Saturday, January 23, 2010

कविता

मुक्तिका


संजीव 'सलिल'

दिल में क्या है न सब से सदा बोलिए.
सोचिये फिर समझ राज निज खोलिए.
बोल दी बात जो, हो न वापिस कभी.
पेश्तर बोलने के जरा तोलिये.
राह मंदिर कि हो या कि मस्जिद कि हो.
जब चलें तो जुबां में अमृत घोलिये.
लोग कहते रहे कि 'सलिल' सो रहा.
क्या पता उनको हमने सपन बो लिए.

आप की बात कोई सुने, न सुने.
हौसले से 'सलिल' सच यहाँ बोलिए.

1 comment:

  1. namaskaar saleelsaaheb yugmanas mey aapkee kavitaaye humsubpadh rahe hai sub dil ko choone vaalee hai muktikaa koumee ekataakee mujh boot kadee hai

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