- कृष्ण कुमार यादव*
'सत्यमेव जयते'- प्राचीन भारतीय साहित्य में मुंडकोपनिषद् से लिया गया यह सूत्र वाक्य आज भी मानव जगत की सीमा निर्धारित करता है । 'सत्य की विजय हो' का विपरीत होगा 'असत्य की पराजय हो' । सत्य-असत्य, सभ्यता के आरम्भ से ही धर्म एवं दर्शन के केद्र-बिंदु बने हुये हैं। रामायण में भगवान राम की रावण पर विजय को असत्य पर सत्य की विजय बताया गया और प्रतीकस्वरूप हम आज भी इसे दशहरा पर्व के रूप में मनाते हैं तथा रावण का पुतला जलाकर सत्य की विजय का शंखनाद करते हैं। महाभारत में भी एक कृष्ण के नेतृत्व और पाँच पाण्डवों की सौ कौरवों और अट्ठारह अक्षौहिणी सेना पर विजय को सत्य की असत्य पर विजय बताया गया। कालांतर में वेद और पुराण के विरोधी बुद्व व जैन ने भी सत्य को पंचशील व पंचमहाव्रत का प्रमुख अंग माना।
'सत्य' एक बेहद सात्विक पर जटिल शब्द है। ढाई अक्षरों से निर्मित यह शब्द उतना ही सरल है जितना कि 'प्यार' शब्द, पर इस मार्ग पर चलना उतना ही कठिन है जितना कि सच्चे प्यार के मार्ग पर चलना। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जिन्हें सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी उपासक माना जाता है ने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। उनके शब्दों में- ''सत्य ही ईश्वर है एवं ईश्वर ही सत्य है।'' यह वाक्य ज्ञान, कर्म एवं भक्ति योग की त्रिवेणी है। सत्य की अनुभूति अगर ज्ञान योग है तो इसे वास्तविक जीवन में उतारना कर्मयोग एवं अंतत: सत्य रूपी सागर में डूबकर इसका रसास्वादन लेना ही भक्ति योग है। शायद यही कारण है कि लगभग सभी धर्म सत्य को केन्द्र बिन्दु बनाकर ही अपने नैतिक और सामाजिक नियमों को पेश करते हैं।
सत्य का विपरीत असत्य है। सत्य अगर धर्म है तो असत्य अधर्म का प्रतीक है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- ''जब-जब इस धरा पर अधर्म का अभ्युदय होता है तब-तब मैं इस धरा पर जन्म लेता हूँ।'' भारत सरकार के राजकीय चिह्न अशोक-चक्र के नीचे लिखा 'सत्यमेव जयते' शासन एवं प्रशासन की शुचिता का प्रतीक है। यह हर भारतीय को अहसास दिलाता है कि सत्य हमारे लिये एक तथ्य नहीं वरन् हमारी संस्कृति का सार है । साहित्य, फिल्म एवं लोक विधाओं में भी अंतत: सत्य की विजय का उद्धोष होता है ।
सत्य के विलोम असत्य का सबसे व्यापक रूप आज भ्रष्टाचार है। ऐसा नहीं है कि समाज में पहले भ्रष्टाचार नहीं था। कोटिल्य ने अर्थशास्त्र में 27 प्रकार के भ्रष्टाचारों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि-''जिस प्रकार जिह्वा पर रखे गये शहद का स्वाद न लेना मनुष्य हेतु असम्भव है, उसी प्रकार सरकारी कर्मचारी हेतु राजकोष के एक अंश का भक्षण न करना असम्भव है।'' भ्रष्टाचार एक ऐसा विष बेल है जो समाज में नित्य फैल रहा है। इसे खत्म करने हेतु कड़े से कड़े दण्ड अपनाये गये, पर इसका विष और भी गहरा होता गया। यही कारण है कि एक दौर में भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी समस्या कहकर इसका सामान्यीकरण करने की कोशिश की गयी तो देखते ही देखते भ्रष्टाचार को शिष्टाचार का पर्याय माना जाने लगा। निश्चितत: जब आप किसी व्यक्ति से काम निकलवाने हेतु उसे रिश्वत न देकर उसके जन्म दिन पर एक मँहंगा और खूबसूरत उपहार प्रदान करते हैं तो आप अपनी बुरी नीयत को छुपाने का एक शिष्ट तरीका अपना रहे होते हैं।
