Thursday, February 10, 2011

साहित्य मूल्यों के प्रसार का सशक्त माध्यम है – पद्मश्री जे.ए.के. तरीन

राष्ट्रीय मानव अधिकार संगठन की दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ


साहित्य मूल्यों के प्रसार का सशक्त माध्यम है । राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के सहयोग से आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर विशिष्ट अतिथि अपने वक्तव्य में विश्वविद्यालय के कुलपति पद्मश्री प्रो. जे.ए.के तरीन ने यह क्या दी है । उन्होंने कहा कि मानव अधिकार खुद एक गंभर विषय है । इसे सही तरीके से समझने के लिए हमें समाज को समझना जरूरी है । हमारे अध्ययन का विषय और प्रत्यक्ष ज्ञान के आलोक समाझ जाए तो समाज की दृष्टि से मानव अधिकार एक अधकार है । एक प्रबुद्ध समाज में साहित्य की क्या भूमिका होती है ? यही आज हमारा चिंतनीय विषय है । मानवाधिकारों के आज मीडिया में ज्यादा नज़र आते हैं, अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाए अधिकांश मानव अधिकार संगठन आज मानवाधिकार के कुछ ऐसे मामलें लेकर प्रस्तुत होते मिलते हैं जो मीडिया के लिए बड़ा मसाला है । सामान्य लोगों की पीड़ा को समझने वाले बहुत कम नज़र आते हैं । मानव अधिकार की अवधारणा एक दूसरा पक्ष है दिलितों के विरुद्ध अमानवीय कृत्यों का चिंतन । वास्तव हममें अधिकांश लोग इस अनुबोध से वंचित है कि वास्तव में मानव प्रतिष्ठा का भंग कैसा हो रहा है । बड़े जातीय या सामाजिक संगठनों में मावाधिकारों के उल्लंघन की बात पर कहने का साहस कौन कर रहा है । ऐसे समाजों में मानव अधिकारों की रक्षा के रास्ते से कानून भी दूर है । वास्तव में क्या हमारी मनोवृत्ति को बदलने के लिए क्या कानून की जरूरत है ? हम नियमों और कायदों से निर्देशित है और इनसे हम यह मानते है हमारी कौन-सा कृत्य सी है और कौन-सा ग़लत । इन सबमें हमारे समक्ष समस्याएँ खड़ा करने वाले तथा कथित धार्मिक नेता होते हैं । ईमानदारी का गुण हममें विकसित होता है तो हम पाखंडी क्यों बन जाते हैं ? आज हमारी चित्तवृत्ति को परिष्कृत करने का काम साहित्य कर रहा है । साहित्य मूल्यों के प्रसार का सशक्त माध्यम है । हमें नई पीढ़ी के समक्ष सच्चे व स्वच्छ आदर्श प्रस्तुत करना है । तभी जाकर भविष्य में एक आदर्शमय समाज की कल्पना कर सकते हैं जिसमें किसी के अधिकारों का कही उल्लंघन न हो ।
साहित्य अन्याय के विरुद्ध संवेदनात्मक सत्याग्रह है – प्रो. नंदकिशोर आचार्य
गांधीजी के दर्शन के आलोक में यदि कहा जाए तो साहित्य अन्याय के विरुद्ध संवेदनात्मक सत्याग्रह है । राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा आयोजित द्विदिवसीय संगोष्ठी के उद्घाटन के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में अपने वक्त में प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक प्रो. नंद किशोर आचार्य ने यह बात कही । यदि हम पराई पीड़ा को जाने तो मावाधिकार की अलग से व्याख्या की जरूरत नहीं पड़ती है । वैसे तो मानवाधिकार के संबंध में कहा जाता है कि यह 20 सदी में विकसित विचार है, वास्तव में यह चेतना मानव समाज और सभ्यता के आरंभ से ही रही है । कोई भी व्यक्तियों के समूह में अंतर्वैयक्तिक, अंतर पारिवारिक, अंतर सामुदायिक संबंध होने चाहिए । संबंध नहीं तो समाज नहीं है । संबंधों में ही पारस्परिकता का बोध होता है । इसमें प्रत्येक को उचित हक, उचित न्याय मिले । भावनात्मक स्तर पर होता है, मगर व्यावहारिक स्तर पर न्याय की गारंटी मिलनी चाहिए । जॉन रॉयल के कथनानुसार किसी भी सामाजिक संगठन का पहला गुण न्याय होना चाहिए । न्याय ही सामाजिकता का व्यावहारिक रूप है । हम तथाकथित दलित को ताऊ, मामा जैसे संबोधनों से भावनात्मक संबंध तो बनाते थे, मगर उन्हें छूते नहीं थे, इसी में व्यावहारिक न्याय का सवाल उठता है । हमारी ऐसी ही मनः स्थिति के कारण परिवारों में तथा समाज में महिलाओं की स्थिति भी ऐसी ही होती है । उन्हें भावनात्मक स्तर पर देवता जैसे संबोधन व परिकल्पनाओं से हम संतुष्ठ होना चाहते हैं मगर व्यावहारिक तौर पर न्याय नहीं करते हैं ।
न्याय क्या है... अपराधी को सजा देना ही न्याय है क्या .... न्याय की परिभाषा कई तरह से देते हैं । मनुष्य को मनुष्य के रूप में जीने का हक है या नहीं, इसका जवाब ही न्याय को स्पष्ट कर देता है । हमें अन्याय के विभिन्न रूपों को पहचानना भी जरूरी है । एक कर्तात्मक अन्याय होता है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति भावनात्मक और व्यावहारिक रूप से व्यवहार नहीं करता है । हमें यह जरूरी है कि हम भावनात्मक एवं व्यावहारिक रूप से ठीक तरह से काम करें । दूसरे प्रकार का अन्याय है संरचनात्मक अन्याय - अर्थात सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संरचना के प्रति अन्याय । कानून तो बनाए जाते हैं. मगर कानून किस हद तक मनःस्थिति को बदल सकता है ... संरचनात्मक अन्याय के लिए रक्षा की गारंटी कानून दे सकता है । हमारे मन में परिवर्तन नहीं होता है, यही समस्या का मूल कारण है । हम कई अवधारणाएँ सोचे बिना ही स्वीकारते हैं । पश्चिम की कई अवधारणाओं को भी हम इसी प्रकार स्वीकार चुके हैं । यदि हम नहीं स्वीकारेंगे तो यह माना जाता है कि हम आधुनिक नहीं है ।
