Wednesday, August 13, 2008

व्यंग्य



जरूरत एक कोप भवन की


- विवेकरंजन श्रीवास्तव, रामपुर, जबलपुर ।



भगवान श्री राम के युग की स्थापत्य कला का अध्ययन करने में एक विशेष तथ्य उद्घाटित होता है- वह यह कि तब भवन में रूठने के लिए एक अलग स्थान होता था । इसे कोप भवन कहते थे । गुस्सा आने पर मन ही मन घुनने के बजाय कोप भवन में जाकर अपनी भावनाओं का इजहार करने की परंपरा थी । कैकेयी को श्री राम का राज्याभिषेक पसंद नहीं आया, वे कोप भवन में चली गई । राजा दशरथ उन्हें मनाने पहुंचे - राम का वन गमन हुआ । मेरा अनुमान है कि अवश्य ही इस कोप भवन की साज-सज्जा, वहां का संगीत, वातावरण, रंग रोगन, फर्नीचर, इंटीरियर ऐसा रहता रहा होगा, जिससे मनुष्य की क्रोधित भावना शांत हो सके, उसे सुकून मिल सके । यह निश्चित ही शोध का विषय है । बल्कि मेरा कहना तो यह है कि पुरातत्व-शास्त्रियों को श्री राम जम्न भूमि प्रकरण सुलझाने के लिए अयोध्या की खुदाई में कोप भवन की विषिष्टता का ध्यान रखना चाहिए ।
आज पुन: कोप भवन प्रासंगिक हो चला है । अब खिचड़ी सरकारों का युग है, यह सर्वविदित सत्य है कि खिचड़ी में दाल-चावल से ज्यादा महत्व घी, अचार, पापड़, बिजौरा, सलाद, नमक और मसालों का होता है । सुस्वाद खिचड़ी के लिए इन सब की अपनी-अपनी अहमियत होती है, भले ही ये सभी कम मात्रा में हो, पर प्रत्येक का महत्व निर्विवाद है । प्री पोल एक्जिट पोल के चक्कर में हो, या कई चरणों के मतदान के चक्कर में, पर हमारे वोटर ने जो ‘राम भरोस’ है ऐसा मेंडेंट देना शुरू किया है कि सरकार ही ‘राम भरोस’ बन कर रह गई लगती है । राम भक्तों के द्वारा, राम भरोसे के लिए, राम भरोसे चलने वाली सरकार । आम आदमी इसे खिचड़ी सरकार कहता है । खास लोग इसे ‘एलायन्स’ वगैरह के नाम से पुकारते हैं ।
इन सरकारों के नामकरण संस्कार, सरकारों के मकसद वगैरह को लेकर मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं, नेता वगैरह ही रूठते हैं, जैसे बचपन में मैं रूठा करता था, कभी टॉफी के लिए, कभी खिलौनों के लिए, या मेरी पत्नी रूठती है आजकल, कभी गहनों के लिए, कभी साड़ी के लिए, या मेरे बच्चे रूठते हैं, वी.सी.डी. के लिए, ए.सी के लिए । देश-काल, परिस्थिति व हैसियत के अनुसार रूठने के मुद्दे बदल जाते हैं, पर रूठना एक ‘कामन’ प्रोग्राम है । रूठने की इसी प्रक्रिया को देखते हुए ‘कोप भवन’ की जरूरत प्रासंगिक बन गई है । कोप भवन के अभाव में बड़ी समस्या होती रही है । ममता रूठ कर सीधे कोलकाता चली जाती थी, तो जय ललिता रूठकर चेन्नई । बेचारे जार्ज साहब कभी इसे मनाने यहां, तो कभी उसे मनाने वहां जाते रहते थे । खैर अब उस युग का पटाक्षेप हो गया है पर केवल किरदार ही तो बदले हैं । कभी अचार की बाटल छिप जाती है, कभी घी की डिब्बी, कभी पापड़ कड़कड़ कर उठता है, तो कभी सलाद के प्याज-टमाटर-ककड़ी बिखरने लगते हैं- खिचड़ी का मजा किरकिरा होने का डर बना रहता है ।
अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधान सभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह एक एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे । इससे सबसे बड़ा लाभ मोर्चे के संयोजकों को होगा । विभाव के बंटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही मांग न माने जाने पर जैसी ही किसी का दिल टूटेगा, वह कोप भवन में चला जाएगा । रेड अलर्ट का सायरन बजेगा । संयोजक दौड़ेगा । सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुंच, रूठे को मना लेगा- फुसला लेगा । लोकतंत्र पर छाया खतरा टल जाएगा।
जनता राहत की सांस लेगी । न्यूज वाले चैनलों की रेटिंग बढ़ जाएगी । वे कोप भवन से लाइव टेलीकास्ट दिखाएंगे । रूठना-मनाना सार्वजनिक पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप, सैद्धांतिक वाग्जाल के तहत पब्लिक हो जायेगा । आने वाली पीढ़ी जब ‘घर-घर’ खेलेगी तो गुड़िया का कोपभवन भी बनाया करेगी बल्कि, मैं तो कल्पना करता हूँ कि कहीं कोई मल्टीनेषनल ‘कोप-भवन’ के मेरे इस 24 कैरेट विचार का पेटेंट न करवा ले, इसलिए मैं जनता जनार्दन के सम्मुख इस परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा हूँ । मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि कुंठित रहने से बेहतर है, कुंठा को उजागर कर बिंदास ढंग से जीना । अब हम अपने राजनेताओं में त्याग, समर्पण, परहित के भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तो उनके स्वार्थ, वैयक्तिक उपलब्धियों की महत्वकांक्षाओं के चलते, खिचड़ी सरकारों में उनका कुपित होना जारी रहेगा, और कोप भवन की आवश्यकता, अनिवार्यता में बदल जाएगी।
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