वस्तुत: भ्रष्टाचार स्वयं व्यवस्था के अन्दर से ही जन्म लेता है। नियमों की जटिलता, न्याय में देरी, जागरूकता का अभाव, शार्टकट तरीकों से लक्ष्य पाने की होड़ और मानव का स्वार्थी स्वभाव ही इसका मूल कारण है। इन सबसे निपटने हेतु स्वतन्त्र न्यायपालिका, स्वतन्त्र प्रेस, लोकायुक्त व लोकपाल संस्था, सतर्कता आयोग, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो जैसी संस्थायें गठित की गयी । वर्तमान में उदारीकरण व्यवस्था के द्वारा लाइसेंस- परमिट राज की समाप्ति, सूचना-तकनीक के बढ़ते दायरे के साथ हर किसी पर मीडिया की नजर , सिटिजन-चार्टर के माध्यम से विभिन्न विभागों द्वारा नागरिकों को जागरूक बनाना, ई-गर्वनेस के द्वारा प्रशासन में कागजी बोझ कम करके कम्प्यूटराइजेशन द्वारा पारदर्शिता लाना व तत्काल सेवा मुहैया कराना, सिविल सोसायटी द्वारा अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना, सूचना का अधिकार लागू करने व स्टिंग आपरेशन जैसे तत्वों के द्वारा भी भ्रष्टाचार पर काबू करने के प्रयास किये गये हैं।
भ्रष्टाचार उस दीमक की तरह है जो समाज को अन्दर ही अन्दर खोखला करता है। यही कारण है कि इसे समाप्त करने हेतु हमें उस मर्म पर चोट करनी होगी, जहाँ से भ्रष्टाचार रूपी गेंद उछलती है, न कि उस जगह जहाँ पर वह गिरती है। भ्रष्टाचार पर अनेकों सेमिनार हुये, बड़े-बड़े पन्ने इसे खत्म करने के दावे से रंगे गये और तमाम जबानी जमा खर्च हुयी पर हम इस तथ्य की अवहेलना कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार अन्तत: एक नैतिक एवं वैयक्तिक समस्या है। जब तक हर व्यक्ति स्वयं को इस दोष से मुक्ति दिलाने का प्रयास नहीं करता तब तक भ्रष्टाचार उन्मूलन एक नारा मात्र ही रहेगा। भगवान राम अन्त तक रावण के दस सिरों को तीरों से बींधते रहे पर उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा, अन्तत: विभीषण के इशारे पर उन्होंने रावण की नाभि पर तीर चलाया और उसे धराशायी करने में सफल रहे। ऐसा ही भ्रष्टाचार के साथ भी है।
भ्रष्टाचार एक सामाजिक समस्या भी है। इससे निजात पाने हेतु जरूरी है कि लोग वैयक्तिक व मानसिक रूप से भ्रष्टाचार से मुक्त हों। गाँधीजी ने सत्याग्रह का प्रतिपादन करते हुये कहा था कि इसे पूर्ण रूप में अपनाने हेतु जरूरी है कि सर्वप्रथम मानव अपने दुराग्रहों से मुक्ति पाये एवं तत्पश्चात दूसरों हेतु एक आदर्श उपस्थित कर उन्हें सत्य की राह दिखाये। इस सम्बन्ध में गाँधीजी का एक सूत्र वाक्य दृष्टव्य है-
