Tuesday, January 22, 2008

दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचलन


दक्षिण भारत की संज्ञा भारत के दक्षिणी भू-भाग को दी जाती है जिसमें केरल, कर्नाटक, आंध्र एवं तमिलनाडु राज्य तथा संघ शासित प्रदेश पुदुच्चेरी शामिल हैं । केरल में मलयालम, कर्नाटक में कन्नड, आंध्र में तेलुगु और तमिलनाडु तथा पुदुच्चेरी में तमिल अधिक प्रचलित भाषाएँ हैं । ये चारों द्रविड परिवार की भाषाएँ मानी जाती हैं । इन चारों भाषा-भाषियों की संख्या भारत की आबादी में लगभग 25 प्रतिशत है । दक्षिण की इन चारों भाषाओं का अपनी-अपनी विशिष्ट लिपियाँ हैं । सुसमृद्ध शब्द-भंडार, व्याकरण तथा समृद्ध साहित्यिक परंपरा भी है । अपने-अपने प्रदेश विशेष की भाषा के प्रति लगाव के बावजूद अन्य प्रदेशों के भाषाओं के प्रति यहाँ की जनता में निस्संदेह आत्मीयता की भावना है । अतः यह बात स्वतः स्पष्ट है कि दक्षिण भारत भाषाई सद्भावना के लिए उर्वर भूमि है ।
धार्मिक, व्यापारिक और राजनीतिक कारणों से उत्तर भारत के लोगों का दक्षिण में आने-जाने की परंपरा शुरू होने के साथ ही दक्षिण में हिंदी का प्रवेश हुआ । यहाँ के धार्मिक, व्यापारिक केंद्रों में हिंदीतर भाषियों के साथ व्यवहार के माध्यम के रूप में, एक बोली के रूप में हिंदी का धीरे-धीरे प्रचलन हुआ । दक्षिणी भू-भाग पर मुसलमान शासकों के आगमन और इस प्रदेश पर उनके शासन के दौर में एक भाषा विशेष के रूप में दक्खिनी का प्रचलन चौदहवीं से अठारहवीं सदी के बीच हुआ, जिसे ‘दक्खिनी हिंदी’ की संज्ञा भी दी जाती है । बहमनी, कुतुबशाही, आदिलशाही आदि शाही वंशों के शासकों के दौर में बीजापुर, गोलकोंडा, गुलबर्गा, बीदर आदि प्रदेशों में दक्खिनी हिंदी का चतुर्दिक विकास हुआ । दक्खिनी हिंदी का विकास एक जन भाषा के रूप में हुआ था । इसमें उत्तर-दक्षिण की कई बोलियों के शब्द जुड़ जाने से यह आम आदमी की भाषा के रूप में प्रचलित हुई । हैदरअली और टीपू के शासन काल में कर्नाटक के मैसूर रियासत में, अर्काट नवाबों की शासनावधि में तमिलनाडु के तंजावूर प्रांत में, आंध्र के कुछ सीमावर्ती प्रांतों में मराठे शासकों के द्वारा भी यह काफी प्रचलित हुई । आगे चलकर दक्खिनी हिंदी में प्रचुर मात्रा में साहित्य का सृजन भी हुआ है । यहाँ यह बात महत्वपूर्ण है कि हिंदी, हिंदुस्तानी, हिंदवी, उर्दू, दक्खिनी, दक्खिनी हिंदी आदि को एक ही मूल भाषा के विभिन्न शैलियों, बोलियों के रूप में मानकर चलने पर ही यह कथन आधारित है कि दक्षिण भारत में इस भाषा का प्रसार शताब्दियों पूर्व ही हुआ था ।
शताब्दियों पूर्व ही दक्षिण में हिंदी भाषा के प्रचलन के संबंध में एक और तथ्यात्मक उदाहरण केरल प्रांत से मिलता है । ‘स्वाति तिरुनाल’ के नाम से सुविख्यात तिरुवितांकूर राजवंश के राजा राम वर्मा (1813-1846) न केवल हिंदी के निष्णात् साबित हुए थे बल्कि स्वयं उन्होंने हिंदी में कई रचे थे । मिसाल के तौर पर उनका एक गीत यहाँ प्रस्तुत है –
मैं तो नहीं जाऊँ जननी जमुना के तीर ।
इतनी सुनके मात यशोदा पूछति मुरहर से,
क्यों नहिं जावत धेन चरावन बालक कह हमसे ।
कहत हरि कब ग्वालिन मिल हम
मींचत धन कुच से,
जब सब लाज भरी ब्रजवासिन कहे,
न कहो दृग से ।
ऐसी लीला कोटि कियो कैसे जायो मधुवन से,
पद्मनाभ प्रभु दीन उधारण पालो सब दुःख से ।

माता यशोदा के समक्ष बाल-कृष्ण की शिकायत पर आधारित स्वाति तिरुनाल का यह गीत सैकडों वर्षों पूर्व दक्षिण में हिंदी की सर्जना का भी एक श्रेष्ठ उदाहरण है ।