राष्ट्रीय मानव अधिकार संगठन, नई दिल्ली तथा पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय, पुदुच्चेरी के हिंदी विभाग के संयुक्त तत्वावधान में साहित्य, समाज और मानव अधिकार विषय पर द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय के सांस्कृतिक संकुल में गुरुवार 10 फरवरी 2011 को किया गया । संगोष्ठी का उद्घाटन प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक एवं विचारक प्रो. नंद किशोर आयार्य, विश्वविद्यालय के कुलपति पद्मश्री प्रो. जे.ए.के. तरीन तथा श्री के.एस. मणि, भा.प्र.से., महासचिव, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के करकमलों से दीप प्रज्वलन के साथ हुआ । कार्यक्रम का शुभारंभ विश्वविद्यालय गान तथा केंद्रीय विद्यालय – 2 के छात्रों द्वारा वैष्णव जन तो.. भवन के साथ हुआ । हिंदी विभागाध्य प्रो. विजयलक्ष्मी ने अतिथियों का स्वागत किया । आयोग के सहायक निदेशक डॉ. सरोज कुमार शुक्ल ने संगोष्ठी का परिचय दिया । उद्घाटन के अवसर पर आयोग के महासचिव श्री के.एस. मणि जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारत में मानव अधिकारों की रक्षा की दिशा में आयोग अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है । संगोष्ठी का संचालन हिंदी विभाग की सहायक आचार्य डॉ. पद्मप्रिया ने किया । राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अवर सचिव श्री संजय कुमार ने धन्यवाद ज्ञापन किया ।
उद्घाटन के उपरांत दो अकादमिक सत्रों का आयोजन हुआ । प्रथम अकादमिक सत्र साहित्य के सामाजिक सरोकार, प्रयोजन और मानव अधिकार पर केंद्रित था । सत्र की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के प्रो. गिरीश्वर मिश्र जी ने किया । सत्र के विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय के वित्त अधिकारी श्री एस. राघवन जी ने कहा कि यदि हम भाईचारे एवं प्रेम की सही अवधारणा को समझकर अपने व्यवहार में अपनाएं तो अलग से हमें मानव अधिकारों की चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ती है । मानवीय संवेदना को समझने में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । अतः स्कूल, कालेजों और विश्वविद्यालयों स्तरों पर भी अध्ययन का विषय क्षेत्र विज्ञान हो या इंजनियरी मगर पाठ्यक्रम में अच्छ साहित्य को भी स्थान देना जरूरी है । प्रथम सत्र में दो आलेख प्रस्तुत किए गए । मानव अधिकारों का समाजशास्त्र : आदर्श और यथार्थ विषयक आलेख डॉ. सुभाष शर्मा ने प्रस्तुत किया और डॉ. प्रतिभा ने स्त्री सत्ता, सरोगेसी और मानव अधिकार पर अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया । सत्र का संचालन हिंदी विभाग के सहायक आचार्य श्री प्रमोद मीणा ने किया और धन्यवाद ज्ञापन हिंदी सहायक श्री जे. सुरेंद्रन ने किया ।
द्वितीय अकादमिक सत्र का विचारणीय विषय था – सामाजिक अन्याय के प्रश्न : विविध आयाम । सत्र की अध्यक्षता गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर प्रो. अरुणेश नीरन ने की । सत्र में विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित प्रो. सी.एस. राधाकृष्णन ने पौराणिक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मानव अधिकारों और मानवीय मूल्यों पर प्रकाश डाला । सत्र में साहित्य अकादमी के उप सचिव श्री ब्रजेंद्र कुमार त्रिपाठी ने लोकतंत्र, समाजिक सुरक्षा और मानव अधिकार विषय पर अपना प्रपत्र प्रस्तुत किया । इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय के विधि विद्यापीठ की सहायक प्रोफ़ेसर श्रीमती मानसी शर्मा ने सम्मान के लिए हत्या, मानव देह व्यापार और मानव अधिकार विषय पर अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया । सत्र के अध्यक्षीय वक्तव्य के अलावा भक्ति आंदोलन, समाज और मानव अधिकार पर केंद्रित वक्तव्य प्रो. अरुणेश नीरन ने प्रस्तुत किया । सत्र का शुभारंभ सुश्री तृप्ति मोहंता के प्रार्थना गीत के साथ हुआ । सत्र का संचालन हिंदी विभाग के सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. सी. जय शंकर बाबु ने किया । हिंदी विभाग की शोध-छात्रा श्रीमती अपर्णाराय ने धन्यवाद ज्ञापन किया ।
शाम डॉ. पद्मप्रिया के निर्देशन में मानवीय संवेदनाओं पर केंद्रित विचारोत्तेजक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया । अमित व उनकी टीम ने कुशल एवं भावपूर्ण प्रस्तुति से दर्शकों को काफी प्रभावित किया और सबने कलाकारों की तारीफ़ की ।

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