Thursday, December 11, 2008

दिव्या माथुर की तीन कविताएँ

आरोप

झोंपड़े की
झिर्रियों से
झर के आते झूठ
ख़सरे से फैलने लगे

बदन पर मेरे

कितने छिद्रों को बंद करती
केवल अपने दो हाथों से

सच को सीने में छिपा
मैं जलती चिता पर
बैठ गई न रहीं झिर्रियाँ
न झोंपड़ान ही झूठ!


आशंका

मेरी मुंडेर पर कौआ रोज़ रोज़
काँव काँव करता है

कमब्ख़त कितना झूठ बोलता है

और काली बिल्ली

जब तब रास्ता काट जाती है
आशंका के विपरीत
कुछ नहीं होता!

सती हो गया सच

तुम्हारे छोटे, मँझले
और बड़े झूठ
खौलते रहते थे मन में
दूध पर मलाई सा
मैं जीवन भर
ढकती रही उन्हें

पर आज उफ़न के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार गए
मेरी ओट लिए
तुम साधु बने खड़े रहे
और झूठ की चिता पर
सती हो गया सच!

1 comment:

  1. Your feelings expressed in above three poems reflects the original colour of the society and declaring the factisam. I am sure that in your wide poetry you will give the solution for this orthodox society which needs change. Wish you all success.

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