दक्षिण में हिंदी के प्रचलन के कारणों अथवा आधारों का पता लगाने पर यह बात स्पष्ट है कि धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक आदि आनेक आधार हमें मिलते हैं । इससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदी भाषा को दक्षिण पहुँचने का एक व्यापक आधार प्राप्त हुआ था । हाँ, यह मान्य तथ्य है कि यहाँ पहुँचकर हिंदी भाषा को कई शैलियाँ, कई शब्द और रूप मिल गए हैं । आदान-प्रदान का एक बड़ा काम हुआ, यही आगे एकता के आधार बिंदु की खोज का मूल साबित हुआ है । फलतः भिन्न भाषा-भाषियों के बीच आदान-प्रदान का एक सशक्त एवं स्वीकृत भाषा के रूप में दक्षिण में हिंदी प्रचलित हुई है ।
आधुनिक काल अर्थात 19 वीं, 20 वीं सदियों के दौरान हिंदी का दक्षिण भारत में व्यापक प्रचलन हुआ । एकता की भाषा के रूप में हिंदी के महत्व को समझकर कई विभूतियों ने इसे अपनी अभिव्यक्ति की वाणी के रूप में अपनाकर देश की जनता से अपील की थी । आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने हिंदी का प्रबल समर्थन किया था । उन्होंने हिंदी को ‘आर्य भाषा’ की संज्ञा देकर अपना महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिंदी में ही की थी । स्वामीजी द्वारा संस्थापित आर्य समाज ने जहाँ एक ओर समूचे भारत में भारतीयता एवं राष्ट्रीयता का प्रबल प्रचार किया, वहीं दूसरी ओर हिंदी का प्रचार-प्रसार भी किया । आंध्र में निजाम शासन के दौरान आर्य समाजियों ने चार हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित की थीं । उस समय निजाम शासन द्वारा आर्य समाज की गतिविधियों पर रोक लगाए जाने पर राज्य के सीमा पार सोलापुर से इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करके बड़ी चुनौती के साथ राज्य में इनका प्रसार किया जाता था । हिंदी के प्रचलन में आर्य समाज के योगदान का यह एक मिसाल है ।
स्वाधीनता आंदोनलन के दिनों में भावात्मक एकता स्थापित करने में हिंदी को सशक्त माध्यम मानकर इसके प्रचार के लिए कई प्रयास किए गए । तमिल के सुख्यात राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्य भारती ने अपने संपादन में प्रकाशित तमिल पत्रिका ‘इंडिया’ के माध्यम से 1906 में ही जनता से हिंदी सीखने की अपील की थी एवं अपनी पत्रिका में हिंदी में सामग्री प्रकाशित करने हेतु कुछ पृष्ठ सुरक्षित रखने की घोषणा की थी । आगे भारती के ही नेतृत्व में 1907-1908 के बीच मद्रास के ट्रिप्लिकेन में जनसंघ के तत्वावधान में हिंदी कक्षाओं का संचालन आरंभ हुआ था, जिसकी सूचना भारती ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को प्रेषित अपने पत्र (दि.29 मई, 1908) में दी थी । राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी ने अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में हिंदी प्रचार को भी जोड़ लिया था । दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के बीच कार्य करते हुए गांधीजी ने यह महसूस किया था कि भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलनेवाले भारतीयों के बीच व्यवहार की भाषा के रूप में हिंदी सर्वोपयुक्त भाषा है । दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए प्रवासी भारतीयों में एकता स्थापित करने कि लिए हिंदी को एक सफल माध्यम के रूप में पाकर उन्होंने अपने अनुभव अपनी पत्रिका ‘हिंद स्वराज’ में 1909 में व्यक्त करते हुए लिखा था कि भारतवासियों को एकता की कड़ी में जोड़ने के लिए हिंदी उपयोगी भाषा है । दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाते हुए उन्होंने न केवल हिंदी भाषा का पक्ष समर्थन किया, बल्कि इसे राष्ट्रवाणी होने की अधिकारिणी बनाने हेतु इसके व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु कारगर कदम भी उठाए थे । हिंदी गंगोत्री की धारा को दक्षिण के गाँवों तक ले आने संबंधी गांधीजी के भागीरथ प्रयासों से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों से कोई भी अनभिज्ञ नहीं हैं । 