Monday, April 20, 2009
चार कविताएँ
मंज़िल है पास मगर...
- शेर्फराज़ नवाज़, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ग्लामरगोन, वेल्स, यू.के.
मंज़िल है पास मगर,
नज़र से दूर है राह मेरी,
सारी खुशी मिले तुझे,
मुझे खुशी न मिले सही,
यही है तमन्ना मेरे सनम,
जनम भर साथ रहे तेरा,
मेरा कौन है सहारा,
हमारा बस तू ही है किनारा ।
***
रहता तू है करीब मेरे,
खफा हूँ मैं, नसीब से मेरे,
दोस्तों की कमी न थी मगर,
कैसे मैं करूँ तुझे ख़बर,
सता रही है सूनापन मुझे,
अकेलापन है कभी न सुलझे,
अपने आप से हर पल हूँ मैं उलझे ।
गुज़ारिश है मेरी ये खुदा से,
बात करे भला कोई प्यार से ।
***
तुमने सोचा था कि हम समझ लेंगे सभी,
आज न हुआ तो यह होगा फिर कभी,
नैया भी हुआ तो आएँगे लौटकरके यहीं,
कैसे यह जान लिया कि कोई चारा नहीं,
हमारे साथ देगा विकी भी,
डराए है हमें प्लागियरिस्म अभी,
हम तो फसेंगे ही कभी न कभी ।
***
हमारा नाम है शेरफराज़,
शायरी से हुए है हम नवाज़,
कोई जो सुने तो कहे (शाबाश) शबाज़,
सैर पे निकले है सर पे लेके (ताज) ताज़,
शेर देखे तो होजाए बेमिजाज़,
प्यार से लोग बुलाते हैं हमें,
शेर-शायरफ़राज़ ।
***
बंधु!
ReplyDeleteवन्दे मातरम.
आपकी रचना पढी. शुरुआत अच्छी है. आपमें अनुभूतियों के अभिव्यक्त करने की कला है, उसे जितना निखारेंगे, उतना प्रशंसित होंगे.
भाषा के सन्दर्भ में सजग रहें, कोई अनावश्यक शब्द न हो. 'प्लागियारिस्म' जैसे शब्द का अर्थ नीचे पाद टिप्पणी में दें अन्यथा सामान्य पाठक नहीं समझेगा. 'लौटकरके' में 'के' क्यों है?
सुझावों को अन्यथा न लें. झूठी तारीफ नुकसान करेगी. आप में सम्भावना है...अच्छे रचनाकारों को जितना पढेंगे भाषा निखरती जायेगी...विचार को कागज़ पर लेन के पहले अलग-अलग नजरिये से सोचें जो जबरदस्त लगे उसे लिखें बाकी भूल जाएँ...शुभकामनायें...
अपनी रचनाएँ 'दिव्यनर्मदा@जीमेल.कॉम पर भी भेजें.
-आचार्य संजीव 'सलिल'
- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Sir,
ReplyDeleteThanks a lot for the suggestions. I am highly honored and glad to have been commented. And this very actions has equipped me to boost my confidence level. I will certainly consider these points while writing in future. My Dad who is himself a poet has always been my inspiration, but I haven't actually tried my hands on this earlier. Hope I match your expectations the next time.
Thanks
Syed Sherfraz Nawaz.