Saturday, April 25, 2009

कविता


तीन चौपदे


- आचार्य संजीव 'सलिल'



दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.

दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.

दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-

दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.
***

कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.

जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?

बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-

पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
***

कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.

इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.

सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-

दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.

1 comment:

  1. दिलकाश दिल की दिल्लगी दिल को भाई


    dr.s.basheer(hpcl)

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