Thursday, July 16, 2009

कविता







एक बूँद





- स्वर्ण ज्योति





मैंनें देखी,
एक बूँद औचट उछली
सागर-तट-पर,
तत्क्षण हो गई विलीन।
अभी-अभी थी अरे यहीं,
अभी-अभी खो गई कहीं।

रवि किरणों से मिलकर,
रंग अनोखे उसने पाए।
संतृप्त हृदय को मेरे,
बहुत अधिक वह भाए।

संवेदना का रंग सुनहरा,
भीगी तरल भावना का
नवरंग भरा था भूरा।

अनगिनत चाहनाओं का रंग चाँदिनी,
मधुर मुस्कानों का रंग मयूखी
और कहकहों का रंग केसरी।

वास्तविकता यह कैसी...?
मूक विवशता यह कैसी...?
केवल रही क्षणिक समीपता उससे कि
आतुरता थी उसको मिलने नभ गंगा से।

एक बूँद,
अभी-अभी थी अरे यहीं,
हो गई अचानक अंतर्लीन,

स्वर्ण ज्योति विहीन।

1 comment:

  1. सरस अभिव्यक्ति. 'divyanarmada.blogspot.com' हेतु रचना 'salil.sanjiv@gmail.com' पर भेजें.

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