29 मार्च, 1918 को इंदौर में संपन्न हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में सभापति के मंच से भाषण देते हुए गांधीजी ने कहा था कि जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते, तब तक स्वाराज्य की सब बातें निरर्थक हैं । गांधीजी की राय में भाषा वही श्रेष्ठ है, जिसको जनसमूह सहज में समझ ले । आगे चलकर गांधीजी की संकल्पना से दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार का एक बड़ा अभियान शुरू हुआ । आज़ादी हासिल होने के बाद जब स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण हो रहा था, तब भी गांधीजी के इन महत्वपूर्ण विचारों के अनुरूप ही भारत के संविधान में राष्ट्रीय राजकाज की भाषाओं के रूप में हिंदी को तथा देश के विभिन्न राज्यों में वहाँ की क्षेत्रीय भाषाओं को राजकाज की भाषाओं के रूप में मान्यता देने की चेष्टा की गई है । गांधीजी के प्रयासों से 16 जून, 1918 को मद्रास में हिंदी वर्गों के आयोजन के साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के प्रयासों को ‘हिंदी प्रचार आंदोलन’ के रूप में एक व्यवस्थित आधार मिला । अपनी संकल्पनाओं को साकार बनाने की दिशा में गांधीजी ने अपने सुपुत्र देवदास गांधी को मद्रास भेजा था । गांधीजी से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रेरणा पाकर बिहार, उत्तर प्रदेश आदि प्रांतों के कई युवक दक्षिण पहुँचकर हिंदी प्रचार-प्रसार कार्य में अपना योगदान सुनिश्चित करने लगे थे । उनसे हिंदी सीखनेवाले हजारों हिंदी प्रेमी हिंदी प्रचारकों के रूप में निष्ठा एवं लगन के साथ दक्षिण के गावों में हिंदी का प्रचार करने लगे थे ।
1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का क्षेत्रीय कार्यालय जो मद्रास में खुला था, वही आगे परिवर्धित होकर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के रूप में ख्यात हुई । स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जब गांधीजी द्वारा संस्थापित संस्थाओं को राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं के रूप में घोषित करने की परंपरा शुरू हुई, उसी क्रम में 1964 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा भी राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित हुई । फिलहाल इस सभा के दक्षिण के चारों राज्यों में शाखाओं के अलावा उच्च शिक्षा शोध-संस्थान भी हैं । सभा द्वारा हिंदी प्रचार कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न हिंदी परीक्षाओं का संचालन किया जाता है । उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान के माध्यम से उच्च शिक्षा एवं शोध की औपचारिक उपाधियाँ भी प्रदान की जा रही हैं । दक्षिण में हिंदी प्रचार के क्रम में ऐसी कई छोटी-बड़ी संस्थाएँ स्थापित हुई हैं । ऐसे कुछ बड़ी संस्थाओं हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न संस्थाएँ शामिल हैं । केरल में 1934 में केरल हिंदी प्रचार सभा, आंध्र में 1935 में हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद और