैं.वह सोचती हैं - " 'मुक्ति' शब्द इतना क्रूर क्यों लग रहा हैं ?...काकी को मृत्यु सुख की परिभाषा सुनानेवाली मैं अंदर अपनी ही तड़प की किर्चों से कितनी लहुलुहात हूँ !...मेरे अंगों से ममता और तडप के सोते फूट रहे हैं." हर ममतामयी माँ की तरह मानु की भी बच्चे के लिए तडपता ह्रदय यहाँ दृष्टिगोचर होता हैं.चाहे मन तक ही सीमित क्यों न हो ,माँ और बच्चे के बीच के संबंधों की तीव्रता कभी कम नहीं होती .

उपन्यास के अंत में मानु एक सशक्त पात्र के रूप में सामने आती हैं.समाज की टोकरें खाने के बावजूद ,समाज ने ही उसे सहारा भी दिया था .सच को साथ लेकर चलने की कीमत दुनिया ने मानु को दिया.वह एक सर्वसम्मत हस्ती का रूप धारण कर लेती हैं.बुलु को संबोधित करके लिखा हुआ उसका अंतिम ख़त इसका प्रमाण हैं.वह लिखती हैं -"तेरी यह दीदी बहुत बहादूरी से ज़िन्दगी जी चुकी हैं.उसने सब कुछ स्वीकार लिया.इसी से शायद समाज भी उसे सहज भाव से स्वीकारता चला गया .समाज मुझे स्वीकारे -यही तो मेरे विद्रोह की पीठिका थी,मेरा हठ था,मेरी उपलब्धि थी .........."

समाज के छद्म से आक्रान्त ,समाज से तिरस्कृत नारियों की दर्दनाक ज़िन्दगी का दास्तान हमें हर रोज़ सुनने को मिलता हैं.वे जिन गन्दी नालियों में फंस जाते हैं,वहां से उनका उत्थान होता हैं या नहीं .इस प्रश्न के प्रति समाज उदासीन हैं.नारी अगर आत्मबल प्राप्त करेगी तो भी समाज में उसे किस हद तक स्वीकृति मिलेगी.सूर्यबाला जी ने ज़िन्दगी से लड़ते हुए सफलता प्राप्त मानु का सशक्त चित्रण किया हैं.असली ज़िन्दगी में चपलता या अज्ञानवश समाज के गड्ढों में पड़े निर्दोषी लड़कियों का उद्धार किस हद तक हो रहा है .यह हमारे दिमाग को झकझोरनेवाली समस्या हैं. इसका हल ढूँढन॓ की कोशिश शासकों के साथ -साथ दुसरे संगठन भी कर रहे हैं.फिर भी समाज में ऐसी घटनाएँ दिन -ब - दिन घटती जा रही है .... ।

Dr. Surya Boss

Guest Lecturer in Hindi

M.E.S.Asmabi College



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