'सत्य' एक बेहद सात्विक पर जटिल शब्द है। ढाई अक्षरों से निर्मित यह शब्द उतना ही सरल है जितना कि 'प्यार' शब्द, पर इस मार्ग पर चलना उतना ही कठिन है जितना कि सच्चे प्यार के मार्ग पर चलना। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जिन्हें सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी उपासक माना जाता है ने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। उनके शब्दों में- ''सत्य ही ईश्वर है एवं ईश्वर ही सत्य है।'' यह वाक्य ज्ञान, कर्म एवं भक्ति योग की त्रिवेणी है। सत्य की अनुभूति अगर ज्ञान योग है तो इसे वास्तविक जीवन में उतारना कर्मयोग एवं अंतत: सत्य रूपी सागर में डूबकर इसका रसास्वादन लेना ही भक्ति योग है। शायद यही कारण है कि लगभग सभी धर्म सत्य को केन्द्र बिन्दु बनाकर ही अपने नैतिक और सामाजिक नियमों को पेश करते हैं।
सत्य का विपरीत असत्य है। सत्य अगर धर्म है तो असत्य अधर्म का प्रतीक है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- ''जब-जब इस धरा पर अधर्म का अभ्युदय होता है तब-तब मैं इस धरा पर जन्म लेता हूँ।'' भारत सरकार के राजकीय चिह्न अशोक-चक्र के नीचे लिखा 'सत्यमेव जयते' शासन एवं प्रशासन की शुचिता का प्रतीक है। यह हर भारतीय को अहसास दिलाता है कि सत्य हमारे लिये एक तथ्य नहीं वरन् हमारी संस्कृति का सार है । साहित्य, फिल्म एवं लोक विधाओं में भी अंतत: सत्य की विजय का उद्धोष होता है ।
सत्य के विलोम असत्य का सबसे व्यापक रूप आज भ्रष्टाचार है। ऐसा नहीं है कि समाज में पहले भ्रष्टाचार नहीं था। कोटिल्य ने अर्थशास्त्र में 27 प्रकार के भ्रष्टाचारों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि-''जिस प्रकार जिह्वा पर रखे गये शहद का स्वाद न लेना मनुष्य हेतु असम्भव है, उसी प्रकार सरकारी कर्मचारी हेतु राजकोष के एक अंश का भक्षण न करना असम्भव है।'' भ्रष्टाचार एक ऐसा विष बेल है जो समाज में नित्य फैल रहा है। इसे खत्म करने हेतु कड़े से कड़े दण्ड अपनाये गये, पर इसका विष और भी गहरा होता गया। यही कारण है कि एक दौर में भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी समस्या कहकर इसका सामान्यीकरण करने की कोशिश की गयी तो देखते ही देखते भ्रष्टाचार को शिष्टाचार का पर्याय माना जाने लगा। निश्चितत: जब आप किसी व्यक्ति से काम निकलवाने हेतु उसे रिश्वत न देकर उसके जन्म दिन पर एक मँहंगा और खूबसूरत उपहार प्रदान करते हैं तो आप अपनी बुरी नीयत को छुपाने का एक शिष्ट तरीका अपना रहे होते हैं।
वस्तुत: भ्रष्टाचार स्वयं व्यवस्था के अन्दर से ही जन्म लेता है। नियमों की जटिलता, न्याय में देरी, जागरूकता का अभाव, शार्टकट तरीकों से लक्ष्य पाने की होड़ और मानव का स्वार्थी स्वभाव ही इसका मूल कारण है। इन सबसे निपटने हेतु स्वतन्त्र न्यायपालिका, स्वतन्त्र प्रेस, लोकायुक्त व लोकपाल संस्था, सतर्कता आयोग, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो जैसी संस्थायें गठित की गयी । वर्तमान में उदारीकरण व्यवस्था के द्वारा लाइसेंस- परमिट राज की समाप्ति, सूचना-तकनीक के बढ़ते दायरे के साथ हर किसी पर मीडिया की नजर , सिटिजन-चार्टर के माध्यम से विभिन्न विभागों द्वारा नागरिकों को जागरूक बनाना, ई-गर्वनेस के द्वारा प्रशासन में कागजी बोझ कम करके कम्प्यूटराइजेशन द्वारा पारदर्शिता लाना व तत्काल सेवा मुहैया कराना, सिविल सोसायटी द्वारा अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना, सूचना का अधिकार लागू करने व स्टिंग आपरेशन जैसे तत्वों के द्वारा भी भ्रष्टाचार पर काबू करने के प्रयास किये गये हैं।
