Sunday, February 28, 2010

होली की शुभकामनाएँ

होली पर्व पर विशेष कविताएँ

रंगों का नव पर्व बसंती

-संजीव सलिल

रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया ।

गिरगिट

- श्यामल सुमन

होली हम भी मनाते हैं,

और हमारे रहनुमा भी मनाते हैं।

लेकिन दोनों के होली में फर्क है,

जिसके लिए प्रस्तुत यह तर्क है।।

सब जानते हैं कि

होली रंगों का त्योहार है।

एक दूसरे के चेहरे पर,

रंग लगाने का व्यवहार है।।

रंगों में असली चेहरा,

कुछ देर के लिए छुप जाता है।

पर अफसोस, ऐसा दिन हमारे लिए,

साल में बस एकबार ही आता है।।

लेकिन हमारे रहनुमा,

पूरे साल होली मनाते हैं।

बिना रंग लगाये, सिर्फ रंग बदलकर

अपना असली चेहरा छुपाते हैं।।

देखकर इन रहनुमाओं की,

रंग बदलने की रफ्तार।

गिरगिटों में छायी बेकारी,

और वे करने लगे आत्महत्या लगातार।।

होलियाए दोहे

- श्यामल सुमन


होली तो अब सामने खेलेंगे सब रंग।
मँहगाई ऐसी बढ़ी फीका हुआ उमंग।।

पैसा निकले हाथ से ज्यों मुट्ठी से रेत।
रंग दिखे ना आस की सूखे हैं सब खेत।।

एक रंग आतंक का दूजा भ्रष्टाचार।
सभी सुरक्षा संग ले चलती है सरकार।।

मौसम और इन्सान का बदला खूब स्वभाव।
है वसंत पतझड़ भरा आदम हृदय न भाव।।

बना मीडिया आजकल बहुत बड़ा व्यापार।
खबरों के कम रंग हैं विज्ञापन भरमार।।

रंग सुमन का उड़ गया देख देश का हाल।
जनता सब कंगाल है नेता मालामाल।।

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