Saturday, April 3, 2010

कविता

सोचो तो असर होता

- श्यामल सुमन

जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता

होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता

आगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदेले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता


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