भ्रष्टाचार उस दीमक की तरह है जो समाज को अन्दर ही अन्दर खोखला करता है। यही कारण है कि इसे समाप्त करने हेतु हमें उस मर्म पर चोट करनी होगी, जहाँ से भ्रष्टाचार रूपी गेंद उछलती है, न कि उस जगह जहाँ पर वह गिरती है। भ्रष्टाचार पर अनेकों सेमिनार हुये, बड़े-बड़े पन्ने इसे खत्म करने के दावे से रंगे गये और तमाम जबानी जमा खर्च हुयी पर हम इस तथ्य की अवहेलना कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार अन्तत: एक नैतिक एवं वैयक्तिक समस्या है। जब तक हर व्यक्ति स्वयं को इस दोष से मुक्ति दिलाने का प्रयास नहीं करता तब तक भ्रष्टाचार उन्मूलन एक नारा मात्र ही रहेगा। भगवान राम अन्त तक रावण के दस सिरों को तीरों से बींधते रहे पर उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा, अन्तत: विभीषण के इशारे पर उन्होंने रावण की नाभि पर तीर चलाया और उसे धराशायी करने में सफल रहे। ऐसा ही भ्रष्टाचार के साथ भी है।
भ्रष्टाचार एक सामाजिक समस्या भी है। इससे निजात पाने हेतु जरूरी है कि लोग वैयक्तिक व मानसिक रूप से भ्रष्टाचार से मुक्त हों। गाँधीजी ने सत्याग्रह का प्रतिपादन करते हुये कहा था कि इसे पूर्ण रूप में अपनाने हेतु जरूरी है कि सर्वप्रथम मानव अपने दुराग्रहों से मुक्ति पाये एवं तत्पश्चात दूसरों हेतु एक आदर्श उपस्थित कर उन्हें सत्य की राह दिखाये। इस सम्बन्ध में गाँधीजी का एक सूत्र वाक्य दृष्टव्य है-
पाप से घृणा करो, पापी से नहीं ।
शायद पूर्ण निष्पाप, तुम भी नहीं॥
शायद पूर्ण निष्पाप, तुम भी नहीं॥
दर्शन की भाषा में कहें तो हर व्यक्ति ईश्वर का चित् होने के कारण सत् है। उसके दुराग्रह ही उसे बन्धनों में बाँधते हैं। इन बन्धनों से मुक्ति के विभिन्न रास्ते बताये गये हैं, जिसको अपनाने के पश्चात व्यक्ति मोक्ष की अवस्था को प्राप्त करता है। मोक्ष प्राप्ति के पश्चात व्यक्ति इस संसार के पुनर्जन्म चक्र से मुक्त हो जाता है।
यह सत्य है कि भ्रष्टाचार की जड़ें समाज में काफी गहरी हैं, पर इतनी भी गहरी नहीं कि कोई चाहकर भी उन्हें नहीं हिला सके। यही कारण है कि भ्रष्टाचार पर पड़ी हर चोट उसे झकझोर कर रख देती है। सत्य भले ही कम चोट करता है, पर जब करता है तो वह बेहद तीक्ष्ण होती है। जरूरत भ्रष्टाचार को एक लाइलाज रोग मानकर शान्त बैठने की नहीं, वरन् इसे समाप्त करने हेतु प्रयास करने की है-
कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता।
एक पत्थर को तबियत से उछालो तो यारों ॥
एक पत्थर को तबियत से उछालो तो यारों ॥
*भारतीय डाक सेवा
निदेशक डाक सेवाएं
अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101
आज के दौर में बेहद सुन्दर व सार्थक लेख. कृष्ण कुमार जी को बधाई.
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