कर्नाटक में 1939 में कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति, 1943 में मैसूर हिंदी प्रचार परिषद तथा 1953 में कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की स्थापना हुई । ये संस्थाएँ हिंदी प्रचार कार्य में अपने ढंग से सक्रिय हैं । इन संस्थाओं के द्वारा संचालित कक्षाओं में हिंदी सीखकर इन्हीं संस्थाओं द्वारा संचालित परीक्षाएँ देनेवाले छात्रों की संख्या आजकल लाखों में है । तमिलनाडु को छोड़कर बाकी तीनों राज्यों के स्कूलों में एक भाषा के रूप में हिंदी की पढ़ाई जारी है । तमिलनाडु में तथाकथित राजनीतिक विरोध के कारण भले ही सरकारी स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई नहीं हो रही हो, कई निजी स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई जारी है, साथ ही यहाँ भी हिंदी प्रचार संस्थाओं की परीक्षाओं में बैठनेवाले छात्रों की संख्या भी लाखों में है । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि तमिलनाडु में ‘हिंदी स्पीकिंग कोर्स’ के बोर्ड हर कोई छोटे-बड़े शहर की छोटी-बड़ी गलियों में नज़र आते हैं ।
इसी क्रम में दक्षिण में हिंदी के प्रचार-प्रसार में योग देने में कई निजी प्रयास भी सामने आए हैं । निःशुल्क हिंदी कक्षाओं का संचालन, लेखन, प्रकाशन, पत्रकारिता, गोष्ठियों का आयोजन आदि कई रूपों में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु कई प्रयास किए जा रहे हैं । यहाँ हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन की बड़ी मांग रहती है, इनके दर्शकों में अधिकांश हिंदीतर भाषी भी होते हैं । हिंदी गीतों की लोकप्रियता की बात तो अलग ही है । अंत्याक्षरी, गायन आदि कई रूपों में हिंदी गीत दक्षिण के सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं । हिंदीतर भाषियों का हिंदी भाषा का अर्जित ज्ञान इतना परिमार्जित हुआ है कि यहाँ सैकडों की संख्या में हिंदी के लेखक उभर कर सामने आए हैं । परिनिष्ठित हिंदी में इनकी लेखनी से सृजित हजारों कृतियाँ हिंदी साहित्य की धरोहर बन गई हैं । दक्षिण से सैकडों की संख्या में हिंदी की पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई हैं । इनमें हिंदीतर भाषियों द्वारा हिंदी प्रचार हेतु निजी प्रयासों से संचालित पत्रिकाएँ भी कई हैं । हैदराबाद, बैंगलूर तथा चेन्नई नगरों से तीन बड़े हिंदी अखबार प्रकाशित हो रहे हैं । कई छोटे अखबार भी इन नगरों के अलावा अन्य शहरों से भी प्रकाशित हो रहे हैं । लेखन द्वारा हिंदी जगत में ख्यात होने वाले दक्षिण के हस्ताक्षरों में उपन्यासकार आरिगपूडि रमेश चौधरी, डॉ. बालशौरि रेड्डी के नाम उल्लेखनीय हैं । इनके अलावा कई लब्धप्रतिष्ठ लेखक भी हैं, इस लेख का आकार तथा सीमाओं को ध्यान में रखते हुए उन सबके नामों तथा योगदान का उल्लेख यहाँ करना संभव नहीं हो रहा है ।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि दक्षिण में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ अध्ययन, अध्यापन, लेखन, प्रकाशन में उल्लेखनीय प्रगति हुई है । दक्षिण में हिंदीतर भाषी विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच भी एक आम संपर्क भाषा के रूप में हिंदी की भूमिका अविस्मरणीय है । भारत संघ की राजभाषा के रूप में इसका प्रचार-प्रसार एवं प्रयोग अन्य गैर-हिंदी प्रांतों की तुलना में दक्षिण में अधिक है । जनता की ज़रूरतों तथा सरकार की नीतियों के आलोक में दक्षिण भारत में हिंदी भाषा का भविष्य निश्चय ही उज्जवल रहेगा ।